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Saturday, December 29, 2012

श्री जगन्नाथ पुरी जी की यात्रा - चौथा दिन

24-12-2012  सोमवार,  जगन्नाथ पुरी 

आज का दिन कुछ विलम्ब से शुरू हुआ। हमारे सो कर उठने में देर की वजह से उदीयमान सूर्य का दर्शन हम सी-बीच पर नहीं कर सके। फिर भी सभी तैयार हो कर सी-बीच पर जा पहुंचे। वहां अभी और भीड़ बढ़ गई थी। छुटियाँ मनाने देश के अनेक हिस्से से ख़ास कर कोलकाता (पश्चिम बंगाल) से आये अधिकांश लोगों की भीड़ थी। हमने रोजाना की तरह बीच पर मछुवारों और मलाहों के कार्यकलापों और मेहनत और उससे प्राप्त जीव-जंतुओं और समुद्री, जलीय अनेक सामानों को देखा। माँ, वीणा और रूपा ने इनमे खूब दिलचस्पी ली और कुछ मोतियाँ खरीदीं। चिलिका में मोती खरीदने में उन्हें बढ़िया चूना लगा था, सो सी-बीच पर उन्हीं वस्तुओं को आधे से भी कम कीमत पर मिलता पा कर जहाँ वे खुश थीं वहीं उन्हें पिछले दिन के ठगी से गुस्सा और अफ़सोस हो रहा था।

काफी वक़्त सी-बीच पर गुजरने के बाद हम होटल वापस आये और समुद्र स्नान के लिए इस बार हम मॉडल-सी-बीच पर गए। वहां ज्यादा भीड़ नहीं थी। बने हुए शेड के नीचे चादर बिछा कर इस बार अपना बाकि बचा बाइफ़ोकल चश्मा मैंने रूपा को संभल कर रखने के लिए दे दिया। और दौड़कर पानी में बच्चों के साथ घुस गया। यहाँ लहरों के दूर में ही गिर कर टूट जाने के कारण उनका वेग किनारे पर आते-आते कमज़ोर पड़ जाता था। गहरे पानी में भी एक सामान्य तालाब जैसा फील हो रहा था। हमें यहाँ उतना मज़ा नहीं आया जितना पहले "गोल्डन बीच" (हमारे होटल के नजदीक वाला) पर आया था। लेकिन महिलाओं को यही पसंद आया जिसका उन्होंने खूब आनंद लिया। हम सभी माँ, वीणा, रूपा और सभी बच्चों ने तक़रीबन 2-घंटे तक समुद्र स्नान का मज़ा लिया। खूब खेले-कूदे। सी-बीच की रेत पर लेटकर स्निग्ध धुप का आनंद लेते समय जिम्मी और सन्नी और गुनगुन ने लड्डू को, कमल को और मुझे बालू से (सर्फ सर छोड़कर) पूरा ढक दिया। तभी वीणा ने मेरे मुँह में कुछ चने दाल दिए जिन्हें मैं चबाने लगा। ये देखकर माँ हंसने लगी। मेरे ऊपर इतना बालू पड़ा हुआ था कि जब उठाना चाहा तो विशेष शक्ति लगानी पड़ी। बालू से निकलकर मैं फिर पानी में कूद गया और खूब डुबकियाँ लगाईं। साफ़ नीले पानी में नहाने का मजा आ गया। तभी मुझे याद आया कि मेरे शॉर्ट्स की जेब में खर्च के रुपये थे ! हाय बाप !! तीसरा धक्क !!! मैंने चेक किया, पैसे सलामत थे क्योंकि जेब का बटन बंद था। फिर सभी मुझे कोसने लगे। मैं खेद से सिर हिलाते पानी से लिथड़े पैसे वीणा को दिए, जिन्हें वो खोल कर धुप में सुखाने लगी। लगता था जैसे वो पैसों की दूकान लगाए बैठी हो! मन में आया कि पूछूं :" बाई ! ये पाँच सौ वाले का कितना दाम है!?" पर वो और भड़क जाती इसलिए चुपचाप फिर समुद्र के कूद गया।

स्नान से लौटकर हम झटपट तैयार हुए और चेरू ड्राईवर के साथ गाड़ी में कोणार्क के लिए रवाना हो गये। कोणार्क में हमने एक गाइड (नाम : प्रताप) ठीक किया जिसके सहायता से हजारों लोगों की लम्बी लाइन के बावजूद हमें आसानी से प्रवेश टिकट मिल गया। गाइड की कमेंट्री के साथ हमने पूरे मोन्यूमेंट को अच्छी तरह से देखा। खूब तस्वीरें लीं गईं। हैण्डीकैम से विडियो शूट किया। वहां भी शंख हमें मुनासिब दाम पर नहीं मिला। तब कमल ने बताया कि पिछली शाम को सी-बीच पर वीणा ने एक शंख पसंद करके दाम पटा भी लिया था लेकिन वो और कम कीमत देना चाहती थी तो दूकानदार ने देने से इनकार कर दिया था। तब चेरू ने कहा कि पुरी में मंदिर के सामने के बाज़ार में हमें मुनासिब दाम पर इससे भी बढ़िया शंख मिल जायेगा।

