पेश है! फ्रेश है!
इस साल जनवरी के पहले सप्ताह में मैंने मुंडन करवाया था (क्यों?_वो छोडिये!)। मैं नए उगने वाले बालों के बारे में तरह-तरह के विचारों से जूझ रहा था। घर से बाहर निकलने में लाज आती थी! '...ऊंहूं..बेई, कोई देखतई तो का बोलतई ..!' गनीमत यह थी की सीजन जाड़े का था, जिसमें टोपी के इस्तेमाल से लाज-लगाने वाली बात को छिपाया जा सकता था। फ़ौरन उनी टोपी ने मेरे कंटीले चाँद पर अपना मुकाम बना लिया, और शक्ल को एक समझौता के लायक फ्रेम प्रदान किया! बाबूजी हमेशा कहा करते थे कि :'..बबुआ के ललाट बड़ी ऊँच बा!' अभी देखते तो यही कहते कि '...अंतहीन बा!!' ...अबकी बार लम्बे बाल रखने का खूब मन है। सच्ची!! अनुपम सिन्हा सर के जैसा! सो बाल शीघ्र उगाने वाले कई नुस्खों पर गौर फरमाया गया। कोई नहीं जंचा। अतः राम-कृष्ण-अल्लाह-वाहेगुरु-जीजस का नाम लेकर माँ प्रकृति के हवाले इन्हें इनके हाल पर छोड़ दिया गया। और मूँछ उगाने की ठान ली! शकल पर कहीं तो बाल दिखाना चाहिए कि नहीं? सो मूंछ उगाई गई! औए अतीत को याद करने लगे जैसे इम्तिहान से पहले सबक याद किया करते थे,.....
"...सौ साल पहले मुझे तुमसे प्यार था!"_देव आनंद की हेयर स्टाइल की क्या बात! वैसे ही "काकुल" तो बाबूजी भी बनाया करते थे! "...अरे हो ! जिया ओ जिया कुछ बोल दो !!!" कुछ दिनों बाद मैंने बाबूजी के बाल देखे तो भौंचक्का रह गया! बाबूजी अशोक कुमार दिख रहे थे और गुनगुना रहे थे :"...चल-चल रे नौजवान!" नया दौर में दिलीप साहब के बाल देखे थे न, कैसे बिना हिलाये भी उनकी भहों तक उनके 'ललाट' को अपनी सुरक्षा में रखते थे! तिलक लगाने के लिए जिन्हें कंघी से वापस ऊपर समेटना पड़ जाता था! ...जब तांगा हांकते थे तो कैसे इठलाते उड़ते थे! ...उनकी तारीफ़ में बैजयंती माला ने कितने अनुराग से गीत गाये थे! .'...उड़े जब-जब जुल्फें तेरी,...कवांरियों का दिल मचले जिंद -मेरिये !.और दिलीप साहब के बाल हवा में कैसे उड़-उड़कर इस तारीफ़ को कुबूल कर रहे थे! ..और दिलीप साहब के चेहरे का नूर! वाह! ..और उनके हँसते हुए खुले मुँह को एक शानदार फ्रेम प्रदान कर रहे थे!! "ओ..ओह:!!" "..और फिर अमिताभ बच्चन की हेयर स्टाइल का कौन दीवाना नहीं भला !? "उनको भगवद्कृपा से क्या नहीं प्राप्त है!!!" _जिसमे से अगर बालों को हटा दिया जाय तो... सोचकर ही डर लगता है!! ...याद है न वह ज़माना, ..जब आईने के सामने खड़े होकर नाकाफी बाल को भी काफी बनाने की ज़द्दोज़हद में स्कूल में रोजीना लेट पंहुचते थे, ...और मा'-साब भर-मुट्ठी 'झोंटा' पकड़कर झंकझोरते थे! ...वाह! वो भी क्या दिन थे! "45-इंच" मोहरी वाली बेलबौटम जिसने नहीं पहनी वह क्या खाकर अमिताभ या धर्मेन्द्र बनेगा!! घर से निकलने से पहले आईने में खुद को निहार कर बाल को कंघी से संवारना लाजिमी होता था! ...बड़ी झुंझलाहट होती थी, ...किसी कोने से भी अमिताभ नहीं दिखाई पड़ते थे! पर दिल कहता _वो रहे, सामने ही तो खड़े हैं !! उन्हें आइनें में ढूँढने के लिए कितनी कोशिशें कीं, कितने पोज़ बनाते हमने, आपने और न जाने न जाने कितनों ने कितने ही समय यूँ ही, प्रयासरत, आईने के सामने बिता दिए हैं! ..एक-आध बार लगता था कि '...अइस्स्स !' ...लेकिन तुरंत वह छवि गायब हो जाती थी, और बाल उड़-मुड़ कर फिर घूंघर बन जाते थे! कभी फोटो खीचाने का अवसर आने को होता था तो उसके लिए बालों को अभी से ही संजोना समेंटना शुरू कर देते थे! स्टूडियो वाला कंघी-पाउडर के लिए जो वक़्त देता था वह सिर्फ बालों को "विजय" की तरह सोंट कर झुकाने में और संतुष्ट होने में हमें ईतना देर लगता था कि स्टूडियो वाला तब तक तीन-चार ग्राहक निपटा लेता था! जब वो थोडा बेचैन होकर आता तो '..बस, और एक मिनट!' की गुजारिश वो खूब समझता था, इसीलिए अपने हाथों से एक मिनट में ही मुझे 'विजय' बना दिया करता था, और फोटो खीचने के लिए मेज पर बैठने को कहता! कई स्टैंडों पर कसी, कई आकार की अल्युमिनियम की (लाउड स्पीकर जैसे शक्ल वाली) लाइटें सेट करता, अन्वाश्यक बत्तियां बुझाता! और स्टैंड वाली सभी लाइट्स को ऑन करता! जिसके 'GLAIR -!' से हमारी आँखें चुंधियाती! जलन सी होती! हम आँखें मींचते! आँखों से आंसू ढलकर गालों के पाउडर को धो देते! स्प्रे से सोंट कर और ड्रायर से सुखाकर और झुका कर सेट की गई महीनों की तपस्या से प्राप्त 'विजय' स्टाइल बाल और मुँह और स्टूडियो वाले द्वारा फिनिशिंग टच दिए बाल का स्टाइल किसी अनजान स्टाइल के शेप में आ जाता! लाइट की गर्मी से सूख कर फिर से घुँघर बनने की धमकी देने लगता! हमारी सारी सोच और सपने मरते हए से प्रतीत होते! फिर भी 'विजय' बने रहने की जिद्द में हम यह सारा टॉर्चर सहते! आंसू भरी आखों को किच्मिचाते खुली रखने की अदम्य साहस 'विजय' होने के जोश को और दुगुना कर देती! हम फिर डट जाते! और 'विजय' की उस शक्ल को याद करते कि वो कब, कहाँ, कैसे, कितना ..