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Monday, April 30, 2012

स्वयंभू भगवान् !

३०,अप्रैल`२०१२          लोहरदगा           ०८:०० प्रात: 

स्वयंभू भगवान् !

राज कपूर कृत फिल्म 'सत्यम शिवम सुन्दरम' के पहले ही दृश्य में : सड़क के किनारे पड़े एक पत्थर को दिखाया जाता है, BACKGROUND से राज कपूर दर्शकों से पूछते हैं "इसे आप क्या कहेंगे? पत्थर ही न?", तभी परदे पर दिखता है कि कुछ लोग उस पत्थर के पास आते हैं और फल, फूल रखते हैं, उस पत्थर पर चन्दन और फूल चढ़ा कर उसका जल से अभिषेक करते हैं, शंख ध्वनि होती है, वातावरण पवित्र हो जाता है, अलौकिक अनुभूति होती है. तभी राज कपूर की आवाज़ पूछती है: "अब आप इसे क्या कहेंगे?" "_भगवान्_!"

सच तो ये है कि हमारी श्रद्धा ही किसी पत्थर को भगवान् बनाती है, और हमसे उसकी पूजा करवाती है. पहाड़ का पत्थर जब शिल्पकार के हाथों किसी भगवान् की मूरत बन जाता है तो हमारी उसमे श्रद्धा हो जाती है. उस पत्थर की मूरत को या किसी देवी-देवता की तस्वीर को या अपने पूर्वजों की तस्वीर को पूजते समय दरअसल हम एक प्रतीक की पूजा कर रहे होते हैं, जो हमें उस 'प्रतीक' के माध्यम से हमारा ध्यान उस प्रतीक से सम्बंधित ईश्वर या मनुष्य से जोड़ता है. सच है कि इंसान सदियों से "सत्य" को ढूंढने में अथक, निरंतर लगा हुआ है, और न जाने कब तक लगा रहेगा. कोई अध्यात्म के माध्यम से तो कोई विज्ञान के माध्यम से. ऐसा माना जाता है कि श्री राम कृष्ण परमहंस जी के द्वारा सिर पर स्पर्श मात्र से स्वामी विवेकानंद जी गुण-ज्ञान के खान बन गए थे!_ऐसा नहीं है. श्री राम कृष्ण परमहंस जी को लोग अलौकिक पुरुष मानते हैं, पर स्वामी विवेकानंद जी भी बिलकुल ही गावदी नहीं थे, उनमे स्वत: जन्मजात गुण थे, परमहंस जी ने उन्हें स्पर्श कर के अपने उत्तराधिकार उन्हें सौंपे थे. बाकी सब कुछ स्वामी विवेकानंद जी की अपनी क्षमता और कुशाग्रता थी जिसके कारण वे आज भी हमारे मन-मानस में पूज्यनीय हैं और भारत गौरान्वित है.