हम पुरी वापस आ गए। और मंदिर के सामने खूब भटकने के बाद एक  जगह "सौदा" पट गया, और मुझे मेरा शंख मिल गया।

इसके बाद हम वापस अपने होटल के पास "गोल्डन सी-बीच" के मेले में चले गए जहाँ बच्चों के साथ मैं रोलर-कोस्टर, जिसे हम अपनी जुबान में "रमढुलुवा" कहते हैं, पर चढ़ा। ऊंचाई से सी-बीच का मनभावन नज़ारा देखकर दिल झूम गया। अफ़सोस कि मेरे हाथ में उस वक़्त कैमेरा नहीं था। झूले का मज़ा मुझे मेरे बचपन की याद करा गया।

वहीं बीच पर किनारे लगी कुर्सियों पर बैठकर कुछ खाते-पीते हम समुद्र को और उसकी गरजती लहरों को देखकर आनंदित होते रहे।

फिर होटल वापस।

गुड नाईट।
जय जगन्नाथ!
_श्रीकांत .
..........................................................................जारी

श्री जगन्नाथ पुरी जी की यात्रा -तीसरा दिन

23-12-2012 रविवार ; जगन्नाथ पुरी 

...आज की मेरी शुरुआत हुई बीच पर उदीयमान सूर्य के दर्शन और वाक से। मैं, कमल और लड्डू बीच पर गये, बाकी कोई उठाये न उठा।

बीच पर का भोर का नज़ारा और उसका अलौकिक वातावरण मेरे लिए अवर्णनीय है, मैं स्वयं को इसके काबिल नहीं पाता कि इसके सम्बन्ध में कुछ कसीदे पढूं या लिख सकूँ। बस यही कह सकता हूँ : अदभुत ! विहंगम ! भब्य ! विशाल ! आदि ! अगाध ! अबाध ! अनंत ! प्रलयंकारी ! जीवदायिनी ! शांत ! एक कविता ! एक गाथा ! एक पूरा महाकाव्य ! और सम्पूर्ण जीवन का सार ! समुद्र, महासमुद्र ...दुस्तर, दुर्गम, अपार ..........!!

हम बीच पर खूब दूर तक अपने हाथ में अपने जूते थामे नंगे पाँव सुबह की नर्म रेत पर घूमते-टहलते भोर की ताज़ी हवा में सांस लेते-छोड़ते काफी दूर तक चले गये। दूर समुद्र के गहरे पानी में तैरते मछुवारों और मलाहों के मेहनत-मशक्कत को निहारते हमें नई अनुभूति का आनंद मिल रहा था। अपने जाल, जिसे मछुवारों और मलाहों ने रात की मेहनत से डाला था अब उसे वो कई जने आपस में मिलकर उसे खींच रहे थे। यूँ समेटी गई जाल में कई तरह के समुद्री जलीय जीव-जंतु, मछलियाँ, केंकड़े, झींगे, सीप, शंख, मूंगे, मोती मिले जिसे हम देख कर हैरान भी हुए और हर्ष भी हुआ। मैंने एक गंभीर शब्द करने वाला कंटीला शंख खरीदा। फिर वहीँ बीच पर चाय का लुत्फ़ उठाया। लौटने पर मैंने डुग्गु के सामने बैठ कर जोर से शंख बजाया, मारे डर के डुग्गु रोने-चीखने लगा।

आज हमने चिलिका झील की सैर को निकल पड़े। हमारा ड्राईवर "चेरू" बड़ा ही दक्ष ड्राईवर था, और पुरी का चप्पा-चप्पा जानता था। उसने हमें रास्ते में पड़ने वाले कई और दर्शनीय स्थलों, मंदिरों को दिखाया। इस दरम्यान रास्ते  चेरू ड्राईवर हमें एक मंदिर में ले गया, जिसके दर्शन के बाद जब हम चिलिका जाने के लिए जैसे ही गाडी में बैठे वीणा की तबियत अचानक बिगड़ गई। आधे घंटे हम परेशान रहे। वीणा जब संभली तो उसे याद भी नहीं था कि उसके साथ क्या बीती थी ! यहाँ तक कि उसे सुबह मुझसे हुई अनेक और बातें भी याद नहीं थी!! ............!!!