सबसे ज्यादा खुबसूरत लगा था! और निश्चय करने से पहले ही स्टूडियो वाला हाथ में अपना ऐतिहासिक पौराणिक कैमरा लेकर हाज़िर होकर कुछ खुद हड़बड़ाता और हमें भी हड़बड़ा देता! हमारे जेहन से 'विजय' गायब हो जाता! हमें "काला-पत्थर वाले चश्मा धारी संजीव कुमार दीखने लगते! मैं भगवन-भगवन कह 'विजय' को याद करता! तभी त्रिपाद पर खड़े कैमरे में से झांकता स्टूडियो वाला हमारे पास आता और हमारे चेहरे को पकड़कर इस तरह हिलाता-डुलाता जैसे हंडिया के ढक्कन की चूड़ी सेट कर रहा हो! फिर वैसे ही हमारे कंधे को टर्न देता, ट्विस्ट देता, दाए-बायं एडजस्ट कर तसल्ली करता 'हाँ! अब "घईलवा " नईं लुढ़कतई!' वो -हिलना मत- की हिदायत देता फुर्ती से वापस कैमरे में से झाँक मुझे देखता और इशारे से सर थोडा और ऊपर, थोडा नीचे करवाता! "स्माइल प्लीज़" बोलता! मैं 'विजय' हूँ ! मुस्काता हूँ! तो सेठ धरमदयाल तेजा की शक्ल दिखी! स्टूडियो वाले ने फाइनली कहा "रेडी...!" 'पसीने ले लथपथ विजय' ने चीखा :"कमीने!!!!!" -_झमाक्क_-!! खीच गई फोटो ! हफ़्तों इन्तजार के बाद जब फोटो मिला तो हमने 'विजय' को देखा! वो -फिर से- 'विजय' नहीं था! मैं नहीं था! कोई नहीं था! पर लगता तो कोई मनुष्य का बच्चा ही था! जिसकी कोई पहचान नहीं थी! पर 'विजय' बने रहने की लत्त्त जैसे खून में घुस गई है! ...ज्यादा दिन भी नहीं बीता था कि फिर सनक गए! और उपाय सोचने लगे!
अब एक ही उपाय था! हजामत बनवायेंगे ही नहीं, कम-से-कम छः महीने तक तो बिलकुल नहीं! केश बढ़ें! बढ़ते जाएँ! और शनैः-शनैः हम उसे 'विजय-शेप' में ढालते जाएँ! और रोजीना सुबह की पहली नमाज़ सुनते ही हम शुरू हो जायेंगे! फिर हेयर ड्रायर तो है ही, गरमा-गरम हवा, हर घुँघर को सीधी कर देगी! ...अगले कुछ ही दिनों बाद स्कूल में खाली पिरियड के बीच जब ग्राउंड पर जाते तो खेलते कम, अपनी 'परछाईं के सर' को ज्यादा घूरते! ;(मन हीं मन मुदित होलकर सोचते)'...हाँ! अखनी अमिताभ दिखलऊ रे, भाय!' ...तभी किसी ने फिर भर-मुट्ठी बालों को भींचा, पलटकर देखा तो जान सूख गई! हेडमास्टर साहब ने कड़क कर अलंकारिक भाषा व्यवहार का नमूना पेश करते झट एक कैंची जेब से निकली और मुट्ठी भर जकड़े हुए बालों को कुतर कर फेंक दिया!! हम हक्के-बक्के, दुक्के-चौंके-खड़े रह गए!! हैडमास्टर साहब गरजे :"...`~!@#$%^&* इमरजेंसी का टाइम है, इंदिरा जी के हुकम है कि ईस्कूल में लम्बा बाल नइ रखना है, हम बोले थे ना?_फिर काहे रखा रे .*&^#@!" और दो थाप दिए! फिर भी उनका गुस्सा शांत नहीं हुआ! उनकी नज़र "45-इंची" मोहरी वाली स्कूल-ड्रेस के रंग वाली "बेलबौटम" पर पड़ी, :"...ई बोरा पएँध के ईस्कूल आया है!?और उनकी कैंची ने इस बार बेलबौटम की भी जान निकाल दी! उन्होंने ये किया क्यों की इंदिरा जी ने उन्हें अधिकृत किया था! इस फटी बेलबौटम को पहने हुए चलते वक़्त मर्दानी टांगें जब जांघ तक की झलक झलकातीं थीं तो मारे शर्म के मरने को भी मन नहीं करता था! हेड मास्टर मुझे "सामंत" दीखता! 'विजय' की तरह दांत किटकिटाते, छिपते-छिपाते मेन रोड के बदले पतली गलियों से गुजरते धीमे-धीमे से चलते, अपना बस्ता कनपटी से सटाय, चुपके से घर में घुसे, बस्ता फेंका, एक गमछे से सिर ढके आईने में अमिताभ को देखा ...अमिताभ नहीं थे! न 'विजय' था! न मैं था! ..फिर कोई अजनबी बालक था!! जिसके सर के बालों की हजामत और अजीबोंगीब कतरब्योंत का कौशल देखकर "नउवा" के सम्मान में "तत्काल प्राप्त भाषा व्यवहार ज्ञान" का एक सुन्दर सा नमूना मेरे मुँह से निकला गया! सुन कर त्योरियां चढ़ाए बाबूजी कमरे से निकले और दो चमेंटा लगा दिए! ("...अमिताभ उर्फ़ 'विजय' की यह दुर्दशा!"...एक दिन में चार चमेंटा! उफ़ !) जब उनकी नजरें मेरे बालों पर पड़ी तो वे समझ गये कि 'बबुआ' ने कांग्रेस के इमेजेंसी यज्ञ में अपने बालों की भी आहुति दे दी है! "..अर्रेह !! पैन्टवो के!?"...वे मुझे पैन्ट बदलवा कर उसी वक़्त सैलून में ले गए! ठाकुर को बोले कि तुरंत इसकी अच्छी हजामत करो,.. हम आते हैं! वे लौटे तो उनके इतजार में बैठे, उंघते और सुबक-सुबक कर रोते मेरी नजर उनपर पड़ी और उनकी नजर मुझपर, ...पर वे उपेक्षा से दूसरी तरफ देखने लगे!! मुझे पहचाना ही नहीं! मैं बेंच पर से उठकर सुबकते-सुड़कते उनके पास आ ही रहा था कि उन्होंने ठाकुर से पूछा :"बबुआ केने गइलन?" ठाकुर ने हैरानी से उन्हें देखा, और मेरी ओर इशारा किया! बाबूजी :""..आएँ! ..ई का? हो! एकर "बेल" कहे मूंड दिए?" ठाकुर ने कहा :"कौनो जग्घे नैय हलई 'तवेरे बबा'(तिवारी बाबा), केने से कैचिया लगैतिलई ! एहे लास्ट उपाय रहई!" ...बाबूजी मुझे पुचकारते, अपने (नए) "चाँद" के टुकड़े को सहलाते हुए घर ले आये और हर वह वादा किया जिससे बालक का मन बहल जाय! लेकिन अमिताभ का गुस्सा शांत नहीं हुआ! वह -विजय- बुरी तरह फुनफुनाया हुआ ही रहा ..
