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Sunday, February 24, 2013

हिंसा का उत्सव (शशि शेखर)

निम्नलिखित प्रत्येक अक्षर मैंने यहाँ खुद टाइप किया - क्यों? इसलिए की विचार मिलते हैं, जिसे निम्नलिखित के रूप में आज शब्द मिले :------>  एक बार अवश्य पढ़िए (MUST READ ONCE)>>

"आज़ाद भारत के इतिहास में शायद यह पहला मौक़ा था, जब राष्ट्रपति संसद में अपना अभिभाषण पढ़ रहे थे और देश महा-हड़ताल के दौर से गुजर रहा था। सिर्फ एक दिन पहले हमने टेलिविज़न पर नोयडा में हुई हिंसा के दृश्य देखर थे। अगली सुबह अखबार जब चाय की चुस्कियों के साथ इन घटनाओं से लोगों को रूबरू करा रहे थे, तब लोगों के अलसाए दिमाग में सवाल थे - क्या नई दिल्ली और देश के बीच वाकई कोई द्वैत पसर गया है? क्या हम भारत और इंडिया के बीच का विरोधाभास जी रहे हैं!!??

पहले नोयडा की बात। [लेखक '-शशि शेखर-' पेशे से खबरनवीस हैं।] टीवी  देखना और देखते रहना मेरी दिनचर्या में शुमार है। न्यूज़ एजेंसियों के 'टेक', 'फ़्लैश, और टीवी पर लगातार दोहराय जाने वाले 'विजुअल' मुझे नए विचार दे जाते हैं। पिछले बुधवार को जब नोयडा के एक ही विजुअल को बार-बार दोहराया जा रहा था, तब प्याज के छिलकों की तरह कई सत्य और तथ्य परत-दर-परत मन की सतह पर उभरते गए। पता नहीं आपने गौर किया या नहीं, जो लोग फैक्ट्रियों में तोड़-फोड़ कर रहे थे, उनके चेहरे पर गुस्सा नहीं था। वे हंस रहे थे। गाड़ियों के शीशे तोड़ने वाले नौजवान 'एंग्री-यंगमैन' से ज्यादा - 'आवेश और आनद' - के तलबगार लग रहे थे। आदतन हादसा गुजर जाने के बाद सक्रीय होने वाली पुलिस ने बाद में जिन सौ से ज्यादा लोगों को गिरफ्तार किया, उनमे से तमाम १२-१५ बरस के किशोर थे। शोषक और शोषित की इस कथित लड़ाई में 'मज़ा!'...??

लेखक के पुत्र के मित्र की एक छोटी-सी फैक्टरी भी नोयडा के उसी सेक्टर में है। उन्होंने जो बताया, वह चौंकाने वाला है। वह नौजवान व्यवसाई अपने  दफ्तर में बैठा काम कर रहा था। अचानक कुछ हुडदंगी घुस आए! उन्होंने गालिया देते हुए तोड़-फोड़ शुरी कर दी! इन उत्पातियों को एहसास नहीं था कि वह पूरा परिसर विडियो कैमरों की निगरानी में है। हादसा गुजर जाने के बाद उसने अपने कैमरों को 'फुटेज' देखि। वह देखता है - एक अधेड़-सा व्यक्ति निहायत मजाकिया अंदाज़ में कम्प्यूटर का सीपीयू उठाकर शीशे पर मार रहा है! एक नौजवान अपने डंडे को खाली कुर्सियों पर ऐसे बजा रहा है, जैसे बैंड मास्टर बजाते हैं! रिकार्डेड फुर्ज़ में अट्टहास के स्वर हैं और गालियों की ताल भी! ऐसा लगता है, जैसे किसी पुराने कसबे में होली के हुरियारे घुस आय हैं! क्या ये वाकई हडताली हैं? क्या शोषण की वजह से इनके अन्दर कोई गुस्सा है? ऐसा करते समय वे भूल गए हैं कि उन्हीं के भाई-बंधू इस तरह की फैक्टरियों और दफ्तरों में काम करते हैं। फिर जिन लोगों की गाड़ियाँ तोड़ी गईं, जो पिटे और जीके वाहनों में आग लगा दी गई उनका क्या कसूर था?

पिछले साल गुडगाँव में जब मारुति की फैक्टरी में हंगामा हुआ था, तब भी चिंता की आवाजें उठी थीं। नोयडा में जो लीग लुटे-पिटे, वे भारतीय हैं, पर मारुति में जापान की भी हिस्सेदारी है। जब यहाँ तोड़फोड़, आगजनी और एक प्रबंधक की हत्या हुई, तो जाहिर है, समूची दुनिया के कॉर्पोरेट जगत में हलचल मच गई। उन्हें लगा कि भारत उनके लिए सुरक्षित मुकाम नहीं है। इससे पहले हौंडा की फैक्टरी में में ऐसा ही उधम हुआ था।तब भी चिंता उभरी थी कि जो गुडगाँव विदेशी पूँजी निवेश के लिए आकर्षण का केंद्र बन रहा है, यदि वहाँ यही हाल रहा, तो कौन परदेसी वहां पैसे लगाएगा? नोयडा गुडगाँव से कहिन्गाया गुजरा है! अगर वहां इस तरह की अराजकता फैली, तो उत्तर प्रदेश की भूमि पर कोई कारोबारी निवेश करने की हिम्मत आखिर कैसे जुटाएगा?

