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Tuesday, April 8, 2014

उतावला राजकुमार (एक कहानी):


उतावले राजकुमार की कहानी कुछ इस प्रकार है :
___दुर्ग देश के तोशल प्रान्त के एक नरेश जब अपनी पुत्री के विवाह के लिए चिंतित थे और योग्य राजकुमार की तलाश में थे तभी उन्हें एक ऐसे युवक के बारे में पता चला जो न केवल शौर्य और प्रज्ञा का धनि था, बल्कि जन-कल्याण के नवीन उपायों के सहारे निर्धन-वंचित लोगों की सेवा भी करता था ! उसके गुणों से प्रभावित होकर तोशल नरेश ने अपनी पुत्री का हाथ उसके हाथ में देने के साथ-साथ उसे अपना राजकुमार भी घोषित कर दिया और अपना उत्तराधिकारी भी ! नरेश के इस निर्णय के उपरांत उस युवक की कीर्ति दुर्ग देश के साथ-साथ पडोसी देशों में भी फ़ैल गई ! उसे एक योग्य, कुशल और सबकी भलाई करने में सक्षम शासक के रूप में देखा जाने लगा ! इस युवक का विशेष गुण था उसकी सत्यनिष्ठा ! उस काल-खण्ड के राजा-महाराजाओं और उनकी शासन पद्धति में इस गुण का विशेष अभाव नज़र आता था ! शासन का दायित्व संभालते ही उस युवक यानि राजकुमार ने प्रजा के कल्याण के लिए कई ऐसे कदम उठाये जो पहले के शासकों ने नहीं उठाये थे, यद्यपि उसके बारे में घोषणाएं करते रहते थे ! सत्यनिष्ठा के साथ प्रजा की सेवा के प्रति समर्पण भाव देखकर तोशल के साथ-साथ अन्य प्रान्तों के गणमान्य नागरिक, विद्वान, व्यापारी, सन्देश वाहक, और टीकाकार इस राजकुमार के सहायक-सहभागी के रूप में कार्य करने के लिए स्वेच्छा से आगे आए !
___तोशल में आनंद की लहर थी ! प्रजा एक उत्कृष्ट शासन की स्थापना का स्वप्न पूरा होते देख रही थी ! अन्य प्रान्तों के शासक उसके प्रति ईर्ष्या से भर उठे ! उन्हें यह भय सताने लगा कि अगर इस राजकुमार की कीर्ति पताका इसी तरह फहराती रही तो वह समस्त दुर्ग देश में लोकप्रिय हो सकता है ! वे उसे अपने लिए बड़ा खतरा मानने लगे ! दुर्ग देश वासी भी उसे उसे भावी शासक के रूप में देखने लगे ! तभी दुर्ग देश के राजा ने भी अपनी पुत्री के स्वयंवर की घोषणा कर दी ! घोषणा में कहा गया था कि राजसी कन्या का वरण करने के लिए आगे आने वालों को युद्ध-कौशल में निपुण होने के साथ-साथ सामान्य नर-नारियों का आशीर्वाद भी प्राप्त होना चाहिए ! यह वह दौर था जब राजाओं के पास एक से अधिक रानियाँ होना गौरव की बात मानी जाती थी ! उक्त घोषणा होते ही उस राजकुमार ने यह मिथ्या आरोप लगाकर तोशल देश की सत्ता का परित्याग कर दिया कि विधान बनाने वाली परिषद् के अनेक सदस्य उसका सहयोग नहीं कर रहे थे ! तोशल के साथ-साथ दुर्ग देश के लोग हैरान रह गए ! यद्यपि राजकुमार ने यह नहीं प्रकट किया कि वह दुर्ग देश की राजकुमारी के स्वयंवर में भाग लेना चाहता है, लेकिन प्रजा को यह अच्छे से आभास हो गया कि वह इस स्वयंवर के माध्यम से दुर्ग देश का शासक बनने की लालसा से भर उठा है ! शीघ्र ही यह स्पष्ट भी हो गया ! उसने स्वयंवर में भाग लेने की तैयारी कर रहे और उसमें सफल हो सकने वाले राजाओं-महाराजाओं के विरोध में वक्तव्य देने शुरू कर दिए ! वह उन्हें नाकाम, लोभी और कदाचरण में लिप्त करार देने लगा !
___यद्यपि वह बात-बात पर स्वयं को सत्य के प्रति समर्पित बताता, लेकिन प्रतिद्वंद्वी राजाओं की निंदा करने के लिए मिथ्या आरोपों का सहारा लेने में संकोच भी नहीं करता ! एकबार वह गुर्जर प्रांत का भ्रमण करने गया ! इस प्रान्त के बारे में आम धारणा थी कि वह अन्य प्रान्तों की अपेक्षा धन-धान्य से भरपूर और सुखी है, लेकिन उसने प्रचारित किया कि वहाँ तो दुःख-दैन्य-दारिद्र्य का ही वास है ! उसने इस प्रान्त की खुशहाली का वर्णन करने वाले सन्देश वाहकों और टीकाकारों को गुर्जर प्रान्त के नरेश के हाथों की कठपुतली करार दिया ! उसने यह भी चेतावनी दी कि यदि वह दुर्ग देश का स्वामी बना तो इन सन्देश वाहकों और टीकाकारों को कारागार में डाल  देगा ! कुछ समय पहले तक वह इन्हीं को अपना मित्र और शुभचिंतक बताया करता था ! उसके आचार-व्यवहार में तेजी से परिवर्तन हो रहा था और वह परिलक्षित भी हो रहा था ! वह कभी स्वयं को याचक और दीन-हीन बताता और सभी के प्रति कटु वचनों का प्रयोग करता ! वह सत्य के प्रति निष्ठावान रहने की सौगंध खाता, लेकिन प्रायः अपने ही वचनों से मुकर जाता ! वह यह दावा करता कि उसका प्रत्येक कार्य प्रजा की अनुमति-अनुशंसा से ही होगा, लेकिन उसने तमाम निर्णय ऐसे लिए जिसमें प्रजा की सहमती तो दूर रही, उनकी किसी भी रूप में भागीदारी भी नहीं रही! वह और उसके दरबारी समय के साथ अपनी आलोचना के प्रति अनुदार होते चले गए ! जो भी उनकी आलोचना करता वे उसे प्रतिद्वंद्वी राजाओं अथवा धनिकों का दूत और भेदिया आदि कहकर आरोपित करते ! उनके इस व्यवहार से दुखी होकर उनके कई साथियों ने उनका साथ छोड़ दिया ! उनका मानना था कि राजकुमार इस मतिभ्रम से ग्रसित हो गया है कि समस्त दुर्ग देश बस सिर्फ उसे ही पुकार रहा है ! वह यह भी प्रकट करता कि वही एकमात्र उसका उद्धारक है ! वह यह भी प्रकट करता उसके अतिरिक्त अन्य सभी राजा-महाराजा और यहाँ तक कि शासन व्यवस्था से सम्बद्ध संस्थाएं धनिकों के हित में काम कर रहीं हैं !
___विचित्र यह था कि वह अपने सहयोगियों के लिए बड़े भिन्न विधान तय करता और विरोधियों के लिए भिन्न ! उसने अपने एक ऐसे मंत्री के बचाव के लिए बड़ी ही ढिठाई के साथ असत्य का सहारा लिया जिस पर पड़ोसी देश की नारियों से दुर्व्यवहार का आरोप था ! वह खुद को निष्कलंक और निष्कपट बताता, लेकिन तब खीज उठता जब उसकी त्रुटियों का उल्लेख किया जाता ! वह साधारण वेशधारी अपने सुरक्षा प्रहरियों के साथ रहता, लेकिन प्रकट यही करता कि उसे तो प्रहरियों की आवश्यकता ही नहीं है ! वह लोक स्वराज की अपनी संहिता के अनुरूप चलने का प्रचार करता, लेकिन अपने चंद दरबारियों के साथ मिलकर मनमाने निर्णय लेता ! इस उतावले राजकुमार की कहानी का अंत अभी नहीं बताया जा सकता, क्योंकि हम समझ गए हैं कि अभी इसका अंत अभी हुआ ही नहीं है!
(d.j.rajivsachan08042014@shrikanttiwari.blogspot.com)
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हाय रे, हवाईया के टूटल चप्पल आउ फटल मफलर!!
हम त लुटईनी बीच बजरिया, अब ना जीयब, राजा!
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ज़माने, धात तेरे की!
_श्री.
     