...आज भी अमिताभ मीन्स "_विजय_" का गुस्सा वैसे ही भड़का हुआ है! गुस्सा है पर 'विजय' और अमिताभ नहीं,...है तो ये मूँछ वाला जो आईने से मुझे घूरता कोई उदण्ड और जिद्दी, बज्र-बुद्धि, "गर्दभ"-स्वर वाला, ढीठ अहिर दिख रहा है, जिसका तम्बाकू के दुर्गन्ध युक्त मैला गमछा भी धुलने से मना करता है, यानि सच्चा साथी है! अस्तु, चाँद की रौशनी बिखर कर बर्बाद हो रही है!
_ऐसा क्यों ? आगे पढ़िए ...
....और ..26-जनवरी`2013आते तक इतने बाल उग चुके थे कि अब काँटों की तरह चुभते नहीं थे। हाथ फेरने पर एक मखमली अहसास होता था। लेकिन आईने में प्रत्याशित चेहरा नज़र नहीं आया। मैं रोज़ कल्पना करता कि इस बार बालों के फ्रेम में जड़ी मेरी सूरत कुछ तो गज़ब जरूर ढायेगी ! लेकिन सिरफल (बिल्व फल अर्थात बेल) सिरफल ही दिखता था, जिसपर बरसाती चिकते पड़े दीखते थे, निराशा होती थी, लेकिन आशा नहीं टूटती थी। ...उगेगा...उगेगा ! दिन-हपते-महीने गुजर गये, कंघी जिसे हाथ लगाय महीनें बीत चुके, जनवरी से मई आ गया पर वह तिरस्कृत भिखार की भांति सूख कर अपना लावण्य खो चुका है ! ...तब एक ख़याल मन में आया! चलो थोड़ी दिनों के लिए अमिताभ नहीं, "आमिर" ही सही, मूँछ उगा ली जाय, कहीं तो बाल दिखने ही चाहिए! हाल ही में फिल्म "तलाश" में पहली बार खाखी वर्दीधारी पुलिस इंस्पेक्टर की और उसकी शानदार मूँछ की याद आई और 'चन्देल' के भीतर -CFL- ( C. A. Fail ) रौशन हो गया! ...लेकिन मूँछ की पहली "शो" ही पिट गई! मेरे बेटे ने मुझे मेसेज किया ;'OH1..god11..clear your mustache, nOw! "आमिर तुरन 'धूम' मचने भाग गया! आखिर हमउम्र है! ...लेकिन विजय कहीं न कहीं से अभी भी मुझे आश्वासन दे रहा है! मन ने कहा 'घर की खेती है, दुसरे का क्या जाता है, अपनी सुनो - अपनी करो! तो मूँछ कायम रही! सोचा शादी-व्याह का सीजन है, दो-दो शादियाँ हैं, क्यों न इसी गेटउप में यह शादी-सीजन पार कर दिया जाय! दो सप्ताह में मूँछ के बाल इतने बड़े अरज में बढ़ गए थे कि अब उन्हें शेप-&-साइज़ दिया जा सकता था! कार्यालय का हरेक कर्मचारी साथी अब एक नए विषद राय-विचार में मग्न हो गए! पहले वाली बात एक हपते में ही हवा हो गई! कोई बोलता बोलता रुक गया! कोई दैनिक अभिवादन भूल गया! कोई मुँह फेरकर हंसा! किसी ने मुँह भी नहीं बिचकाया! कोई आँखें फाड़े देखता रहा! कोई सोच में डूबा हुआ! तो कहीं खुसर-फुसर! इस जोरदार धीमे झटके से जब वे उबरे _२-हपतों में बेशुमार राय-विचार मेरे पास जमा हो गए! लेकिन किसी के भी विचार को मैं क्यों मानूं, आखिर मेरी भी तो कोई सोच है, मूँछ मेरी है या उनकी? सबके विचारों को तिलांजलि देकर मोबाईल से नाइ को फोनकर घर आने को कहा! उसने कहा :"ढेरे भीड़ हई भईया अखनी नै आवे पारेंगे! एक-आध घंटा बाद आते हैं! वइसे आप हियें सैलुनवे में आइये ना तुरते काम हो जाएगा!" मैंने कहा :"नहीं भाई, घर पर ही आइये!" और नाइ का इंतजार करने लगा! आखिरकार खूब कलपाकर नाइ आया, तो मैंने उसे एक-दो DVD चलाकर, हीरो के ख़ास पोज़ को still कर दिखलाया! Less than 1-CM मेरी लम्बी बालों को दिखलाकर बोला :"बाल अईसन, ओर मोंछ अईसन होखे के चाहीं!" पुराने जमाने के मशहूर "खिजाब" ने विभिन्न रंगों के "डाइज़"/"मेहंदी" का रूप ले लिया है, मैंने नाइ से बालों और नई-नवेली मूँछ को कलर कर देने को कहा! (आखिर सादी-बियाह के समय हई !). नाइ ने सेवा पूरी की और मुझे आईना देखकर तसल्ली करने को कहा! मैंने आईने में झाँका ...न अमिताभ रुपी विजय, न आमीर, दिलीप साब तो बड़े दूर की बात है, यहाँ तो खुद मैं ही नहीं हूँ! कोई खूंखार शक्ल वाला असामाजिक तत्व खड़ा है .."