एक और सवाल 'लेखक के' -(मेरे भी)- जेहन में उभरता है।: दिल्ली में 'दामिनी' के साथ जो कुछ हुआ, उसके बाद शांतिपूर्वक प्रतिरोध करने वाले लोग सडकों पर आ जुटे। वे शालीन, गंभीर और सरोकार संपन्न लोग थे। उन्हें हिंसा से परहेज था और इसीलिए वे वहां आ जमे थे। उनदिनों भी टेलिविज़न पर कुछ दृश्य दिखे। इंडिया गेट के पास कुछ लोग सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचा रहे थे! कोई रोड बैरियर खींचे लिए जा रहा था, तो किसी को गाड़ियाँ तोड़ने में आनंद मिल रहा था। उन लोगों के चेहरे पर भी नोयडा के हुड़दंगियों जैसे भाव थे। कहीं जाने-अनजाने हम उत्पात और हिंसा की चपेट में तो नहीं आ रहे? अगर ऐसा हो रहा है, तो इसे रोकना होगा, क्योंकि इससे सरकार, प्रशासन और आम आदमी का ध्यान मूल मुद्दों से भटक जाता है। देश के सामने कई गंभीर सवाल हैं, जिनसे जूझने की जिम्मेदारी केवल सरकार, किसी भी राजनीतिक दल या ख़ास की नहीं है। इस समय को जी रहे सभी लोग इस जंग में बराबर के साझीदार हैं।

मैं यहाँ स्पष्ट कर दूँ कि मैं भी चाहता हूँ कि देश में खुशहाली आए। श्रमिकों को उनके श्रम की उचित कीमत मिले और उनके बच्चे आगे बढ़ सकें। ऐसा करने के लिए जरूरी है, सार्थक बहस और कम-से-कम कुछ मुद्दों पर आम सहमती। दुर्भाग्य से ऐसा नहीं होता। संसद में लगे कैमरों को ध्यान में रखकर बोलते सांसदों पर गौर फरमाइए या फिर टेलिविज़न स्क्रीन पर चिल्लाते पार्टी प्रवक्ताओं की ओर ध्यान दीजिये। क्या आपको मुफलिसी से लड़ने का कोई ज़ज्बा कहीं दिखता है? यही वह सवाल है जो लेखक को -(मुझे भी)- चिंतित करता है।

लगभग दो साल पहले जापान में सुनामी और भूकंप आया था। फुकुशिया के परमाणु संयंत्र में पानी भर आया था। रेडिएशन के खतरे पैदा हो गए थे। कई शहरों में बिजली चली गई थी और यातायात थम गया था। खुद टोक्यो इसकी चपेट में आ गया था। जिन लोगों  इस जादुई शहर को देखा है, वे जानते हैं कि वहां लोगों को काम करने के लिए ७०-८० (सत्तर-अस्सी) मील दूर तक से आना होता है। इसके लिए उनके पास एक ही विकल्प है- ट्रेन। भूकंप के कारण ट्रेनें रोक दी गईं थीं। लिहाज़ा लोगों को रात खुले आसमान के नीचे गुजारनी पड़ीं या मीलों चल कर घर पहुंचना पड़ा, पर किसी ने बदइन्तजामी की शिकायत नहीं की। क्यों? लेखक ने यह सवाल वहां रह रही एक हिन्दुस्तानी महिला को फोन पर पूछा। उनका कहना था कि सरकार हमारी है। ऐसे में, अगर किसी प्राकृतिक आपदा की वजह से बदइन्तजामी फैली है, तो उससे जूझने की जिम्मेदारी सभी की है। वहां के लोग सरकार को नहीं कोसते, बल्कि उसकी सहायता करते हैं, ताकि हालात जल्दी से जल्दी सामान्य हो सकें। उन्होंने इसके साथ यह भी जोड़ा कि भारत में ठीक इसके उलटा होता है। वह सही थीं। नोयडा में जो लोग लाठी-डंडे लेकर हिंसा का उत्सव मना रहे थे, वे समस्या से जूझ नहीं रहे थे उसे बाधा रहे थे। जो लोग किसी निरीह पर हुए बालात्कार अथवा कुछ मुद्दों के आधार पर आयोजित की गई हड़ताल को आनंद का जरिया बनाते हैं, आप उन्हें क्या कहेंगे? उनसे क्या उम्मीद की जा सकती है?

इसीलिए राष्ट्रपति का अभिभाषण सुनते समय लेखक के -(मेरे मन में भी)- सवाल उठ रहा था कि मूल समस्या मंदी और बेरोजगारी नहीं, बल्कि तेजी से रसातल में जा रहे हमारे सामाजिक एवं सांस्कृतिक मूल्य हैं। इस क्षरण को रोकना होगा। बाकी बुराइयां खुद-ब-खुद काबु में आ जायेंगी।"

_श्रीकांत तिवारी .
(मूल लेखक श्री शशि शेखर)
साभार: दैनिक हिन्दुस्तान २४-फ़रवरी-२०१३
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