हम चिलिका पहुंचे। खाने-पीने का सामन ख़रीदा। बोट की टिकट कटाई और एक बोट पर सवार होकर हमने पूरे 5-घंटे झील में बोटिंग करते गुजारा। एक जगह, काफी इंतज़ार के बाद हमें पानी में हलचल होती दिखी, डोल्फिने पानी के नीचे से ऊपर नहीं आ रहीं थी। आज उनका मिजाज़ बहार आने का नहीं था, फिर भी पानी के नीचे से डाइव मरते एक डोल्फिन की दुम दिखी और हम हर्ष से यूँ चिल्लाये जैसे वो हमारी गोद में आ बैठी हो। काफी देर हो चुकी थी, सबको भूख भी सता रही थी। आते वक़्त रास्ते में हमने चेरू के बतलाये एक रेस्टुरेंट में पहले ही खाने का आर्डर दिया हुआ था। खाना हमें तैयार मिला। भोजन के बाद हम वापस पुरी लौट आये और सी-बीच पर लगे मेले में घूमने लगे। मेरा एक बढ़िया वाला, खूब ज़ोरदार आवाज़ करने वाला, भारी, चिकना असली समुद्री शंख लेने का बहुत मन था, इसे सभी शुरू से जानते थे, सो सबने वहाँ लगे बाज़ार में शंख ढूंढना शुरू किया, जब कोई पसंद आता तो उसकी कीमत सुन कर मन उतर जाता था, क्योंकि मोल-मोलाई बाद भी जो रकम तय होती वो भी हमसे चुकाया न जा सकता था। यूँ ही बीच पर ही कुछ खाया। किसी का खाना खाने का मन नहीं था। अत: हम होटल वापस आ गए। और बिस्तर के हवाले हो गये।

गुड नाईट,
जय जगन्नाथ!
_श्रीकांत .
...................................................................................................जारी 

दिल्ली गैंग-रेप की शिकार बच्ची का सिंगापूर के हस्पताल में निधन

अभी-अभी (सुबह 10:33 बजे) ये दुखद समाचार मेरे मोबाइल पे मिला कि दिल्ली गैंग-रेप की शिकार बच्ची का सिंगापूर के हस्पताल में निधन हो गया !! ...........!! टीवी और इन्टरनेट पर यह दुखद समाचार प्रसारित हो रहीं है।
भ्रष्टाचार ! आतंक ! हत्या !! बालात्कार !!! से त्रस्त मैं तुम्हारी भारत माँ का ध्वज ! तुम्हारी आन-बान और शान सहित तुम्हारी वीरता का प्रतीक ! तुम्हारा तिरंगा ! शर्म और तुम्हारी निश्कर्मन्यता की कालिख से आज मैला हो चूका हूँ। मुझे मेरा हक और इन्साफ चाहिए! मुझे मेरा दामन साफ़ करके दो!

आज मुझे कोई ख़ुशी प्रसन्न नहीं कर पाएगी।
बहुत ही अफ़सोस, दुःख, निराशा-हताशा मिलकर क्रोध के रूप में मेरे प्राण क्षीण कर रहे हैं। इस विवशता और अपनी कमजोरी पर मुझे अत्यंत खेद है।

श्रीकांत  .


श्री जगन्नाथ पुरी जी की यात्रा - दूसरा दिन

22-12-12 शनिवार ; जगन्नाथ पुरी :

आज सुबह हम सकुशल 'पुरी' पहुँच गये। स्टेशन पर मोटर गाडी हमें हमारे होटल ले जाने के लिए उपलब्ध थी। हम जैसे ही चेक इन किये बच्चों, ख़ास कर जिम्मी, ने सबसे पहले सभी बात छोड़ कर सी-बीच जाने की जिद्द पकड़ ली। मैं भी उन्हीं के सुर-में-सुर मिलाकर बातें करने लगा। अन्ततः सी-बीच पर जाने का फैसला सर्वसम्मति से पास हुआ, सभी ने सी-बीच, समुद्र स्नान के मुनासिब कपडे पहने/बदले, मैंने डुग्गु को कंधे पर बिठाया और सी-बीच के लिए निकल पड़े। हम सभी पैदल ही सी-बीच पहुँच गये। वहाँ पहुँचते ही मैं नन्हा बच्चा बन गया।

सी-बीच पर मेला जैसा दृश्य था, अपार भीड़ थी, हर्षित-उल्लसित जन-समूह के अभूतपूर्व मनमोहक दृश्य से हमारी सारी थकान मिट गई। भीड़ और पानी में किलोल करते हज़ारों लोगों की मौजूदगी के बावजूद सी-बीच खाली-खाली लगता था।