Saturday, February 22, 2014

दिलीप कुमार एवं सायरा बानु ~~एक दृष्टि (कॉपी)

सनद रहे कि श्रीकांत तिवारी यानि मेरा जन्म २-जनवरी-१९६६ को हुआ ताकि खुशियाँ सबके क़दम चूमें!! सबकी मुरादें पूरी हों!!

माँ तुझे सलाम!!

११ दिसंबर १९२२ को जन्मने वाले मोहम्मद यूसुफ खान एक फलों  के व्यापारी, "क़िस्सा ख़वानी बाज़ार, पेशावर" {आज का खैबर पख्तुंख्वा , पाकिस्तान है}लाला गुलाम सरवर की संतान हैं ; उन दिनों जिनके पेशावर और देओलाली (महाराष्ट्र, भारत) में फलों के अपने उद्यान थे! १९३० के उतरार्ध में यह परिवार बम्बई आ गया! यूसुफ खान की शिक्षा देओलाली के प्रतिष्ठित बामेस स्कूल में शुरू हुई थी। १९४० के क़रीब यूसुफ खान ने पुणे में अपनी एक कैंटीन खोली और सूखे मेवों की सप्लाई से अपना करियर शुरू किया। यहीं देविका रानी ने अपने पति हिमांशु राय के साथ यूसुफ खान को -" औंध-मिलिट्री कैंटोन्मेंट "-, पुणे में पहली दफा देखा, और उनके व्यक्तित्व से इतनी प्रसन्न और प्रभावित हुईं कि उन्हें अपनी एक फ़िल्म के लिए बतौर नायक कास्ट कर लिया! इस तरह यूसुफ खान आधुनिक बॉलीवुड के प्रारंभिक नायकों में से एक नामचीन व्यक्तिव बने! शशिधर मुखर्जी इस भारतीय फ़िल्मी दुनियाँ में दिलीप साहब के मेंटोर कि भूमिका निभाई; और इनके मार्गदर्शक और आदरणीय बन गए!! फिल्मों के हिंदी लेखक भगवति चरण वर्मा ने यूसुफ खान को उनका फ़िल्मी नामकरण " दिलीप कुमार " रखा ; जिनकी {यूसुफ की}यह भी प्रतिभा थी कि वे एक भाषाविद् भी निकले जिन्हें "हिन्दको" (पेशावर कि घरेलु भाषा); "उर्दू", "हिंदी", "अग्रेजी", एवं "पश्तो" पर पूर्ण अधिकार था! __और इस तरह १९४४ कि हिंदी फ़िल्म "ज्वर भाटा" से भारतीय भूमंडल के विश्वप्रसिद्ध महानायक -दिलीप कुमार- का आम जनों के हृदय में पदार्पण हुआ। १९५३ में ही अपने वैवाहिक जीवन और अपनी भवितव्य भार्या के विषय में पूछने पर एक बार दिलीप साहब ने इन शब्दों में अपने विचार प्रकट किये थे : "जीवन-संगिनी के तौर पर मुझे ऐसे ज़िंदादिल हमसफ़र की तलाश है, जो मुझे, मेरे परिवार, मेरे दोस्तों व इंसानियत के प्रति मेरी ड्यूटी के बीच न आये। मुझे अल्ट्रा-आधुनिक संगिनी नहीं चाहिए, जिसका यक़ीन स्वार्थी सोच व अप्रासंगिक और अप्रचलित पड़ चुकी भावनाओं में हो।" …जैसे युगों बीत गए हों, १९६० के पूर्वार्ध तक सायरा बानु नाम की कोई हस्ती उनकी ज़िन्दगी से बहुत दूर थी!!…