रंगे हुए मूँछ और नन्हें बालो वाला शेट्टी!!" _क्या ऐसा सचमुच संभव है? है। तभी तो असलियत सामने है! लेकिन मैं तो बढियां आदमी हूँ यार! हे भगवान!.... क्या से क्या हो गया! आदमी यूँ भी कहीं बदलता है भला! फिर मैंने खुद को तसल्ली दी और कई तरह के सवालों के कई तरह के एक्सपलेनेशंस सोचने लगा! डर सिर्फ दो जनों से था! पहले वाइफ से! दुसरे बॉस से!! ...फिर मैंने पुनः अपने को तसल्ली दी '...अभी कोई है कहाँ!' "हम जइयई, भईया?" _नाइ ने टोका। "हाँ ..हाँ! जा!" ..और अपने ख्यालों में फिर खो गया! नाइ ने फिर टोक दिया। "अरे हाँ रे, जाहिन ना !" नाइ हिचकिचाया : "उ.. भ..भईया पइसवा .." मुझे खेद हुआ, मैंने उसे राजी-ख़ुशी कर विदा कर दिया। उसपर बिगड़ने का क्या मतलब? जो कहा गया उसे उसने किया! करनी तो मेरी थी, जिसे भुगतनी भी मुझे ही होगी! मैं झुंझलाया (:"...आखिर बेल काहे ला मुंडवइले हलियई, कितना अच्छा बाल रहई जिके मुंडवा के अब पछताईत हियई, के जाने ई बरिस में समूचा जमबो करतई की नईं!?)...और मूँछ भी अभी ताज़ा-ताज़ा काला रंगा हुआ भयानक लग रहा है! यूँ जैसे कोई -उपरी जिलों- का कुरता पहने अहिर हो जिसका लाल गमछा, वस्त्र का एक अनिवार्य वस्तु, जिसकी लाठी जैसी ताक़त की पहचान स्थापित है, जो हमेशा उसके कंधे पर या मुण्डे हुए बेल पर शोभायमान रहती है, और सेम-टू -सेम यही वेष-भूषा होती है जो आदमी आईने से मेरी और मेरी आँखों में झाँक रहा है, जो ढिठई से पेश आता हैं, पान-गुटखा-तम्बाकू-खैनी-गांजा-भांग-दारु-सिगरेट-बीड़ी का नित्य सेवन और पालन सनातन धर्म की तरह समझकर करता हैं; जिसकी आँखें हमेशा लाल रहतीं है! जो हर उम्र की महिला को सर्फ एक ही निगाह से देखता है! जो हर भीड़ में आपको धकियाता है! जो हर गाडी में जबरन सीट लूटता है! जो सिनेमा की टिकटों की ब्लैक-मार्केटिंग करता है! जिसके आचार-व्यवहार बोली और मंत्रोच्चार भी में माँ-बहन (वो चाहे उन्हीं की माँ-बहन क्यों न हो !) गाली-गलौज युक्त वाक्य होते हैं जिसके प्रयोग के बिना वो अपना दुखड़ा तक नहीं सुना सकता! जो अब बसें धोने वाला खलासी नहीं है, बस का कंडक्टर नहीं है, बस अड्डे पर बसों के टिकटों की एजेंटी भी अब यह नहीं करता, पेट्रोल पम्प का नोज़ल मैन भी नहीं है, _अब यह हाई-वे पेट्रोल पम्प का मालिक है!! यह नेताजी हैं!! यह नेताजी के ख़ास चमचा हैं! जो नेताजी की लालबत्ती वाली सफ़ेद, कई झंडे फ़ुनगे लगे, एक्स्ट्रा लाइट्स लगी -बोलेरो- में बिना हॉर्न बजाय 'उलटी दिशा से ', वन-वे में दनदनाते फिरते हैं! सोसाइटी के नासूर......!" फिर भी हिम्मत करके उपरी जिलों के सफ़र को निकल गए!
वाइफ से पहले घर के मर्दों और गुंजन से मुलाकात हुई, मैंने आशीर्वाद देने से पहले पूछा :"कैसा लग रहा हूँ? गुंजन :"एकदम झकास!" तभी वाइफ पधारीं :"ई डाकू जइसन मोंछ का जाने काहे ला बढ़ा लिए हैं, छेह!' माँ :"ठीक त लागतआ" मैंने सफाई दी और ढिठाई में ही पनाह ढूंढी :"रे !आखिर सार के बियाह बा!" फिर किसी को मेरी मूँछ से मतलब नहीं रहा! आते वक़्त गाँधी सेतु पर मैंने नयी मूँछ और कुर्ते में फोटो खिंचवाई थी! कैमरा में उन्हें देखने लगा _मुझे वही असभ्य मुस्टंडा, गुंडा मुझे घूरता हुआ दिखा! जो कभी-कभार मस्तकपर लम्बा लाल टीका लगाए औए हाथों में लाल धागे और कड़े भी पहनता है! मैंने कैमरा बंद कर दिया! अब तो किसी तरह यह यज्ञ पूरा हो, घर पहुंचूं फिर ...तभी वाइफ़ ने सवाल शुरू किया :"मोंछ काहे बढ़ा लिए हैं?" जबाब :"मुंडवाने के लिए।" सवाल : मुंडवाना ही था तो बढाए काहे?" जबाब : "मुंडवाने के लिए!"
सफ़र से लौटने के साथ ही यह निर्णय ले लिया गया कि मूँछ की कुर्बानी हर हाल में दी जायेगी! लेकिन ख़ास मौके पर! आप मेरी मूँछ मुंडन संस्कार में सादर आमंत्रित होइएगा!
जाते-जाते कृष्ण चन्दर जी की किताब "एक गधे की आत्म कथा" में शुमार एक शेर शायद यहाँ भी फिट लगे!
"बनाकर गधों का हम भेस 'ग़ालिब'l"
तमाशा-ए-अहले-करम देखते हैंll"
बेलम !
बौटम !!
बौड़म !!!