मुझे नेत्र दोष है। नेत्र विकार मुझे बचपन से है जिसके कारण मैं हर वक़्त चश्मे का मोहताज़ हूँ। मुझे 2-प्रकार के चश्मे पहनने पड़ते है। एक फोटोक्रोमैटिक ड्राइविंग इत्यादि के लिए, दूसरा बाइफ़ोकल पढने-लिखने के लिए। बीच पर मैं फोटोक्रोमैटिक चश्मे को पहने गया, जिसे मैं हमेशा पहनता हूँ, जिसकी मुझे आदत पड़ गई है। महिलाओं ने रेत पर चादर बिछाई, एक रंगीन छतरी वाले से बड़ा छाता लेकर रेत में खड़ाकर उसकी छाँव में सभी अपने कपडे बदलने लगे। मैंने अपना T-शर्ट और जूते महिलाओं के पास रखा और जिम्मी, सन्नी, लड्डू और गुनगुन के पीछे किलकारियां मरता भागा। मैं उन्हें लगातार हिदायतें दे कर कंट्रोल में रह कर स्नान करने और खेलने-कूदने को कह रहा था। गुनगुन पानी में जाने से डर रही थी और गीले रेत पर कूद-फांद रही थी। तभी माँ आ गई और सभी बच्चों के सिर को निवछ-निवछ कर जय गंगा माइया कहकर समुद्र में सिक्के अर्पण करने लगी। मैं भी धार्मिक भाव से "जलनिधि" की स्तुति करने लगा, और मंत्रोच्चार कर नतमस्तक हो गया। तभी माँ ने मेरे सिर को निवछकर सिक्के समुद्र में उछालना चाहा, पर मैंने देखा कि वो सिक्कों को ज्यादा दूर नहीं फेंक पा रही थी सो, मैंने माँ के हाथ से सिक्के लेकर जयजयकार का उदघोष करते हुए जोर से सिक्कों को दूर तक समुद्र के अर्पण कर दिया। उसके बाद फिर मेरी उधम शुरू हो गई, बच्चों के साथ मैंने जमकर डुबकियाँ लगाईं। अचानक मुझे कुछ गडबडी का अहसास हुआ! मुझे हमारा शेड, माँ, वीणा, रूपा, डुग्गु नज़र नहीं आ रहे थे। मुझे सबकुछ धुंधला-धुंधला दिख रहा था!! ...हाय बाप ! ...मेरा चश्मा !! ...मेरा चश्मा !!! बड़ी-बड़ी लहरों से उलझते-उठते-गिरते-पटकाते मैं नीचे पानी  अपने दोनों हाथों की उँगलियों से रेत को बुरी तरह खंसोटने लगा, तब तक मेरी गुहार बच्चों ने भी सुन ली थी, वे भी मेरा चश्मा ढूँढने लगे, किनारे से माँ, वीणा भी आ गईं और मुझे डांटने लगीं। हमने खूब ढूंढा पर अफ़सोस मेरा चश्मा समुद्र के अर्पण हो चूका था। जलनिधि ने मुझसे मेरा चश्मा चीन लिया (पहनेंगे क्या?)_ ! ये थी हमारी पहली "धक्क"!! इसी बीच एक बड़ी लहर की मार लड्डू से झेला न गया और वो बुरी तरह त्योराकर गिरा और पानी में डूबने-उतराने लगा। हमने उसे संभाला। हमने उसका हाल पूछा तो पाया कि बच्चे के घुटने बुरी तरह ऐंठ गए थे और उसे गहरी पीड़ा हो रही थी, वो ठंढ और भय के कारण थरथर काँप रहा था। हम उसे किनारे अपने शेड के पास ले गए, कमल ने उसके घुटने की मालिश की, उसे पैर झटकने में दर्द हो रहा था और उससे चला नहीं जा रहा था। ये थी हमारी दूसरी "धक्क!!" हमने धुप में उसे बिठाया और उसके घुटने के मुआयने से जाना कि किसी किस्म का फ्रैक्चर नहीं था। नसों में खिंचाव आ गया था। धीरे-धीरे उसकी हालत सुधरने लगी। तभी गुनगुन की नज़र एक ऊँट पर पड़ी। सजा-धजा ऊँट गुनगुन को बहुत सुन्दर लगा, वो उसकी सवारी के लिए मचलने लगी। जिम्मी-सन्नी समुद्र में मगन थे इसलिए हमने लड्डू को गुनगुन के साथ ऊँट पर चढ़ाया। ऊँट वाले ने सीढ़ी लगाकर बच्चों को चढ़ने में मदद की। ये देख मुझे भी ताव आ गया और सीढ़ी की सहायता से ऊँट पर जा बैठा। मुझे चढ़ते देख वीणा ने कहा :" अरे, आप कहाँ चढ़ रहे हैं! ऊँटवा इतना भारी बोझा सहने सकेगा का !?" सभी हंसने लगे। ऊँट जैसी आगे चला उसकी डगमग से गुनगुन चिल्लाने लगी, फिर मेरे पुचकारने पर, लड्डू के कहने पर वो शांत हुई और ऊँट की सवारी का भरपूर आनंद लेने लगी। ऊँट की सवारी के बाद हम सभी और बारी-बारी सभी महिलाओं ने समुद्र स्नान का खूब आनंद उठाया।

वीणा, सन्नी, लड्डू और गुनगुन का यह पहला अनुभाव था "समुद्र दर्शन, और स्नान का!" वीणा ने काफी डरते-डरते, कुछ समुद्र के विकराल स्वभाव को देखकर, कुछ अपने "4-चार ऑपरेशन; सर्ज़री" झेल चुके ज़ख़्मी बाएं हाथ की वजह से, इनके बावजूद उसकी प्रसन्नता से हम भी प्रसन्न थे, हमने खूब मस्ती की। गुनगुन रेत से पहाड़, इत्यादि बनाती और लहरें उन्हें तोड़कर अपने साथ बहा ले जातीं। अब लड्डू भी समुद्र स्नान को एन्जॉय करेने लगा। नए ख़रीदे डिजिटल कैमेरे से खूब तस्वीरें खींची गईं। कमल ने जिम्मी से अपना खुद का फोटो खीचने को कहा और 1979 की अपनी चिपरिचित मुद्रा में कमर पर हाथ रखकर सिर्फ चड्ढी में खड़ा हो गया। इस तस्वीर को जब हमने देखा तो खूब हँसे, 1979 का नन्हा "गबुदन", अभी एक दुधारू गाय की तरह दिख रहा था।