......२३ अगस्त १९४४ को जन्मने वाली सायरा बानु अपने ज़माने कीं मशहूर अदाकारा नसीम बानु एवं फ़िल्म प्रोड्यूसर मियाँ एहसान-उल-हक़ की पुत्री हैं। जिनका पूरा बचपन लगभग लंदन में व्यतीत हुआ! जहाँ से वे finishing school चलीं गईं ! [A finishing school (or charm school) is a school for young people, mostly women, that focuses on teaching social skills and cultural norms as a preparation for entry into adult society The name reflects that it follows on from ordinary school and is intended to complete the educational experience, with classes primarily on etiquette. It may consist of an intensive course, or a one-year programme. In Tsarist Russia it was known as the Institute for Noblewomen.] इनके माता-पिता के आपसी सम्बन्ध तल्ख़ थे! फिर भी दोनों ने मिलकर १९४० में "ताज़-महल पिक्चर्स" नाम से एक प्रोडक्शन कंपनी खोली! इसके बाद सायरा जी का जन्म हुआ!! फिर देश का बँटवारा हो गया; पिता पकिस्तान चले गए और माता हिंदुस्तान में रह गईं!! हालाँकि बाद में वे लन्दन चली गईं!! वहीँ लन्दन में सायरा जी और उनके भाई सुलतान की शिक्षा-दीक्षा शुरू हुई! १९५९ में सायरा जी लन्दन से भारत वापस आईं!! १९६० में अपने करियर का आगाज़ किया! १६-वर्षीय सायरा ने हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री में अपनी शुरुआत की, और १९६१ में उनकी पहली फ़िल्म "जंगली" शम्मी कपूर साब के साथ रिलीज़ हुई। सायरा जी स्वयं बतलातीं हैं कि उन्हें खुद में फिल्मों में अभिनय करने का कोई अनुभव-ज्ञान और प्रतिभा नहीं समझी थी, जिसे उन्होंने अपनी कठिन मेहनत और लगन से सीखा!! भारतीय नृत्य की वह हर विद्या सीखी जो एक भारतीय अभिनेत्री का वास्तविक आभूषण है। इससे उन्हें यह लाभ मिला कि उनका शुमार उस दौर की सबसे सफलतम और सर्वोच्च श्रेणी कि अभिनेत्रियों में हो गया! यहीं से सायरा जी की फ़िल्मी सफ़र ने असली रफ़्तार पकड़ी! भारतीय सिने-दर्शकों में यह एक चहेती अभिनेत्री के रूप में स्थापित हो गईं। १६-वर्ष की नादान किशोरी की पहली ही फ़िल्म "जंगली" ने ही उस समय समस्त भारतीय सिने-दर्शकों के दिल की धड़कन बढ़ा गई थी!! जो बाद में उन्हें एक शानदार पैडस्टल पर खड़ा होने में सबसे ज्यादा सहायक सिद्ध हुआ। मैंने इस फ़िल्म जंगली को पहली बार (२०१३ की गर्मियों में) जब देखा तब मुझे इनके बारे में कोई ज्ञान नहीं था ; मुझे इनके अभिनय में सादगी और नज़ाक़त ही दिखी; वैसी कोई बात नहीं जो यह संकेत देता हो कि इस लड़की को अभी ट्रेनिग जैसी क्लासेज की जरूरत है!! जो भी हो, सायरा जी ने भारतीय भाषाओं, हिंदी-उर्दू, की भी बाक़ायदा तालीम हासिल की। जो उनके संवाद सदायगी में काफी सहायक सिद्ध हुईं! मैंने नोट किया है कि अन्य अभिनेत्रियों के साथ सायरा जी का भी अपना एक ख़ास ब्लेंड था और वह था/है उनका नाक चढ़ा कर झुंझलाना और झुंझलाकर :"ऊं_हुँह! उफ्फ !!!" बोलना उनकी एक ख़ास नज़ाक़त की मिसाल है, जो बतलाता है कि _'हाँ, यही सायरा बानु हैं!' सायरा जी अपनी किशोरावस्था से ही दिलीप साब की फ़िल्में देखती-देखती उनको श्रद्धा से निहारने लगीं थीं ; जो बाद में प्रेमांकुर से होते हुए उनकी अपनी तरफ से "मुहब्बत" में तब्दील हो गई!! उसी फ़िल्म इंडस्ट्री का हिस्सा होने के बावज़ूद वे अबतक दिलीप साब के ना रू-ब-रू हो सकीं थीं, ना ही अबतक उन्हें किसी ने दिलीप साब की फिल्मों में उन्हें कास्ट किया। सायरा जी ने कई पार्टियाँ दीं जिनमें लगभग सभी आते, नहीं आते थे तो सिर्फ दिलीप साहब!! लगता है जैसे वक़्त कोई इम्तिहान ले रहा था!! सायरा जी की फ़िल्मी जोड़ी शम्मी कपूर, और धर्मेन्द्र तो कभी जॉय मुखर्जी से होते हुए हमारे जुबली कुमार यानि 'राजेंद्र कुमार' के साथ ज्यादा जमने लगी थी!! तरुणावस्था से ही जिसके वे सपने देखा करतीं थीं वह उसी (फ़िल्मी) संसार में होने के बाद भी क़रीब नहीं आये थे!! १९६१ से १९६६ तक सायरा जी ने भारतीय फ़िल्म जगत के कई दिग्गजों के साथ काम किया, देव आनंद (Pyar Mohabbat 1966); से लेकर धर्मेन्द्र और मनोज कुमार के साथ (Shaadi 1962); फिर विश्वजीत के साथ (April Fool 1964 ); जॉय मुखर्जी के साथ (Door Ki Awaaz 1964; Saaz aur awaaz 1966 ; Yeh Zindagi Kitni Haseen Hai 1966 ; Shagird 1967) महान राजकपूर साहब के साथ Diwana (1967) ; जुबली कुमार उर्फ़ राजेंद्र कुमार के साथ Ayee Milan Ki Bela (1964 यह फ़िल्म इकलौता उदाहरण है जिसमें धर्मेन्द्र खलनायक बन गए!) शम्मी कपूर साब के साथ तो Junglee (1961) से इनके फ़िल्मी कैरियर  की शुरुआत ही हुई थी, फिर Bluff Master (1963) __लेकिन दिलीप कुमार के साथ काम करने का उनका सपना अधूरा ही रहा, वे अब तक उनके आस-पास कहीं नहीं थे !!!!! उसकी वजह यह थी कि दिलीप कुमार उनके काम का हवाला देकर अपने अपोज़िट कास्ट नहीं करवाना चाहते थे!! जबकि सायरा जी दिलीप कुमार  की फ़िल्में देखतीं थीं, और उनकी दीवानी थीं!! वे दिलीप कुमार की इतनी बड़ी फैन थीं कि "मिसेज़ दिलीप कुमार" होना चाहतीं थीं! …लेकिन कुछ इन्हीं दूरियों की वजह से फिल्मकारों ने उस वक़्त के, दिलीप साहब के बाद के, सुपर-स्टार राजेन्द्र कुमार के साथ कास्ट करने लगे, जो अबतक कोई ज्यादा फ़िल्में नहीं थीं!! फिर भी इत्तफ़ाक़न दोनों की  ऑन-स्क्रीन जोड़ी पब्लिक को पसंद पड़ने लगी! उनकी सभी फ़िल्में हिट रहीं! गॉसिप लिखने वालों को 'मसाला' भी मिलने लगा! "इन्हीं लोगों ने"_राजेन्द्र कुमार और सायरा बानु के बीच रोमांस की गप्प उड़ा दी!! जो इनकी माताजी को ख़ास चिंतित करने लगीं जो एक समस्या-सी बन गई, जबकि न राजेन्द्र कुमार की तरफ से ऐसी कोई बात थी न सायरा जी की तरफ से!! फिर भी माताजी की चिंता ज़ायज़ थी!! वजह यह थी कि राजेन्द्र कुमार शादीशुदा ही नहीं बाल-बच्चेदार व्यक्ति थे!! माताजी (नसीम बानु) ने दिलीप कुमार के मेंटोर शशिधर मुखर्जी से मध्यस्थता की बात कर दिलीप कुमार से इन मामलों में मदद करने की गुहार की!! शशिधर की बात शुरूआती दौर में खारिज कर बाद में दिलीप कुमार ने मदद की हामी भरी!! मामला सायरा बानु के जन्मदिन तक पहुँचा!! २३-अगस्त-१९६६ को सायरा जी का जन्मदिन था!! दिलीप कुमार आमंत्रित थे; लेकिन उन्होंने पहले ही समारोह में शरीक़ न होने का खेद-पत्र भिजवा दिया!! सायरा जी खासी अपसेट थीं!! मामला और तूल तब पकड़ने लगा जब राजेन्द्र कुमार इसी समारोह में अपनी पत्नी के साथ आ पहुँचे!! मामले की गम्भीरता भांपकर नसीम बानु दिलीप साहब के घर गईं और "सिच्यूवेशन" सँभालने कि मिन्नतें करने लगीं!! अबकी बार दिलीप साहब "ना!!" _नहीं कह सके!! और सायरा जी के जन्मदिन पर आ गए!! (बोलो बजरंग बाली की _"जय!!")
इस समारोह के छह सप्ताह बाद हैरान करने वाली खबर आई कि दोनों -दिलीप कुमार और सायरा बानु- २-अक्टूबर-१९६६ को मंगनी करने जा रहे हैं!! सब हैरान थे कि सायरा जी के जन्मदिन के दो महीने बाद आखिर ऐसा क्या हुआ कि दिलीप कुमार मंगनी फिर निकाह को राजी हो गए?? बाद में पता चला कि जन्मदिन की रात दिलीप कुमार को सायरा जी को समझाने को कहा गया कि वे राजेन्द्र कुमार के साथ अपनी कथित लव-स्टोरी पर अपना स्टैंड क्लियर करें!! उनसे (राजेन्द्र कुमार से) संलिप्तता की बेवकूफी भरी हरकत नहीं करें!! सायरा '-फटाक-से-' मान गईं__, पर हैरत भरी शर्त के साथ, यही कि यदि दिलीप कुमार उनसे शादी करने को राजी हो जाएँ, तो वे राजेन्द्र कुमार का पीछा छोड़ देंगीं!! …और आखिरकार दिलीप कुमार को सायरा बानु की ज़िद्द के आगे झुकना पड़ा!! इस तरह उसी साल यानि १९६६ की ४-चार-नवम्बर को दोनों विवाह-बंधन में बंधकर एक हो गए!!