भह :
_श्री .
इस साल जनवरी के पहले सप्ताह में मैंने मुंडन करवाया था (क्यों?_वो छोडिये!)। मैं नए उगने वाले बालों के बारे में तरह-तरह के विचारों से जूझ रहा था। घर से बाहर निकलने में लाज आती थी! '...ऊंहूं..बेई, कोई देखतई तो का बोलतई ..!' गनीमत यह थी की सीजन जाड़े का था, जिसमें टोपी के इस्तेमाल से लाज-लगाने वाली बात को छिपाया जा सकता था। फ़ौरन उनी टोपी ने मेरे कंटीले चाँद पर अपना मुकाम बना लिया, और शक्ल को एक समझौता के लायक फ्रेम प्रदान किया! बाबूजी हमेशा कहा करते थे कि :'..बबुआ के ललाट बड़ी ऊँच बा!' अभी देखते तो यही कहते कि '...अंतहीन बा!!' ...अबकी बार लम्बे बाल रखने का खूब मन है। सच्ची!! अनुपम सिन्हा सर के जैसा! सो बाल शीघ्र उगाने वाले कई नुस्खों पर गौर फरमाया गया। कोई नहीं जंचा। अतः राम-कृष्ण-अल्लाह-वाहेगुरु-जीजस का नाम लेकर माँ प्रकृति के हवाले इन्हें इनके हाल पर छोड़ दिया गया। और मूँछ उगाने की ठान ली! शकल पर कहीं तो बाल दिखाना चाहिए कि नहीं? सो मूंछ उगाई गई! औए अतीत को याद करने लगे जैसे इम्तिहान से पहले सबक याद किया करते थे,.....
"...सौ साल पहले मुझे तुमसे प्यार था!"_देव आनंद की हेयर स्टाइल की क्या बात! वैसे ही "काकुल" तो बाबूजी भी बनाया करते थे! "...अरे हो ! जिया ओ जिया कुछ बोल दो !!!" कुछ दिनों बाद मैंने बाबूजी के बाल देखे तो भौंचक्का रह गया! बाबूजी अशोक कुमार दिख रहे थे और गुनगुना रहे थे :"...चल-चल रे नौजवान!" नया दौर में दिलीप साहब के बाल देखे थे न, कैसे बिना हिलाये भी उनकी भहों तक उनके 'ललाट' को अपनी सुरक्षा में रखते थे! तिलक लगाने के लिए जिन्हें कंघी से वापस ऊपर समेटना पड़ जाता था! ...जब तांगा हांकते थे तो कैसे इठलाते उड़ते थे! ...उनकी तारीफ़ में बैजयंती माला ने कितने अनुराग से गीत गाये थे! .'...उड़े जब-जब जुल्फें तेरी,...कवांरियों का दिल मचले जिंद -मेरिये !.और दिलीप साहब के बाल हवा में कैसे उड़-उड़कर इस तारीफ़ को कुबूल कर रहे थे! ..और दिलीप साहब के चेहरे का नूर! वाह! ..और उनके हँसते हुए खुले मुँह को एक शानदार फ्रेम प्रदान कर रहे थे!! "ओ..ओह:!!" "..और फिर अमिताभ बच्चन की हेयर स्टाइल का कौन दीवाना नहीं भला !? "उनको भगवद्कृपा से क्या नहीं प्राप्त है!!!" _जिसमे से अगर बालों को हटा दिया जाय तो... सोचकर ही डर लगता है!! ...याद है न वह ज़माना, ..जब आईने के सामने खड़े होकर नाकाफी बाल को भी काफी बनाने की ज़द्दोज़हद में स्कूल में रोजीना लेट पंहुचते थे, ...और मा'-साब भर-मुट्ठी 'झोंटा' पकड़कर झंकझोरते थे! ...वाह! वो भी क्या दिन थे! "45-इंच" मोहरी वाली बेलबौटम जिसने नहीं पहनी वह क्या खाकर अमिताभ या धर्मेन्द्र बनेगा!! घर से निकलने से पहले आईने में खुद को निहार कर बाल को कंघी से संवारना लाजिमी होता था! ...बड़ी झुंझलाहट होती थी, ...किसी कोने से भी अमिताभ नहीं दिखाई पड़ते थे! पर दिल कहता _वो रहे, सामने ही तो खड़े हैं !! उन्हें आइनें में ढूँढने के लिए कितनी कोशिशें कीं, कितने पोज़ बनाते हमने, आपने और न जाने न जाने कितनों ने कितने ही समय यूँ ही, प्रयासरत, आईने के सामने बिता दिए हैं! ..एक-आध बार लगता था कि '...अइस्स्स !' ...लेकिन तुरंत वह छवि गायब हो जाती थी, और बाल उड़-मुड़ कर फिर घूंघर बन जाते थे! कभी फोटो खीचाने का अवसर आने को होता था तो उसके लिए बालों को अभी से ही संजोना समेंटना शुरू कर देते थे! स्टूडियो वाला कंघी-पाउडर के लिए जो वक़्त देता था वह सिर्फ बालों को "विजय" की तरह सोंट कर झुकाने में और संतुष्ट होने में हमें ईतना देर लगता था कि स्टूडियो वाला तब तक तीन-चार ग्राहक निपटा लेता था! जब वो थोडा बेचैन होकर आता तो '..बस, और एक मिनट!' की गुजारिश वो खूब समझता था, इसीलिए अपने हाथों से एक मिनट में ही मुझे 'विजय' बना दिया करता था, और फोटो खीचने के लिए मेज पर बैठने को कहता! कई स्टैंडों पर कसी, कई आकार की अल्युमिनियम की (लाउड स्पीकर जैसे शक्ल वाली) लाइटें सेट करता, अन्वाश्यक बत्तियां बुझाता! और स्टैंड वाली सभी लाइट्स को ऑन करता! जिसके 'GLAIR -!' से हमारी आँखें चुंधियाती! जलन सी होती! हम आँखें मींचते! आँखों से आंसू ढलकर गालों के पाउडर को धो देते! स्प्रे से सोंट कर और ड्रायर से सुखाकर और झुका कर सेट की गई महीनों की तपस्या से प्राप्त 'विजय' स्टाइल बाल और मुँह और स्टूडियो वाले द्वारा फिनिशिंग टच दिए बाल का स्टाइल किसी अनजान स्टाइल के शेप में आ जाता! लाइट की गर्मी से सूख कर फिर से घुँघर बनने की धमकी देने लगता! हमारी सारी सोच और सपने मरते हए से प्रतीत होते! फिर भी 'विजय' बने रहने की जिद्द में हम यह सारा टॉर्चर सहते! आंसू भरी आखों को किच्मिचाते खुली रखने की अदम्य साहस 'विजय' होने के जोश को और दुगुना कर देती! हम फिर डट जाते! और 'विजय' की उस शक्ल को याद करते कि वो कब, कहाँ, कैसे, कितना ..