अब रूपा भी कमल के साथ पानी में आ गई। डुग्गु को वीणा ने संभाला। रूपा पहले डरते-डरते, फिर खुश हो कर समुद्र स्नान का आनंद लेने लाफि। फिर माँ भी आ गई, पर लहरों के थपेड़ों के आगे उसकी पेश नहीं चल रही थी और हमारे करीब नहीं आ पा रही थी। हमने माँ को संभाल कर अपने नहाने वाले सुरक्षित स्थान तक ले आये। उसे स्वतंत्र छोड़ कर हम खेलने लगे। तभी एक प्रोफेशनल फोटोग्राफर हमसे फोटो की रिक्वेस्ट करने लगा। तब हमने वीणा को भी फिर पानी में बुला लिया, लड्डू डुग्गु के साथ रहा। इस दरम्यान माँ कई बार गिरी-उठी, जैसे ही फोटोग्राफर ने रेडी बोलता, लहरों के जोरदार थपेड़े हमें बिखेर देते थे, एक बड़ी लहर के जोरदार धक्के से माया 30-फुट दूर किनारे तक बहती चली गई, माँ को यूँ बहते किनारे की ओर जाते देख सभी खूब हँसे, माँ भी हंसने लगी। हँसते हुए उठकर हम फिर जमा होते और फोटोग्राफर हमसे पोज़ बनाने को कहता। वीणा इससे थोड़ी अनसा गई। फिर भी कुछ तस्वीरें खिंच गईं। फिर माँ, वीणा और रूपा शेड में चली गईं।

खारे पानी से मुँह का स्वाद बिगड़ गया था, सो हमने सी-बीच पर बिकते खाद्य-पदार्थों में से कुछ नमकीन और कुछ रसगुल्ले और दूसरी मिठाइयाँ खाईं। फिर बदन सुखा कर रेत झाड़कर कपडे पहन कर हम होटल लौटे जहाँ मैंने गर्म पानी से फिर स्नान किया। खाना खाए। सभी इतने थक चुके थे कि बिस्तर में ही पनाह सूझी। सभी गहरी नींद में सो गए।