सुनील दत्त साहब के साथ Padosan 1968 ने सायरा जी को सुपर-स्टार बना दिया!
विवाह के बाद भी सायरा जी ने राजेन्द्र कुमार के साथ तो (Aman (1967; Jhuk Gaya Aasmaan (1968) फिल्मों में काम किया ही ; धर्मेन्द्र पा -जी के साथ भी (Aadmi Aur Insaan (1969; International Crook (1973; Jwar Bhata (1973; Saazish (1975; Chaitali (1975) काम किया, दिलीप कुमार भी उनके साथ परदे पर आ गए!! जो साबित करता है कि गपोड़ियों की गप्प कितना नुकसान करतीं हैं!! दिलीप साहब का दिल राजेन्द्र कुमार के प्रति कभी भी तल्ख़ न रहा, और न ही धर्मेन्द्र के!! दिलीप साहब खुद ही धर्मेन्द्र पर फ़िदा थे! उनके कथनानुसार उन्होंने धर्मेन्द्र जैसा हैंडसम व्यक्तित्व कभी नहीं देखा!! धर्मेन्द्र पा - जी के बेमिसाल व्यक्तित्व की तारीफ़ में उन्होंने अपने विचार इन शब्दों में बयान किये जब __In 1997, he( धरम पा - जी) received the Filmfare Lifetime Achievement Award.__While accepting the award from Dilip Kumar and his wife Saira Banu, Dharmendra became emotional and remarked that he had never won any Filmfare award in the Best Actor category despite having worked in so many successful films and nearly a hundred popular movies. He was glad that his contributions had finally been recognized Speaking on this occasion Dilip Kumar commented, "Whenever I get to meet with God Almighty I will set before Him my only complaint - why did You not make me as handsome as Dharmendra?" ईद में जब भी दिलीप साहब के यहाँ पकवान बनते हैं, दिलीप साहब खुद याद कर धर्मेन्द्र पा - जी के लिए उनकी पसंद की लज़ीज़ व्यंजन उन्हें भिजवाना नहीं भूलते! Hera Pheri (1976) में सायरा जी ने अमिताभ बच्चन यानि अमित जी यानि हमारे भाईया के साथ भी काम किया!
दिलीप कुमार और सायरा बानु ने जिन फिल्मों में साथ काम किया, वे हैं __Gopi (1970); Sagina (1974); Bairaag (1976); & Duniya (1984)
(बोलो राजा रामचंद्र कि _"जय!!")
https://www.facebook.com/shrikant.tiwari.355/posts/658134167579550?comment_id=5748056&offset=0&total_comments=1
_श्री .