कहीं खेत में पड़े किसी पत्थर को हम भगवान मान कर उसकी पूजा करते हैं, हल चलाते किसान को कभी कोई शिला मिल जाती है, तो कहीं किसी के गृह निर्माण के दौरान नींव की खुदाई में से निकले पत्थर को भगवान्, साक्षात "शिव" का प्रादुर्भाव समझ कर वहां मंदिर बनवा देते हैं और श्रद्धालु जन उसकी पूजा कर अपने को धन्य समझते हैं. हमारे देश में ऐसे ही "प्रकट" हुए 'भगवान्' को हम "स्वयंभू भगवान्" कहते हैं. हो सकता है वो मूर्ति जो जमीन के नीचे से बरामद हुई वो पुरातन काल के किसी मंदिर का (पूर्व काल में निर्मित किसी मंदिर के अवशेष) भग्नावशेष हो! फिर वो 'स्वम्भू' कैसे कहलायेंगे? यदि प्राकृतिक रूप से पत्थर स्वयं जुड़ कर किसी भगवन की मूरत ले ले तो न वो "स्वयंभू कहलायेंगे!? ...कि बरामद भग्नावशेष को स्वयंभू कहेंगे!? हो सकता है हमारे देश की किसी मंदिर के भगवान् की मूर्ति को स्वयंभू का दर्ज़ा प्राप्त हो, जो मुझे ज्ञात नहीं. लेकिन प्राप्त भग्नावशेष को स्वयंभू मैं नहीं कह सकूँगा. हाँ जिस जमीन के नीचे से मूर्ति या शिवलिंग मिले उस ज़मीन पर नए मंदिर का निर्माण किया जा सकता है. पर उस गृह-स्वामी का क्या जिसके जमीन से भगवान् प्रकट हुए? क्या हो अगर वो हिन्दू न हो? क्या हो अगर वो मंदिर के नाम पे ज़मीन न छोड़े!?...दंगा करोगे? उसे जमीन के बदले जमीन दे दी जाती है, पर उसे मंज़ूर न हो तो,...दंगा करोगे? नहीं न! फिर किसी यत्न से उस बरामद भग्नावशेष या भगवान् की मूर्ति को किसी दूसरी जमीन पर स्थापित कर मंदिर बना दी जाती है. फिर और भी शंकाएं हैं जैसे: ज्यादातर 'शिव जी' ही क्यों स्वयंभू के रूप में प्रकट होते हैं!? माता लक्ष्मी, सरस्वती, दुर्गा, काली या श्रीराम, हनुमानजी, श्रीकृष्ण व अन्य दुसरे देवी-देवता क्यों नहीं!? आगे, जिसकी ज़मीन से मूर्ति मिली भगवान् ने उस पर क्या मेहरबानी की? क्या उसे कोई चमत्कारिक लाभ हुआ? उसके लिए मोक्ष का द्वार खुल गया? क्या उसका चरित्र पावन हो गया? क्या उसने जीवन का अर्थ पा लिया? क्या उसकी आगामी पीढ़ी सदा-सर्वदा के लिए कृत-कृत हो गयी, क्या उन्हें अब कोई नया उद्यम नहीं करना पड़ेगा?

हमारे देश में कुछ इंसान भी "स्वयंभू भगवान्" बने बैठे हैं. उन्हें किसने भगवान् बनाया? निश्चित रूप से हमही ने! इसके समर्थन में अनेक लोग मिलेंगे जो अपना अनुभव ये कहते हुए बताएँगे कि किस तरह 'फलां बाबा' के आशीर्वाद से उनका कल्याण हो गया. किस तरह किसी नजूमी के ताबीज़ ने उसकी कायापलट कर दी! उदाहरण के लिए अभी हाल ही में चर्चा का विषय रहे निर्मलजीत सिंह उर्फ़ 'निर्मल बाबा' हैं, जिन्हें अलौकिक शक्तियों का स्वामी समझ कर जनता ने उन्हें अपना ईश्वर समझ लिया है, और तन-मन-धन उन पर नेयोछावर किये जा रहे हैं. हमारी स्वाभाविक प्रवृति पहले तो ऐसा मानने, करने से इनकार करती है, लेकिन श्रद्धालुओं की उमड़ी भीड़ हमें भी भीड़ का हिस्सा बना देती है. कुछ लोग इसी तरह भगवान् बने बैठे हैं. और जनता उनकी बात सुनती है, उनके कहे का अनुकरण करती है, उस 'बाबा' को अपनी आस्था का केंद्र बना लेते हैं. जिनकी मनोकामना नहीं पूरी होती वे तत्काल उस स्वम्भू भगवान् "बाबा" को ठग कहना शुरू कर देते हैं. ऐसी ही है हम इंसानों की प्रवृत्ति! जो पहले तो किसी को बाबा बना कर सिर पे चढ़ा लेते हैं और जरा सी गड़बड़ी होते ही उस बाबा को उठा कर जमीन पर पटक देते हैं. कितने ही लोग हैं नहीं मानते कि ईश्वर एक सच्चाई है, जब तक की उन्हें किसी "चमत्कार" के प्रमाणिक साक्ष्य न मिल जाये. लेकिन श्रद्धा और विश्वास को किसी साक्ष्य की आवश्यकता नहीं होती, जैसे कि हम घरों में अपने पूर्वजों की तस्वीर या उनकी मूर्ति स्थापित कर उनके आगे श्रद्धा से अपना सिर नवाते हैं और दुआएं मांगते हैं, वो दुआ क़ुबूल न हो तो भी हमारे पूर्वज हमारे लिए सदा पूज्यनीय बने रहते हैं न! क्या ईश्वर हमारे पूर्वज नहीं!? पर वो तताकथित "बाबा" हमारा कौन होता है?