शाम में धुले हुए स्वच्छ वस्त्र पहन कर हम सभी श्रीजगन्नाथजी के मंदिर, पूजा और दर्शन के लिए गए। हमारे ड्राईवर ने एक पण्डे को बुलवाया और हमें उसके हवाले कर दिया। पण्डा श्री जगन्नाथ प्रतिहारी जी उर्फ़ हाड़ू पण्डा जी ने हमें सबकुछ समझाया कि कहाँ क्या करना है और कहाँ क्या नहीं करना है। पार्किंग एरिया से हम पैदल ही भगवान के दर्शनों को चल दिए। वहाँ सभी ने जूते-चाप्पल जमा कर टोकन लिया। एक नल के पास जाकर हाथ-पैर धोए, सर पर जल छिडका और हाड़ू पंडा जी के निर्देशानुसार उनके पीछे-पीछे चले। पण्डा जी ने हमसे चढ़ावे की बात की, दक्षिणा की रीत समझाई तो घर का कर्ता होने के कारण मुझे पण्डा जी रजिस्ट्रेशन ऑफिस में ले गए जहां 501/-रुपये से ले कार एक (मेरे लिए) अविश्वसनीय राशि के चढ़ावे और उसकी रीत समझाई। मैंने अपनी ताकत-हिम्मत और औकात के अनुसार एक राशि पर अपनी सहमती दी तो रजिस्ट्रेशन ऑफिस के कर्मचारी और श्री हाड़ू पण्डा जी ने मुझसे तर्क-कुतर्क, वाद-विवाद और समझौवल-मानौवल करने लगे। उनके आगे मेरी पेश न चल सकी, आखिरकार एक उन्हीं के निर्दिष्ट राशि पर कि इससे मुझे, मेरे समस्त परिवार को, मेरे पुरखों को क्या-क्या मिलेगा, मैंने अपनी हामी भरी। तब_! बकायदे मेरे पूरे परिवार के सदस्यों का स्वर्गीय पूज्यवर बाबूजी के नाम के साथ सभी का नाम रजिस्टर हुआ। और हमें दर्शन की परमिट मिल गई। मंदिर में जहां भगवान् स्वयं बहन सुभद्राजी और भईया बलभद्रजी के साथ विराजमान हैं, जब हम वहां पहुंचे तो पाया भगवान् और उनके भक्तों के बीच एक लम्बा फासला है और मुख्य द्वार पर बॉक्सर और बाउंसर जैसे मुस्टंडे पण्डों के वेष में तैनात हैं, कुछ उम्रदराज़ पण्डे द्वार पर फर्श पर ही पसरे हुए हैं, और भगवान इनके बंदी और कैदी बने हुए है। पंडों और दर्शनार्थियों में बकायदे झगडा-झन्झट हो रहा है, पण्डे बेरहमी से दर्शनार्थियों को धकिया रहे थे। हमने हाड़ू पन्दा जी के समझाए मुताबिक प्रवेश करना चाहा तो नीचे बैठे एक वृद्ध पण्डे ने बेरहमी से मुझे धकेल दिया। तभी हाड़ू पण्डा जी ने कुछ संकेत दिया, हमें कहा गया यहीं से दर्शन कर लो, सो बारी-बारी हमने की। फिर हम वहां से निकले तो मुझे मेरे भगवान् के मनोवांछित दर्शन संयोगवश बड़ी सुलभता से हो गई! वो थे वट-वृक्ष के पत्ते पर विराजमान श्रीकृष्ण !! मैंने आज्ञा लेकर भगवान् के चरण पकड़ लिए। मन भारी हो गया। फिर सभी से उनके दर्शन किये। फिर हमें माँ लक्ष्मी के मंदिर में ले गए, जहाँ का नज़ारा ऐसा था की "टिकट" देखकर प्रवेश की आज्ञा मिलती थी। द्वार को घेरे खड़े पण्डों ने एक बड़ा सा परात रखा था, जिसमे बिना "बड़े नोट" डाले बगैर प्रवेश वर्जित था, सभी निराश होकर वापस होने लगे तभी मैंने मन-ही-मन दृढ निश्चय लेकर परात में एक सौ रुपये का नोट डाला, तुरंत मुझे दाखिला मिल गया। मैं माँ लक्ष्मी के भब्य विग्रह के आगे भाव-विह्वल खड़ा होकर स्तुति करने लगा। वहां एक 22/24 वर्षीय युवक पण्डा बना बैठा था उसने बिना मेरे कहे, बिना मुझसे पूछे मेरे से कुछ कर्मकांड कराने लगा। फिर बारी आई मोल-भाव की! तुरंत हमारे हाड़ू पण्डा जी प्रकट हुए और युवक को संकेत किया। युवक एक ख़ास रकम का खूंटा गाड़ कर जिद्द करने लगा, मैंने उनकी बड़ी मिन्नतें की। कोई सुनवाई नहीं। आखिरकार मैंने जब अपनी जेब झाड दी तो मेरे पास सिर्फ एक 50/ रूपए का नोट भर बचा था!! वहां से निकला तो सभी मुझपर टूट पड़े, :"क्या ज़रुरत थी अन्दर जा कर पैसे चमकाने की!!??" मैं उन्हें कैसे समझाता की "माँ" अनमोल है। मैं संतुष्ट था। कोई शिकायत नहीं।

हाड़ू पण्डा जी ने हमारे चढ़ावे की, मेरे आग्रह पर, 2 पैकिंग बनवा लाये थे। और एक मिटटी की हांड़ी में "महाप्रसाद" लेते लाये थे जो शुद्ध घी में पकी खिचड़ी थी। हमने प्रसाद पाया। भगवान् को पुनः नमस्कार किया, हाड़ू पण्डा जी की "फीस", मेरे कहने पर, कमल ने चुकाई। फिर हम वापस लौट चले। मन बहलाने के लिए हम सी-बीच पर आ गए। वहां के मेले जैसे माहौल में हमारा दिल फिर प्रसन्न हो गया। घूम-फिरकर हम वापस होटल लौट आये। रात्रि भोजन (शाकाहारी) होटल में ही हुआ। यूँ हमारा आज का दिन बीता।

गुड-नाईट!
जय जगन्नाथ!  
_श्रीकांत .



श्री जगन्नाथ पुरी जी की यात्रा - पहला दिन

श्री जगन्नाथ पुरी जी की यात्रा 21,दिसंबर,2012 से ... 26,12,12 तक :-

21-12-2012 पहला दिन,  हटिया (राँची) स्टेशन  :
इस समय हमारी ट्रेन 'हटिया-पूरी, तपस्विनी एक्सप्रेस एक अनजान हाल्ट पर खड़ी है, समय सायं 08:44 ...

