13,जनवरी-13 को मनोज भईया अपने फोन के मुताबिक ठीक साढ़े दस बजे गद्दी पहुँच गए। प्रणाम-पाती हुआ। बैठे! मित्रों, सहकर्मियों से बातें करने लगे। मुझे फुर्सत में होता देखकर बोले -'आप दो मिनट के लिए घर चले जाइये।' उनकी बात का मंतव्य समझ कर मैंने सहकर्मी-मित्रों से 'बस तुरंत आते हैं' बोल कर घर आया। भाभी ने मनोज भईया के हाथों गरमा-गरम नाश्ता भेजा था।
17,जनवरी-13 को वीणा (मेरी धर्मपत्नी) ने मुझसे कहा कि मैं मनोज भईया वाला टिफिन उनके घर जाकर दे आउं। इसी बहाने मैंने सोचा कि चलो उधर ही डॉक्टर से मिलता आऊंगा। कफ-खाँसी से परेशानी बढ़ गयी थी। मैं अपनी मोटरसाइकल से, मनोज भईया वाला टिफिन, जिसमे वीणा ने गरम-गरम वेज-कटलेट, और तिल-ग़ुड से बनी "लाई" भरकर दिया था, लेकर निकल गया।
सभी कामों से निपट कर दवा खरीद कर मैं घर लौट रहा था। मोटरसाइकल काफी तेज़ मैं कभी नहीं चलाता। पर रेंगता भी नहीं। दुपहिया या वैन, मैं जब भी ड्राइव करता हूँ, सिर्फ ड्राइव ही करता हूँ। पूरी तरह सचेत। चौकस। अगल-बगल बे-वजह मेरा ध्यान कभी नहीं जाता। फिर भी छोटे शहरों के गलत फैशन और चलन (ऐब) से मैं भी ग्रसित हूँ। छोटे-से फासले हो या एक-दो किलोमीटर की दूरी, हेलमेट पहनने में लोगों की हेठी जो होती है। सड़क की दुरावस्था की कहानी सनातन धर्म जितनी पुरानी है। हिचकोलों को झेलते नियमित गति से मैं घर आ रहा था। दशकर्म-घाट के पास SBI मोड़ (बहुचर्चित नाम : 'भट्ठी ढलान') के पास जैसे ही मैं पँहुचा, ..... मुझे एक पुकार सुनाई दी :
"प्रणाम भईया ....!!!"
हो सकता है वो पुकार किसी और के लिए हो। यूँ कोई भी किसी को भी पुकार सकता है। किसी ने मेरा नाम तो नहीं पुकारा था। ऐसी सोच के हवाले आम जीवन में हम कई बार दो-चार होते ही रहते है। फिर भी मुझे लगा हो-न-हो कोई मेरा ही वाकिफकार है,....जानी पहचानी आवाज़,...अभिवादन का वो ढंग,...वो अंदाजेबयां,...वो आत्मीयता...! लगा, जैसे मुझे ही पुकारा गया हो। मुझसे ज़ब्त न हो सका। और मैंने आवाज़ की ओर पलटकर देखा। यही मेरी सबसे बड़ी भूल हो गई,....आवाज़ देने वाले को पहचानने में मुझे दिक्कत हुई,...भीड़ में किसी जानी-पहचानी सूरत की खोज में गाडी तलमलाई जिसे सँभालने में मुझसे डैड-ब्रेक लग गया,...मोटरसाइकल की हैडल मुड़ गई,...उसके पहिये खुरदरी सड़क पर डगमगाते हुए फिसले,...बैलेंस न संभल सकने के कारण मोटरसाइकल उलट गई और मुझे साथ घसीटते फिसलते हुए इलेक्ट्रोनिक-कौमियुनिकेशनस की एक दूकान के पास लगे मास्ट लाईट के सख्त स्टील के खम्भे से जा टकराई,...गिरते ही मुझे कई तरह की चोटें लगीं,...बायाँ हाथ कलाई के पास बुरी तरह छिला और ऐंठकर टूट गया,...बायाँ घुटना बुरी तरह छिल गया,... मोटी जीन्स के छिल जाने से खून बाहर टपकने लगा,... दाहिने पैर के बुरी तरह ऐंठ जाने के कारण एंडी की हड्डी टूट गई,...दायाँ घुटना टूट गया,...सिर खम्भे से टकरा कर झनझनाया,....फिर खोपड़ी चटखनेकी आवाज़, ......दर्द से मेरी रूदन और चीख,...मुँह पर भल-भल कर बहता खून,...किसी के हंसने की आवाज़,...किसी का व्यंग्यपूर्ण कथन-"ओद्दे! गीरलऊ बेट्टा! ही ही ही।",....फिर कोलाहल की आवाज़,... दूर से आती पुकार की आवाज़ ....'प्रणाम भईया!', ....फिर सब कुछ सुन्न,...आवाजें मद्धम होती दूर जाने लगीं,...मुझमे खुद की चेतना से नाता टूटता लगा,... सभी दर्दों-चोटों की पीड़ा का अहसास ख़त्म,...तेज़ रौशनी,...फिर काला अन्धेरा, ...अन्धेरा......और शांति। इतना सबकुछ होने में सिर्फ 5-सेकेण्ड लगे।
फिर?