रोज लगातार हजारों लोग 'अमरनाथ', 'बद्रीनाथ', वैष्णव देवी', ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती, तो कोई शिरडी के साईं बाबा के 'दरबार' में आस और उम्मीद लगाये उनके दर्शन को जा रहे हैं. वहां वे मन्नतें मांगते हैं. विदेशों से भी अनेकानेक लोग भारत इसीलिए आ रहे हैं. क्या सब-के-सब उपकृत हो जाते हैं? क्या सभी की मनोकामनाएं पूरी होती हैं? अगर हाँ तो क्यों इतनी बदहाली है? क्यों इतनी तंगी है?  क्यों इतना भष्टाचार है? क्या इसलिए कि जिन्हें कृपा नहीं मिली उनमे कोई खोट है, और जिन्हें कृपा मिली वे निष्कपट है? या फिर 'उस' भगवान् में ही कोई भेद है!!!???...ये बहस भी स्वम्भू भगवान् के प्रादुर्भाव के पहले दिन से ही चली आ रही है. लेकिन अब तक इसका ठीक-ठीक पक्का जबाब नहीं मिला है, खेत से या किसी और जमीन के नीचे से बरामद पत्थर को भगवान् समझ कर पूजने की हमारी पुरानी प्रवृत्ति है. कोई तस्वीर को पूज कर ही धन्य हो गए समझता है, तो कोई किसी की मूरत को. ये मान्यताएं सदियों पुरानी हैं जिन्हें कोई भी नहीं बदल सकता.

हमारे देश में ईश्वर एक अत्यंत संवेदनशील विषय बना दिए गए हैं. जिनके नाम पर खूब सहूलियत से रोजी-रोटी ही नहीं कमाई जाती बल्कि ईश्वर के नाम पर भोग-विलाष और राज-पाट भी पूरे ठाट-बाट के साथ की जाती है. कभी यहाँ 'गणेश जी' की मूर्ति स्वत: दूध पीने लगती है, तो कभी कोई बाबा भगवन बन कर हमारे सिर पर बैठ जाता है !! ईश्वर की मान्यता एक अलौकिक (जो इस लोक, पृथ्वी, से परे हो) शक्ति से है जिसने सृष्टि की रचना की, जिनके इशारे मात्र से "BIG-BANG" की घटना हुई! कुछ लोग इस शक्ति की अनुभूति की बात करते हैं, तो सुनने वाले के मन में ये आस जागती है कि शायद उन पर भी उस शक्ति की कृपा हो जाएगी, और देवालयों, मंदिरों और धार्मिक स्थलों की ओर जनता की भीड़ उमड़ पड़ती है. अपने पुरुषार्थ से बढ़ कर लोग देवी-देवता की उपासना में भरोसा करते हैं. पर देवी-देवता की पूजा ये नहीं कहती कि अन्धविश्वाश कर लोग पुरुषार्थ करना छोड़ दें! और कोई भी उद्यम या प्रयास ये नहीं कहता की पूजा करना छोड़ दो. पूजा हमारी व्यक्तिगत अभिव्यक्ति है जिसमे किसी धर्म से ज्यादा हमारी मान्यता और आस्था का महत्व है. 

भारत में आध्यात्म और धर्म दो अलग-अलग विषय, और आज के परिवेश में अलग-अलग मुद्दे हैं. 

आध्यात्म हमें सन्मार्ग की बात बतलाता है. धर्म को लोगों ने व्यापार बना कर इसे कलुषित कर दिया है. और इसके लिए वो इंसान जिम्मेवार हैं जो "स्वम्भू भगवान्" बने बैठे हैं. वो सत्ताधीष जिम्मेवार हैं जो धर्म की राजनीति करते हैं. लेकिन हमें भी समझदारी से काम लेना चाहिए और अपनी जिम्मेवारी समझनी चाहिए.

पर क्या हम समझते हैं? क्या कभी हमें अक्ल आएगी? 

......!!!

-श्रीकांत तिवारी