दिलीप कुमार एवं सायरा बानु ~~एक दृष्टि

सनद रहे कि श्रीकांत तिवारी यानि मेरा जन्म २-जनवरी-१९६६ को हुआ ताकि खुशियाँ सबके क़दम चूमें!! सबकी मुरादें पूरी हों!! 
माँ तुझे सलाम!!
 




 ११ दिसंबर १९२२ को जन्मने वाले मोहम्मद यूसुफ खान एक फलों  के व्यापारी, "क़िस्सा ख़वानी बाज़ार, पेशावर" {आज का खैबर पख्तुंख्वा , पाकिस्तान है}लाला गुलाम सरवर की संतान हैं ; उन दिनों जिनके पेशावर और देओलाली (महाराष्ट्र, भारत) में फलों के अपने उद्यान थे! १९३० के उतरार्ध में यह परिवार बम्बई आ गया! यूसुफ खान की शिक्षा देओलाली के प्रतिष्ठित बामेस स्कूल में शुरू हुई थी। १९४० के क़रीब यूसुफ खान ने पुणे में अपनी एक कैंटीन खोली और सूखे मेवों की सप्लाई से अपना करियर शुरू किया। यहीं देविका रानी ने अपने पति हिमांशु राय के साथ यूसुफ खान को -" औंध-मिलिट्री कैंटोन्मेंट "-, पुणे में पहली दफा देखा, और उनके व्यक्तित्व से इतनी प्रसन्न और प्रभावित हुईं कि उन्हें अपनी एक फ़िल्म के लिए बतौर नायक कास्ट कर लिया! इस तरह यूसुफ खान आधुनिक बॉलीवुड के प्रारंभिक नायकों में से एक नामचीन व्यक्तिव बने! शशिधर मुखर्जी इस भारतीय फ़िल्मी दुनियाँ में दिलीप साहब के मेंटोर कि भूमिका निभाई; और इनके मार्गदर्शक और आदरणीय बन गए!! फिल्मों के हिंदी लेखक भगवति चरण वर्मा ने यूसुफ खान को उनका फ़िल्मी नामकरण " दिलीप कुमार " रखा ; जिनकी {यूसुफ की}यह भी प्रतिभा थी कि वे एक भाषाविद् भी निकले जिन्हें "हिन्दको" (पेशावर कि घरेलु भाषा); "उर्दू", "हिंदी", "अग्रेजी", एवं "पश्तो" पर पूर्ण अधिकार था! __और इस तरह १९४४ कि हिंदी फ़िल्म "ज्वर भाटा" से भारतीय भूमंडल के विश्वप्रसिद्ध महानायक -दिलीप कुमार- का आम जनों के हृदय में पदार्पण हुआ। १९५३ में ही अपने वैवाहिक जीवन और अपनी भवितव्य भार्या के विषय में पूछने पर एक बार दिलीप साहब ने इन शब्दों में अपने विचार प्रकट किये थे : "जीवन-संगिनी के तौर पर मुझे ऐसे ज़िंदादिल हमसफ़र कि तलाश है, जो मुझे, मेरे परिवार, मेरे दोस्तों व इंसानियत के प्रति मेरी ड्यूटी के बीच न आये। मुझे अल्ट्रा-आधुनिक संगिनी नहीं चाहिए, जिसका यक़ीन स्वार्थी सोच व अप्रासंगिक और अप्रचलित पड़ भावनाओं में हो।" …जैसे युगों बीत गए १९६० के पूर्वार्ध तक सायरा बानु नाम की कोई हस्ती उनकी ज़िन्दगी से बहुत दूर थी!!… 