सबसे ज्यादा खुबसूरत लगा था! और निश्चय करने से पहले ही स्टूडियो वाला हाथ में अपना ऐतिहासिक पौराणिक कैमरा लेकर हाज़िर होकर कुछ खुद हड़बड़ाता और हमें भी हड़बड़ा देता! हमारे जेहन से 'विजय' गायब हो जाता! हमें "काला-पत्थर वाले चश्मा धारी संजीव कुमार दीखने लगते! मैं भगवन-भगवन कह 'विजय' को याद करता! तभी त्रिपाद पर खड़े कैमरे में से झांकता स्टूडियो वाला हमारे पास आता और हमारे चेहरे को पकड़कर इस तरह हिलाता-डुलाता जैसे हंडिया के ढक्कन की चूड़ी सेट कर रहा हो! फिर वैसे ही हमारे कंधे को टर्न देता, ट्विस्ट देता, दाए-बायं एडजस्ट कर तसल्ली करता 'हाँ! अब "घईलवा " नईं लुढ़कतई!' वो -हिलना मत- की हिदायत देता फुर्ती से वापस कैमरे में से झाँक मुझे देखता और इशारे से सर थोडा और ऊपर, थोडा नीचे करवाता! "स्माइल प्लीज़" बोलता! मैं 'विजय' हूँ ! मुस्काता हूँ! तो सेठ धरमदयाल तेजा की शक्ल दिखी! स्टूडियो वाले ने फाइनली कहा "रेडी...!" 'पसीने ले लथपथ विजय' ने चीखा :"कमीने!!!!!" -_झमाक्क_-!! खीच गई फोटो ! हफ़्तों इन्तजार के बाद जब फोटो मिला तो हमने 'विजय' को देखा! वो -फिर से- 'विजय' नहीं था! मैं नहीं था! कोई नहीं था! पर लगता तो कोई मनुष्य का बच्चा ही था! जिसकी कोई पहचान नहीं थी! पर 'विजय' बने रहने की लत्त्त जैसे खून में घुस गई है! ...ज्यादा दिन भी नहीं बीता था कि फिर सनक गए! और उपाय सोचने लगे!
अब एक ही उपाय था! हजामत बनवायेंगे ही नहीं, कम-से-कम छः महीने तक तो बिलकुल नहीं! केश बढ़ें! बढ़ते जाएँ! और शनैः-शनैः हम उसे 'विजय-शेप' में ढालते जाएँ! और रोजीना सुबह की पहली नमाज़ सुनते ही हम शुरू हो जायेंगे! फिर हेयर ड्रायर तो है ही, गरमा-गरम हवा, हर घुँघर को सीधी कर देगी! ...अगले कुछ ही दिनों बाद स्कूल में खाली पिरियड के बीच जब ग्राउंड पर जाते तो खेलते कम, अपनी 'परछाईं के सर' को ज्यादा घूरते! ;(मन हीं मन मुदित होलकर सोचते)'...हाँ! अखनी अमिताभ दिखलऊ रे, भाय!' ...तभी किसी ने फिर भर-मुट्ठी बालों को भींचा, पलटकर देखा तो जान सूख गई! हेडमास्टर साहब ने कड़क कर अलंकारिक भाषा व्यवहार का नमूना पेश करते झट एक कैंची जेब से निकली और मुट्ठी भर जकड़े हुए बालों को कुतर कर फेंक दिया!! हम हक्के-बक्के, दुक्के-चौंके-खड़े रह गए!! हैडमास्टर साहब गरजे :"...`~!@#$%^&* इमरजेंसी का टाइम है, इंदिरा जी के हुकम है कि ईस्कूल में लम्बा बाल नइ रखना है, हम बोले थे ना?_फिर काहे रखा रे .*&^#@!" और दो थाप दिए! फिर भी उनका गुस्सा शांत नहीं हुआ! उनकी नज़र "45-इंची" मोहरी वाली स्कूल-ड्रेस के रंग वाली "बेलबौटम" पर पड़ी, :"...ई बोरा पएँध के ईस्कूल आया है!?और उनकी कैंची ने इस बार बेलबौटम की भी जान निकाल दी! उन्होंने ये किया क्यों की इंदिरा जी ने उन्हें अधिकृत किया था! इस फटी बेलबौटम को पहने हुए चलते वक़्त मर्दानी टांगें जब जांघ तक की झलक झलकातीं थीं तो मारे शर्म के मरने को भी मन नहीं करता था! हेड मास्टर मुझे "सामंत" दीखता! 'विजय' की तरह दांत किटकिटाते, छिपते-छिपाते मेन रोड के बदले पतली गलियों से गुजरते धीमे-धीमे से चलते, अपना बस्ता कनपटी से सटाय, चुपके से घर में घुसे, बस्ता फेंका, एक गमछे से सिर ढके आईने में अमिताभ को देखा ...अमिताभ नहीं थे! न 'विजय' था! न मैं था! ..फिर कोई अजनबी बालक था!! जिसके सर के बालों की हजामत और अजीबोंगीब कतरब्योंत का कौशल देखकर "नउवा" के सम्मान में "तत्काल प्राप्त भाषा व्यवहार ज्ञान" का एक सुन्दर सा नमूना मेरे मुँह से निकला गया! सुन कर त्योरियां चढ़ाए बाबूजी कमरे से निकले और दो चमेंटा लगा दिए! ("...अमिताभ उर्फ़ 'विजय' की यह दुर्दशा!"...एक दिन में चार चमेंटा! उफ़ !) जब उनकी नजरें मेरे बालों पर पड़ी तो वे समझ गये कि 'बबुआ' ने कांग्रेस के इमेजेंसी यज्ञ में अपने बालों की भी आहुति दे दी है! "..अर्रेह !! पैन्टवो के!?"...वे मुझे पैन्ट बदलवा कर उसी वक़्त सैलून में ले गए! ठाकुर को बोले कि तुरंत इसकी अच्छी हजामत करो,.. हम आते हैं! वे लौटे तो उनके इतजार में बैठे, उंघते और सुबक-सुबक कर रोते मेरी नजर उनपर पड़ी और उनकी नजर मुझपर, ...पर वे उपेक्षा से दूसरी तरफ देखने लगे!! मुझे पहचाना ही नहीं! मैं बेंच पर से उठकर सुबकते-सुड़कते उनके पास आ ही रहा था कि उन्होंने ठाकुर से पूछा :"बबुआ केने गइलन?" ठाकुर ने हैरानी से उन्हें देखा, और मेरी ओर इशारा किया! बाबूजी :""..आएँ! ..ई का? हो! एकर "बेल" कहे मूंड दिए?" ठाकुर ने कहा :"कौनो जग्घे नैय हलई 'तवेरे बबा'(तिवारी बाबा), केने से कैचिया लगैतिलई ! एहे लास्ट उपाय रहई!" ...बाबूजी मुझे पुचकारते, अपने (नए) "चाँद" के टुकड़े को सहलाते हुए घर ले आये और हर वह वादा किया जिससे बालक का मन बहल जाय! लेकिन अमिताभ का गुस्सा शांत नहीं हुआ! वह -विजय- बुरी तरह फुनफुनाया हुआ ही रहा ..