               यात्रा की तैयारी कल दिनभर और देर रात तक करने के बाद __ आज 21,12,12 को सुबह 5 बजे ही मैं जाग चूका था। माँ के तरफ से आती आहटों की आवाज़ से लग रहा था कि घर को झाड़ू से बुहारने लगी थी। हमारे कमरे में माँ ने प्रवेश किया :"...वीणा! जाअगा ! बिहान हो गइल।" वीणा :"हाँ माँ ! मैं नींद में होने का बहाना करते यूँ ही बडबडाया :"अर्रे ! क्या हुआ? अँधेरे में कहाँ जा रही हो, देखो ठीक से जाना, बत्ती जला दूं या साथ चलूँ, गिरना मत।" वीणा :"चुप रहिये, बकर-बकर मत करिए, अभी आप सुतले रहिये चुपचाप।" ...और फिर राँची प्रस्थान की तैयारी होने लगी। मैंने निश्चय किया था कि शिट-शेव-शावर राँची में ही करूँगा। सिर्फ ब्रश किया और कपडे पहन कर सभी सामानों को चौकस करने लगा कि सबकुछ सोचे-विचारे योजना और बच्चों के शौक और फरमाइशों के मुताबिक सबकुछ ठीक था या नहीं। फिर सभी तैयारी हो जाने के बाद माँ ने धीरू (मेरे मौसेरा भाई) को आवाज़ दी :"धीरू ........", धीरू :"हं हं, जागल बनी, एकदम रेडी।" चूंकि राँची में भी काम था अत: हमने ज्यादा देर नहीं की। धीरू के तैयार होकर गाड़ी द्वार पर लाने तक मैं स्व. पूज्यवर बाबूजी की मूर्ती के सामने बैठकर स्तुति-प्रार्थना करने लगा। तब तक सभी सामन गाड़ी में रखा जा चुका था। मैंने मलुवा और उसके बच्चों को दुलार किया, फिर हमने घर को चेक करके लॉक किया, धीरू ने ड्राइविंग संभाली, तभी मैं गद्दी चला गया, और मोहन चाचा से मिलकर शीघ्र लौटकर गाड़ी में बैठा और पेन-ड्राइव लेकर ऑडियो सिस्टम को अपने पसंदीदा ट्रैक पर सेट कर दिया। धीरू ने गाड़ी स्टार्ट की और श्री गौरी-गणेश-महेश की जय, भईया बलभद्र जी, बहिनी सुभद्रा जी, श्री-जगन्नाथ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र जी की जय बोलकर हम निकल पड़े। गाडी में जो पहला गाना बजा वो मनोज कुमार के एल्बम से "_ मेरा रंग दे बसंती चोला" से शुरू हुआ। मधुर संगीत का आनंद लेते हम राँची फ्लैट पर पँहुच गये। वहाँ हमने अपनी तैयारी रिफ़्रेश की। मैंने शेव किया, शिट कहीं सटक गया था, फिर शावर की जगह लोटा-बाल्टी से ही हर-हर गंगे बोल कर स्नान किया। नाश्ते के बाद हम मार्किट निकलने ही वाले थे कि जिम्मी अपनी चप्पल को मरम्मत कराने मोची के पास चला गया। उसके जाते ही जब मैं जूता पहन रहा था कि पाया कि उसका सोल (हील के पास से), बुरी तरह उखड कर लटका हुआ था! "...हं ...हं ...हं, कल मलुवा को मारने के लिए दौडाए थे और मैं गिरते-गिरते बचा था, ज़रूर उसी वक़्त जूते का सोल उखड़ गया होगा। अब तो समस्या हो गई। जिम्मी जा चूका था, अचानक लौट आया। बोला मोची कहीं नहीं है, शायद आज आया ही नहीं। तब धीरू ने एक झोले में सभी टूटे जूते-चप्पलों को लेकर गया और आधे घंटे में मरम्मत करा कर वापस आ गया। फिर जिम्मी, धीरू और मैं शोपिंग के लिए बाज़ार चले गए।हमारे पास कोई ढंग का कैमेरा नहीं था, अत: रूपा की इच्छा थी कि एक अच्छी क्वालिटी का डिजिटल कैमेरा हमारे साथ होना चाहिए। जिम्मी ने अपने स्किल्स से एक बढ़िया कैमेरा खरीदवा दिया, जो सबको खूब पसंद आया। सिवाय वीणा के। उसकी नज़र में ये फिजूलखर्च था। जिम्मी ने अपने लिए और अपने छोटे भाइयों के लिए शोर्ट पैन्ट्स खरीद्वाये। तबतक घडी डेढ़ - पौने दो बजाने लगी थी और रह-रह कर मोबाईल बजने लगा, कभी वीणा, तो कभी कमल। हम शीघ्रता से घर पहुँचे। फिर सभी सामान गाडी में लाद गया, जिससे पूरी गाड़ी भर गई। जैसे-तैसे एडजस्ट होकर हम निकल पड़े। इस बार मैंने ड्राइव की। हम हटिया स्टेशन सवा तीन बजे पहुँच गए। 