२३ अगस्त १९४४ को जन्मने वाली सायरा बानु अपने ज़माने कीं मशहूर अदाकारा नसीम बानु एवं फ़िल्म प्रोड्यूसर मियाँ एहसान-उल-हक़ की पुत्री हैं। जिनका पूरा बचपन लगभग लंदन में व्यतीत हुआ! जहाँ से वे finishing school चलीं गईं ! [A finishing school (or charm school) is a school for young people, mostly women, that focuses on teaching social skills and cultural norms as a preparation for entry into adult society The name reflects that it follows on from ordinary school and is intended to complete the educational experience, with classes primarily on etiquette. It may consist of an intensive course, or a one-year programme. In Tsarist Russia it was known as the Institute for Noblewomen.] इनके माता-पिता के आपसी सम्बन्ध तल्ख़ थे! फिर भी दोनों ने मिलकर १९४० में "ताज़-महल पिक्चर्स" नाम से एक प्रोडक्शन कंपनी खोली! इसके बाद सायरा जी का जन्म हुआ!! फिर देश का बँटवारा हो गया; पिता पकिस्तान चले गए और माता हिंदुस्तान में रह गईं!! हालाँकि बाद में वे लन्दन चली गईं!! वहीँ लन्दन में सायरा जी और उनके भाई सुलतान कि शिक्षा-दीक्षा शुरू हुई! १९५९ में सायरा जी लन्दन से भारत वापस आईं!! १९६० में अपने करियर का आगाज़ किया! १६-वर्षीय सायरा ने हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री में अपनी शुरुआत की और १९६१ में उनकी पहली फ़िल्म "जंगली" शम्मी कपूर साब के साथ रिलीज़ हुई। सायरा जी स्वयं बतलातीं हैं कि उन्हें खुद में फिल्मों में अभिनय करने का कोई अनुभव-ज्ञान और प्रतिभा नहीं समझी थी, जिसे उन्होंने अपनी कठिन मेहनत और लगन से सीखा!! भारतीय नृत्य कि वह हर विद्या सीखी जो एक भारतीय अभिनेत्री का वास्तविक आभूषण है। इससे उन्हें यह लाभ मिला कि उनका शुमार उस दौर कि सबसे सफलतम और सर्वोच्च श्रेणी कि अभिनेत्रियों में हो गया! यहीं से सायरा जी की फ़िल्मी सफ़र ने असली रफ़्तार पकड़ी! भारतीय सिने-दर्शकों में यह एक चहेती अभिनेत्री के रूप में स्थापित हो गईं। १६-वर्ष की नादान किशोरी की पहली ही फ़िल्म "जंगली" ने ही उस समय समस्त भारतीय सिने-दर्शकों के दिल की धड़कन बढ़ा गई थी!! जो बाद में उन्हें एक शानदार पैडस्टल पर खड़ा होने में सबसे ज्यादा सहायक सिद्ध हुआ। मैंने इस फ़िल्म जंगली को पहली बार (२०१३ की गर्मियों में) जब देखा तब मुझे इनके बारे में कोई ज्ञान नहीं था ; मुझे इनके अभिनय में सादगी और नज़ाक़त ही दिखी; वैसी कोई बात नहीं जो यह संकेत देता हो कि इस लड़की को अभी ट्रेनिग जैसी क्लासेज कि जरूरत है!! जो भी हो, सायरा जी ने भारतीय भाषाओं, हिंदी-उर्दू, कि भी बाक़ायदा तालीम हासिल की। जो उनके संवाद सदायगी में काफी सहायक सिद्ध हुईं! मैंने नोट किया है कि अन्य अभिनेत्रियों के साथ सायरा जी का भी अपना एक ख़ास ब्लेंड था और वह था/है उनका नाक चढ़ा कर झुंझलाना और झुंझलाकर :"ऊं_हुँह! उफ्फ !!!" बोलना उनकी एक ख़ास नज़ाक़त की मिसाल है, जो बतलाता है कि _'हाँ, यही सायरा बानु हैं!' सायरा जी अपनी किशोरावस्था से ही दिलीप साब की फ़िल्में देखती-देखती उनको श्रद्धा से निहारने लगीं थीं ; जो बाद में प्रेमांकुर से होते हुए उनकी अपनी तरफ से "मुहब्बत" में तब्दील हो गई!! उसी फ़िल्म इंडस्ट्री का हिस्सा होने के बावज़ूद वे अबतक दिलीप साब के ना रू-ब-रू हो सकीं थीं, ना ही अबतक उन्हें किसी ने दिलीप साब कि फिल्मों में उन्हें कास्ट किया। सायरा जी ने कई पार्टियाँ दीं जिनमें लगभग सभी आते, नहीं आते थे तो सिर्फ दिलीप साहब!! लगता है जैसे वक़्त कोई इम्तिहान ले रहा था!! सायरा जी कि फ़िल्मी जोड़ी शम्मी कपूर, और धर्मेन्द्र तो कभी जॉय मुखर्जी से होते हुए हमारे जुबली कुमार यानि 'राजेंद्र कुमार' के साथ ज्यादा जमने लगी थी!! तरुणावस्था से ही जिसके वे सपने देखा करतीं थीं वह उसी (फ़िल्मी) संसार में होने के बाद भी क़रीब नहीं आये थे!! १९६१ से १९६६ तक सायरा जी ने भारतीय फ़िल्म जगत के कई दिग्गजों के साथ काम किया, देव आनंद (Pyar Mohabbat 1966); से लेकर धर्मेन्द्र और मनोज कुमार के साथ (Shaadi 1962); फिर विश्वजीत के साथ (April Fool 1964 ); जॉय मुखर्जी के साथ (Door Ki Awaaz 1964; Saaz aur awaaz 1966 ; Yeh Zindagi Kitni Haseen Hai 1966 ; Shagird 1967) महान राजकपूर साहब के साथ Diwana (1967) ; जुबली कुमार उर्फ़ राजेंद्र कुमार के साथ Ayee Milan Ki Bela (1964 यह फ़िल्म इकलौता उदाहरण है जिसमें धर्मेन्द्र खलनायक बन गए!) शम्मी कपूर साब के साथ तो Junglee (1961) से इनके फ़िल्मी कैरियर कि शुरुआत ही हुई थी, फिर Bluff Master (1963) __लेकिन दिलीप कुमार के साथ काम करने का उनका सपना अधूरा ही रहा, वे अब तक उनके आस-पास कहीं नहीं थे !!!!! उसकी वजह यह थी कि दिलीप कुमार उनके काम का हवाला देकर अपने अपोज़िट कास्ट नहीं करवाना चाहते थे!! जबकि सायरा जी दिलीप कुमार कि फ़िल्में देखतीं थीं, और उनकी दीवानी थीं!! वे दिलीप कुमार कि इतनी बड़ी फैन थीं कि मिसेज़ दिलीप कुमार होना चाहतीं थीं! …लेकिन कुछ इन्हीं दूरियों कि वजह से फिल्मकारों ने उस वक़्त के दिलीप साहब के बाद के सुपर-स्टार राजेन्द्र कुमार के साथ कास्ट करने लगे, जो अबतक कोई ज्यादा फ़िल्में नहीं थीं!! फिर भी इत्तफ़ाक़न दोनों कि ऑन-स्क्रीन जोड़ी पब्लिक को पसंद पड़ने लगी! उनकी सभी फ़िल्में हिट रहीं! गॉसिप लिखने वालों को 'मसाला' भी मिलने लगा! "इन्हीं लोगों ने"_राजेन्द्र कुमार और सायरा बानु के बीच रोमांस की गप्प उड़ा दी!! जो इनकी माताजी को ख़ास चिंतित करने लगीं जो एक समस्या-सी बन गई, जबकि न राजेन्द्र कुमार कि तरफ से ऐसी कोई बात थी न सायरा जी कि तरफ से!! फिर भी माताजी की चिंता ज़ायज़ थी!! वजह यह थी कि राजेन्द्र कुमार शादीशुदा ही नहीं बाल-बच्चेदार व्यक्ति थे!! माताजी (नसीम बानु) ने दिलीप कुमार के मेंटोर शशिधर मुखर्जी से मध्यस्थता की बात कर दिलीप कुमार से इन मामलों में मदद करने की गुहार की!! शशिधर की बात शुरूआती दौर में खारिज कर बाद में दिलीप कुमार ने मदद कि हामी भरी!! मामला सायरा बानु के जन्मदिन तक पहुँचा!! २३-अगस्त-१९६६ को सायरा जी का जन्मदिन था!! दिलीप कुमार आमंत्रित थे; लेकिन उन्होंने पहले ही समारोह में शरीक़ न होने का खेद-पत्र भिजवा दिया!! सायरा जी खासी अपसेट थीं!! मामला और टूल तब पकड़ने लगा जब राजेन्द्र कुमार इसी समारोह में अपनी पत्नी के साथ आ पहुँचे!! मामले कि गम्भीरता भांपकर नसीम बानु दिलीप साहब के घर गईं और "सिच्यूवेशन" सँभालने कि मिन्नतें करने लगीं!! अबकी बार दिलीप साहब "ना!!" _नहीं कह सके!!और सायरा जी के जन्मदिन पर आ गए!! (बोलो बजरंग बाली की _"जय!!")
इस समारोह के छह सप्ताह बाद हैरान करने वाली खबर आई कि दोनों -दिलीप कुमार और सायरा बानु- २-अक्टूबर-१९६६ को मंगनी करने जा रहे हैं!! सब हैरान थे कि सायरा जी के जन्मदिन के दो महीने बाद आखिर ऐसा क्या हुआ कि दिलीप कुमार मंगनी फिर निकाह को राजी हो गए?? बाद में पता चला कि जन्मदिन कि रात दिलीप कुमार को सायरा जी को समझाने को कहा गया कि वे राजेन्द्र कुमार के साथ अपनी कथित लव-स्टोरी पर अपना स्टैंड क्लियर करें!! उनसे (राजेन्द्र कुमार से) संलिप्तता की बेवकूफी भरी हरकत नहीं करें!! सायरा '-फटाक-से-' मान गईं__, पर हैरत भरी शर्त के साथ, यही कि यदि दिलीप कुमार उनसे शादी करने को राजी हो जाएँ, तो वे राजेन्द्र कुमार का पीछा छोड़ देंगीं!! …और आखिरकार दिलीप कुमार को सायरा बानु कि ज़िद्द के आगे झुकना पड़ा!! इस तरह उसी साल यानि १९६६ कि ४-चार-नवम्बर को दोनों विवाह-बंधन में बंधकर एक हो गए!!