...आज भी अमिताभ मीन्स "_विजय_" का गुस्सा वैसे ही भड़का हुआ है! गुस्सा है पर 'विजय' और अमिताभ नहीं,...है तो ये मूँछ वाला जो आईने से मुझे घूरता कोई उदण्ड और जिद्दी, बज्र-बुद्धि, "गर्दभ"-स्वर वाला, ढीठ अहिर दिख रहा है, जिसका तम्बाकू के दुर्गन्ध युक्त मैला गमछा भी धुलने से मना करता है, यानि सच्चा साथी है! अस्तु, चाँद की रौशनी बिखर कर बर्बाद हो रही है!
_ऐसा क्यों ? आगे पढ़िए ...
....और ..26-जनवरी`2013आते तक इतने बाल उग चुके थे कि अब काँटों की तरह चुभते नहीं थे। हाथ फेरने पर एक मखमली अहसास होता था। लेकिन आईने में प्रत्याशित चेहरा नज़र नहीं आया। मैं रोज़ कल्पना करता कि इस बार बालों के फ्रेम में जड़ी मेरी सूरत कुछ तो गज़ब जरूर ढायेगी ! लेकिन सिरफल (बिल्व फल अर्थात बेल) सिरफल ही दिखता था, जिसपर बरसाती चिकते पड़े दीखते थे, निराशा होती थी, लेकिन आशा नहीं टूटती थी। ...उगेगा...उगेगा ! दिन-हपते-महीने गुजर गये, कंघी जिसे हाथ लगाय महीनें बीत चुके, जनवरी से मई आ गया पर वह तिरस्कृत भिखार की भांति सूख कर अपना लावण्य खो चुका है ! ...तब एक ख़याल मन में आया! चलो थोड़ी दिनों के लिए अमिताभ नहीं, "आमिर" ही सही, मूँछ उगा ली जाय, कहीं तो बाल दिखने ही चाहिए! हाल ही में फिल्म "तलाश" में पहली बार खाखी वर्दीधारी पुलिस इंस्पेक्टर की और उसकी शानदार मूँछ की याद आई और 'चन्देल' के भीतर -CFL- ( C. A. Fail ) रौशन हो गया! ...लेकिन मूँछ की पहली "शो" ही पिट गई! मेरे बेटे ने मुझे मेसेज किया ;'OH1..god11..clear your mustache, nOw! "आमिर तुरन 'धूम' मचने भाग गया! आखिर हमउम्र है! ...लेकिन विजय कहीं न कहीं से अभी भी मुझे आश्वासन दे रहा है! मन ने कहा 'घर की खेती है, दुसरे का क्या जाता है, अपनी सुनो - अपनी करो! तो मूँछ कायम रही! सोचा शादी-व्याह का सीजन है, दो-दो शादियाँ हैं, क्यों न इसी गेटउप में यह शादी-सीजन पार कर दिया जाय! दो सप्ताह में मूँछ के बाल इतने बड़े अरज में बढ़ गए थे कि अब उन्हें शेप-&-साइज़ दिया जा सकता था! कार्यालय का हरेक कर्मचारी साथी अब एक नए विषद राय-विचार में मग्न हो गए! पहले वाली बात एक हपते में ही हवा हो गई! कोई बोलता बोलता रुक गया! कोई दैनिक अभिवादन भूल गया! कोई मुँह फेरकर हंसा! किसी ने मुँह भी नहीं बिचकाया! कोई आँखें फाड़े देखता रहा! कोई सोच में डूबा हुआ! तो कहीं खुसर-फुसर! इस जोरदार धीमे झटके से जब वे उबरे _२-हपतों में बेशुमार राय-विचार मेरे पास जमा हो गए! लेकिन किसी के भी विचार को मैं क्यों मानूं, आखिर मेरी भी तो कोई सोच है, मूँछ मेरी है या उनकी? सबके विचारों को तिलांजलि देकर मोबाईल से नाइ को फोनकर घर आने को कहा! उसने कहा :"ढेरे भीड़ हई भईया अखनी नै आवे पारेंगे! एक-आध घंटा बाद आते हैं! वइसे आप हियें सैलुनवे में आइये ना तुरते काम हो जाएगा!" मैंने कहा :"नहीं भाई, घर पर ही आइये!" और नाइ का इंतजार करने लगा! आखिरकार खूब कलपाकर नाइ आया, तो मैंने उसे एक-दो DVD चलाकर, हीरो के ख़ास पोज़ को still कर दिखलाया! Less than 1-CM मेरी लम्बी बालों को दिखलाकर बोला :"बाल अईसन, ओर मोंछ अईसन होखे के चाहीं!" पुराने जमाने के मशहूर "खिजाब" ने विभिन्न रंगों के "डाइज़"/"मेहंदी" का रूप ले लिया है, मैंने नाइ से बालों और नई-नवेली मूँछ को कलर कर देने को कहा! (आखिर सादी-बियाह के समय हई !). नाइ ने सेवा पूरी की और मुझे आईना देखकर तसल्ली करने को कहा! मैंने आईने में झाँका ...न अमिताभ रुपी विजय, न आमीर, दिलीप साब तो बड़े दूर की बात है, यहाँ तो खुद मैं ही नहीं हूँ! कोई खूंखार शक्ल वाला असामाजिक तत्व खड़ा है .."