04:05 में गाड़ी खुलने वाली थी। गाड़ी प्लेटफोर्म नंबर-1 पे खड़ी थी। कमल ने और मैंने सबको निर्देश दिया और सभी ने मिल-बाँट कर सभी सामान उठाया प्लेटफोर्म की तरफ बढे। माँ ने गुनगुन को डांट-डपट कर कंट्रोल में रखा। मेरे आगे जिम्मी, सन्नी, लड्डू, रूपा जिसकी गोद में डुग्गु था, चले। मेरे पीछे माँ, वीणा, कमल और धीरू थे। कमल सबको बार-बार बोल रहा था कि हमारी बर्थ बोगी नंबर S-8 में है। S-8 तक सामान के साथ लंबा वाक करना पड़ा, जिसके कारण कभी कोई आगे हो जाता था तो कभी कोई पीछे रह जाता था, फिर भीड़ में गर्दन उचका कर उन्हें देखकर संतोष से S-8 की तरफ चले। पहुँचने पर सबसे पहले जिम्मी,सन्नी, लड्डू और गुनगुन S-8 में प्रवेश किये। उनके पीछे रूपा थी जिसे मैंने कहा :"रूपा ! यही S-8 है, चढ़ो-चढ़ो!" रूपा ने कहा कि वो बोगी के अगले दरवाजे से प्रवेश करेगी, क्योंकि उधर से हमारी बर्थ नजदीक थी, वो डुग्गु को गोद में लिए हुए बोगी में प्रवेश कर गई, तबतक वीणा ठीक मेरे पीछे थी। मैंने अपने हाथ के सभी सामान बोगी पर चढ़ाया फिर खुद चढ़ा, मुझे पूरा भान था कि वीणा ठीक मेरे पीछे है और मुझे फौलो कर रही है, वो मेरे पीछे आ जायेगी। फिर उसके पीछे कमल, माँ और धीरू तो थे ही। मैंने अपना सामान फिर उठाया और अपने नंबर वाली बर्थ के पास पहुंचकर देखने लगा कि सभी जन आ चुके हैं या नहीं। तभी माँ ने कहा :"अर्रे! बीना केने गईली, आह ददा छोड़ देला स का उनका !?" अचानक सभी हैरान-परेशान वीणा को ढूँढने लगे। वीणा बोगी में कहीं नहीं थी !! हम सभी मर्द बोगी से बाहर निकल कर प्लेटफोर्म पर पागलों की तरह वीणा को ढूँढने लगे। मैं और कमल आगे बढे, काफी दूर इंजन के पास से कमल ने हाथ हिलाकर मुझे इशारा किया कि वो वीणा के साथ आ रहा है। "हाय बाप ! वीणा इंजन के पास तक चली गई थी !"वो जब आ कर हमसे मिली तो हम आपस में शोर-शराबा करने लगे। वीणा का चेहरा फक्क पड़ा हुआ था। जब बोगी में उसे माँ और रूपा के पास लेकर पहुंचे तो वहां नया शोर-शराबा हुआ। ...फिर शांत। सबकुछ एडजस्ट और सभी कोई सैटलडाउन हो चुके थे। मैं और धीरू कुछ सॉफ्ट ड्रिंक्स लेने चले गए। तभी गाड़ी  के हूटर ने आवाज़ दी और हम सभी गाड़ी में अपनी सीट पर आ बैठे। धीरू ने भावभीने होकर सबको हैप्पी जर्नी कहा और बड़ों को प्रणाम कर बोगी से नीचे उतर कर खिड़की के पास आकर बच्चों और डुग्गु को दुलार किया, तभी गाडी सरकने लगी। धीरू ने हाथ हिलाते हमें विदा किया। गाडी खुल चुकी थी। मैंने मन-ही-मन इश्वर को याद किया और "रक्षा करो, करते रहना" की गुहार लगाईं। यात्रा शुरू हो शुकी थी। हम श्री जगन्नाथ पुरी जी की यात्रा पर रवाना हो चुके है। तभी एक नंबर सिक्स (हिजड़ा) आता दिखा। मैंने सबको सावधान किया। नंबर सिक्स (हिजड़ा) हमारे पास आया। उसने शेव की हुई थी और लिपस्टिक, काजल, बिंदी वगैरह धारण कर साड़ी पहने हुए था। उसके बांये हाथ की सभी उँगलियों में 20-10 के नोट लगे हुए थे जिन्हें अपनी अदाओं के साथ दिखलाकर हमसे पैसे मांगने लगा और दुआएं देने लगा। मैंने उसे एक 10 का नोट थमाया। उसने अपने तरीके से मुझे और मेरे आस-पास बैठे सभी जन को दुआएं दीं और ऊपर वाले बर्थ पर बैठे जिम्मी,सन्नी, लड्डू और गुनगुन से पैसे मांगने लगा तो वीणा ने उससे कहा की ये सभी हमारे ही बच्चे है, सो जो दिया वो सबकी तरफ से है। नंबर सिक्स (हिजड़ा) ने वीणा के मुंह के सामने अपनी बहुचर्चित ढंग से हाथ से ताल ठोक कर कहा :"आय हाय ! ये कहाँ से आई रे बाबा इ मीना कुमारी!" हमारी बेसाख्ता हंसी छूट पड़ी। फिर वो, नंबर सिक्स (हिजड़ा) लहराते बल खाते लचकते-मचकते आगे चला गया। पुरे रास्ते हम वीणा को मीना कुमारी बोलकर चिढाते रहे।

                    खाते-पीते, हँसते-गाते, मौज मानते,खेलते-खिलाते हमारा सफ़र शुरू हो चूका था। अभी हमारी गाडी राउरकेला से आगे झारसुगड़ा स्टेशन से खुली है। अभी जब मैं लिख रहा हूँ, समय है रात्रि 09:40PM.

शुभ रात्रि।
जय जगन्नाथ।
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