"का होलई-का होलई!? '...के हई - के हई!? '...अईस स्साला! '...ऊंह! '...अरे बाप!" _बस सिर्फ आवाजें-ही आवाजें! किसी ने मेरे शरीर को छूना भी मुनासिब न समझा। खून-आलूदा मेरे छिन्न-भिन्न शरीर और ध्वस्त मोटरसाइकल, सबके लिए एक कौतुहल का विषय बन गया। ज़िन्दगी में किसी ने मुझे कभी भी कोई अहमियत नहीं दी, आज मेरी दुर्दशा भी लोगों के लिए एक "विषय" मात्र ही था, अहमियत तो दूर की बात है। किसी ने मुझे पहचाना भी नहीं। फिर भी किसी ने पहचाना। क्या पता शायद उसीने जिसने "प्रणाम भईया" की पुकार लगाईं थी! इस बुरी खबर को मेरे घर पहुँचने में आधा घंटा लग गया। जबकि घर अगले, मस्जिद मोड़ से आगे लोहरदगा सदर थाना के सामने ही है।
घर में हाहाकार मच गया।
इस बीच दुर्घटना स्थल पर कुछ भले लोगों ने कहीं से एक गाडी की व्यवस्था करके मुझे हस्पताल पहुंचाने का इंतज़ाम किया। घर के लोगों को पता लगा मुझे हस्पताल ले जाया गया है। जब रोते-कलपते, दहाड़ें मारते, छाती पीटते माँ और वीणा हस्पताल पहुँचीं तो उन्हें ये दर्दनाक सूचना मिली की हस्पताल लाते समय गाडी में रास्ते में ही मेरी मृत्यु हो गई थी।
'.............................!'
अब यहाँ किसी का क्या दोष!? जो हुआ वो मेरी नीयति थी। मुझे कोई गिला नहीं।
_श्री .
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................जब मेरी तन्द्रा टूटी तो मैंने 'पुकार' को इग्नोर किया, घर पहुंचा। दवा खाई। और अपनी लिखाई-पढ़ाई में मगन हो गया। अचानक सड़क पर एक भारी गाडी के इंजन की घर्र-घर्र और उसके रपटते हुए टायरों की आवाज़ के साथ एक महीन लेकिन भयानक चित्कार सुनाई दी। मैं दौड़ कर बाहर निकला। मेरी नज़र एक सफ़ेद बोलेरो पर पड़ी जो थोडा ठिठकी, फिर उसके ड्राईवर ने गाडी भगा दी। मैं उसका नंबर न देख सका। मैंने देखा मेरे घर के सामने बकरी का एक नन्हा-सा बच्चा खून की उल्टियां करते हुए छटपटा रहा है। फिर लोग जमा होने लगे। मुझे 'वही' कुटिल हंसी और व्यंग्य सुनाई देने लगी -"चलअ! आज के मीट के इंतज़ाम तो होलई ना!"
गाड़ी ने बकरी के बच्चे के सिर को, गले को बुरी तरह रौंधा था। उसकी एक पिछले पैर की खुर गायब थी, अगला एक पाँव गायब था। थोड़ी ही देर में बकरी के बच्चे ने अपने ही खून के तालाब में तड़पकर दम तोड़ दिया।
...फिर?
"का होलई-का होलई!? '...के हई - के हई!? '...अईस स्साला! '...ऊंह! '...अरे बाप!" _बस सिर्फ आवाजें-ही आवाजें!! तमाशाइयों की।
घर से कलावती दीदी निकली और लोगों को गरियाने लगी। पर किसी में कोई संवेदना नहीं थी। थोड़ी देर बाद कलावती दीदी ने उस बकरी के बच्चे के शव को हटाया और उसे मिटटी दी।
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अब आप बताइये किस प्रकार-से मेरी जान उस बकरी के बच्चे की जान से भिन्न है जिसके निर्दोष खून से अभी भी मेरे घर के सामने की ज़मीन रक्तरंजित है? वो निश्चय ही मेरी मौत थी जो गलती से उस बकरी के बच्चे को लील गई! आज मौत देखना मेरी नियति थी जो कि मैंने देखि!
*"सत्य कथा"*
_श्रीकांत .