रंगे हुए मूँछ और नन्हें बालो वाला शेट्टी!!" _क्या ऐसा सचमुच संभव है? है। तभी तो असलियत सामने है! लेकिन मैं तो बढियां आदमी हूँ यार! हे भगवान!.... क्या से क्या हो गया! आदमी यूँ भी कहीं बदलता है भला! फिर मैंने खुद को तसल्ली दी और कई तरह के सवालों के कई तरह के एक्सपलेनेशंस सोचने लगा! डर सिर्फ दो जनों से था! पहले वाइफ से! दुसरे बॉस से!! ...फिर मैंने पुनः अपने को तसल्ली दी '...अभी कोई है कहाँ!' "हम जइयई, भईया?" _नाइ ने टोका। "हाँ ..हाँ! जा!" ..और अपने ख्यालों में फिर खो गया! नाइ ने फिर टोक दिया। "अरे हाँ रे, जाहिन ना !" नाइ हिचकिचाया : "उ.. भ..भईया पइसवा .." मुझे खेद हुआ, मैंने उसे राजी-ख़ुशी कर विदा कर दिया। उसपर बिगड़ने का क्या मतलब? जो कहा गया उसे उसने किया! करनी तो मेरी थी, जिसे भुगतनी भी मुझे ही होगी! मैं झुंझलाया (:"...आखिर बेल काहे ला मुंडवइले हलियई, कितना अच्छा बाल रहई जिके मुंडवा के अब पछताईत हियई, के जाने ई बरिस में समूचा जमबो करतई की नईं!?)...और मूँछ भी अभी ताज़ा-ताज़ा काला रंगा हुआ भयानक लग रहा है! यूँ जैसे कोई -उपरी जिलों- का कुरता पहने अहिर हो जिसका लाल गमछा, वस्त्र का एक अनिवार्य वस्तु, जिसकी लाठी जैसी ताक़त की पहचान स्थापित है, जो हमेशा उसके कंधे पर या मुण्डे हुए बेल पर शोभायमान रहती है, और सेम-टू -सेम यही वेष-भूषा होती है जो आदमी आईने से मेरी और मेरी आँखों में झाँक रहा है, जो ढिठई से पेश आता हैं, पान-गुटखा-तम्बाकू-खैनी-गांजा-भांग-दारु-सिगरेट-बीड़ी का नित्य सेवन और पालन सनातन धर्म की तरह समझकर करता हैं; जिसकी आँखें हमेशा लाल रहतीं है! जो हर उम्र की महिला को सर्फ एक ही निगाह से देखता है! जो हर भीड़ में आपको धकियाता है! जो हर गाडी में जबरन सीट लूटता है! जो सिनेमा की टिकटों की ब्लैक-मार्केटिंग करता है! जिसके आचार-व्यवहार बोली और मंत्रोच्चार भी में माँ-बहन (वो चाहे उन्हीं की माँ-बहन क्यों न हो !) गाली-गलौज युक्त वाक्य होते हैं जिसके प्रयोग के बिना वो अपना दुखड़ा तक नहीं सुना सकता! जो अब बसें धोने वाला खलासी नहीं है, बस का कंडक्टर नहीं है, बस अड्डे पर बसों के टिकटों की एजेंटी भी अब यह नहीं करता, पेट्रोल पम्प का नोज़ल मैन भी नहीं है, _अब यह हाई-वे पेट्रोल पम्प का मालिक है!! यह नेताजी हैं!! यह नेताजी के ख़ास चमचा हैं! जो नेताजी की लालबत्ती वाली सफ़ेद, कई झंडे फ़ुनगे लगे, एक्स्ट्रा लाइट्स लगी -बोलेरो- में बिना हॉर्न बजाय 'उलटी दिशा से ', वन-वे में दनदनाते फिरते हैं! सोसाइटी के नासूर......!" फिर भी हिम्मत करके उपरी जिलों के सफ़र को निकल गए!
वाइफ से पहले घर के मर्दों और गुंजन से मुलाकात हुई, मैंने आशीर्वाद देने से पहले पूछा :"कैसा लग रहा हूँ? गुंजन :"एकदम झकास!" तभी वाइफ पधारीं :"ई डाकू जइसन मोंछ का जाने काहे ला बढ़ा लिए हैं, छेह!' माँ :"ठीक त लागतआ" मैंने सफाई दी और ढिठाई में ही पनाह ढूंढी :"रे !आखिर सार के बियाह बा!" फिर किसी को मेरी मूँछ से मतलब नहीं रहा! आते वक़्त गाँधी सेतु पर मैंने नयी मूँछ और कुर्ते में फोटो खिंचवाई थी! कैमरा में उन्हें देखने लगा _मुझे वही असभ्य मुस्टंडा, गुंडा मुझे घूरता हुआ दिखा! जो कभी-कभार मस्तकपर लम्बा लाल टीका लगाए औए हाथों में लाल धागे और कड़े भी पहनता है! मैंने कैमरा बंद कर दिया! अब तो किसी तरह यह यज्ञ पूरा हो, घर पहुंचूं फिर ...तभी वाइफ़ ने सवाल शुरू किया :"मोंछ काहे बढ़ा लिए हैं?" जबाब :"मुंडवाने के लिए।" सवाल : मुंडवाना ही था तो बढाए काहे?" जबाब : "मुंडवाने के लिए!"
सफ़र से लौटने के साथ ही यह निर्णय ले लिया गया कि मूँछ की कुर्बानी हर हाल में दी जायेगी! लेकिन ख़ास मौके पर! आप मेरी मूँछ मुंडन संस्कार में सादर आमंत्रित होइएगा!
जाते-जाते कृष्ण चन्दर जी की किताब "एक गधे की आत्म कथा" में शुमार एक शेर शायद यहाँ भी फिट लगे!
"बनाकर गधों का हम भेस 'ग़ालिब'l"
तमाशा-ए-अहले-करम देखते हैंll"
बेलम !
बौटम !!
बौड़म !!!
भह :
_श्री .