विवाह के बाद भी सायरा जी ने राजेन्द्र कुमार के साथ तो (Aman (1967; Jhuk Gaya Aasmaan (1968) फिल्मों में काम किया ही ; धर्मेन्द्र पा -जी के साथ भी (Aadmi Aur Insaan (1969; International Crook (1973; Jwar Bhata (1973; Saazish (1975; Chaitali (1975) काम किया, दिलीप कुमार भी उनके साथ परदे पर आ गए!! जो साबित करता है कि गपोड़ियों की गप्प कितना नुक्सान करतीं हैं!! दिलीप साहब का दिल राजेन्द्र कुमार के प्रति कभी भी तल्ख़ न रहा, और न ही धर्मेन्द्र के!! दिलीप साहब खुद धर्मेन्द्र पर फ़िदा थे! उनके कथनानुसार उन्होंने धर्मेन्द्र जैसा हैंडसम व्यक्तित्व कभी नहीं देखा!! धर्मेन्द्र पा - जी के बेमिसाल व्यक्तित्व की  तारीफ़ में उन्होंने अपने विचार इन शब्दों में बयान किये जब __In 1997, he( धरम पा - जी) received the Filmfare Lifetime Achievement Award.__While accepting the award from Dilip Kumar and his wife Saira Banu, Dharmendra became emotional and remarked that he had never won any Filmfare award in the Best Actor category despite having worked in so many successful films and nearly a hundred popular movies. He was glad that his contributions had finally been recognized Speaking on this occasion Dilip Kumar commented, "Whenever I get to meet with God Almighty I will set before Him my only complaint - why did You not make me as handsome as Dharmendra?"ईद में जब भी दिलीप साहब के याहन पकवान बनते हैं दिलीप साहब खुद याद कर धर्मेन्द्र पा - जी के लिए उनकी पसंद कि लज़ीज़ व्यंजन उन्हें भिजवाना नहीं भूलते! Hera Pheri (1976) में सायरा जी ने अमिताभ बच्चन यानि अमित जी यानि भाईया के साथ भी काम किया!
दिलीप कुमार और सायरा बानु ने जिन फिल्मों में साथ काम किया, वे हैं __Gopi (1970); Sagina (1974); Bairaag (1976); & Duniya (1984)
(बोलो राजा रामचंद्र कि _"जय!!"
_श्री .

Monday, February 10, 2014

SANYASI 1975 hindi film:

यदि हिंदी फ़िल्में आपको अच्छी लगतीं हैं तो यह रोचक सचित्र-लेख आपही के लिए है!
SANYASI
सन्यासी
Sanyasi is a 1975 Hindi film directed by Sohanlal Kanwar, and starring Manoj Kumar and Hema Malini as leads
Directed by     Sohanlal Kanwar
Produced by     Sohanlal Kanwar
Starring     Manoj Kumar
Hema Malini
Premnath
Music by     Shankar Jaikishan
Release dates     1975
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धर्मान्धता और अन्धविश्वास की आड़ में : एक नंगी हकीक़त__
अंडरवर्ल्ड !!
गुनाह ! अपराध !! और पाप !!!_की दुनियाँ ! _कैसे अपना शिकार करती है? _कौन शिकारी हैं? ...और, कौन शिकार? _क्यों? _कब? _कैसे? का फिर-से (क्योंकि यह अक्ल तो लगातार बँटती और बाँटी जाती रही है; पर हमें कभी अक्ल से क्या मतलब? _"क्यों? ठीक है न, ठीक??")__उतर देने वाली -'यह फिल्म'- अपने उस दौर की फिल्म है, उस दशक की फिल्म है, जिसे हमारा हिंदी फिल्मोद्योग स्वयम मंज़ूर करता है, और हम भी यह मानते हैं कि वह दशक ; सन-७० का दशक, हिंदी फिल्मों और हिंदी फिल्म-दर्शकों के लिए स्वर्ण-युग रहा है! संयोग से, यही दौर हमारे; मेरे; बचपन का रहा है, जब स्क्रीन के हीरो को या तो हम "खुद"-का रूप या "बड़े भईया" ; या पडोसी मित्र, मान कर उनका आदर करते रहे हैं!! यह पारस्परिक-प्रेम-सम्बन्ध उसी वक़्त हमारे मस्तिष्क और खून में समां गया कि हिंदी फिल्म के हीरो`ज़ तो हमारे अपने हैं! और देखिये! आज वे हमारे अपनों से भी बढ़-चढ़ कर आदरणीय माननीय हैं, कि नहीं? यह फिल्म "सन्यासी" उसी वर्ष की फिल्म है, जब शोले, जय संतोषी माँ, दीवार, खेल खेल में, धर्मा... इत्यादि रिलीज़ हुईं थीं! इन बड़ी-बड़ी फिल्मों के बीच "सन्यासी" ने भी बड़ी मजबूती अपने झंडे गाड़े, फहराये, और जनता, हमसब झूम उठे ! इस फिल्म के किरदारों से कहानी में मुलाक़ात होती जायेगी जिनसे आप 'उस' दौर की मानसिकता अनुसार प्यार या नफरत करेंगे! 
......इस फिल्म में मनोज कुमार साहब और हेमा जी की नोंक-झोंक, तूँ-तूँ -मैं-मैं, छेड़-छाड़ का ऐसा चित्रण किया गया है और दोनों कलाकारों (खासकर मनोज साब ने) इतनी उम्दा एक्टिंग की है, कि जिन्हें ये भ्रम है कि मनोज कुमार कॉमेडी नहीं कर सकते, वे भी हँसे-मुस्काये बिना नहीं रह सकेंगे! मेरे आनंद के लिए यह सबसे बड़ी रोमांचक वजह _कि, इसमें हमारे आदरणीय, मखमली आवाज़ के जादूगर मुकेश साहब का 'रेयर' श्रेणी का चंचल, हास्यपूर्ण गायन, जो मनोज साहब की आत्मा सी मालूम पड़ती, _मेरे दिल में समां जाती है! जिसमे लता जी की कोकिल आवाज में हेमा जी का शानदार नृत्य मानो स्वयं मेनका हों ; रोमांच से भर देता है! मन्त्रमुग्ध कर देने वाले इसके गाने अभी भी बजाओ, तो बचपन की खुशबु को जिंदा पाओगे! इस फिल्म के चार प्रमुख गाने, शोले-दीवार-जय संतोषी माँ, _के बराबर या कहीं बढ़कर सुपरहिट हुए और कई सालों तक जाड़े की सरस्वती पूजा से लेकर नए जाड़े की दुर्गा पूजा के पंडालों में, और घरों में भी LP पे बजाये जाते रहे! ये यादगार गाने हमारी हिंदी फिल्मों की सुन्दर संग्रहों में से एक अनुपम, श्रवणीय एवं दर्शनीय विषय की वस्तु हैं! जो एक मस्त उमंग भरी मेरी जोशीली बचपन की धाकड़ यादगार है! जिसे मैं ना भूलूंगा! शंकर-जयकिशन जैसे महान संगीतकारों के उत्तम संगीत से सजी यह हिंदी फिल्म "सन्यासी" _बहुरंगी, बहुआयामी है! और मिलजुलकर देखने और मजे लेने लायक है! इस लेख की सचित्र कथा 56-सलाईड्स में संलग्न हैं! 
अंडरवर्ल्ड !!
गुनाह ! अपराध !! और पाप !!!_की दुनियाँ ! __इसके सामने इस वक़्त एक ऐसा परिवार है जिसकी कहानी चंद लफ़्ज़ों में ही बड़ी भावुक है! एक धनाढ्य परिवार का चिराग; दौलत की चकाचौंध{जरूरत से ज्यादा ऐयाशी!} में मारा जाता है, जिससे घबराकर उसके पिता ने -उसके बेटे-, यानि अपने पोते 'राम' की यूँ परवरिश की कि उसका मन बैरागी हो गया! वह सुन्दर सलोना नौजवान अपने गुरु, और गुरुदीक्षा और गुरु-आज्ञा के अधीन एक निर्मल मन वाला शांत, उदार हृदय युवक है, जो अपनी आध्यात्मिक साधना में ही लीन, अपना जीवन समर्पित कर चूका है! जबकि 'दादाजी' को अपने आगामी वंश की चिंता सताती है! वे राम की शादी करना चाहते हैं लेकिन राम इससे घबराया हुआ अपने प्रभु की शरण में प्रार्थना कर रहा है! इसने योग विद्या सीखी है, जिसके प्रभाव और उपयोग से यह अपनी सांस और दिल की धड़कन आधे घंटे से ज्यादा देर तक रोके रखने की क्षमता रखता है; जिसे ऐसी हालत में देखते _मृतक! ; मृत!; मर चूका हुआ!! _मुर्दा व्यक्ति सा विष्मयकरी विश्वास/अविश्वास हो! सत्यनिष्ठ, दृढ-निश्चयी, विद्वान, ज्ञानी, और निडर राम, जो तन मन धन ; मन वचन कर्म से पूरा सन्यासी है! _ये विवाह कर गृहस्थी बसाएगा??? कभी नहीं! यह खुद अकेले में मुँह बिसूरता है, जनता हँसती है! इसकी बरात निकलती है, कलपता हुआ यह घोड़ी पर बैठा युक्ति लगाकर बारात से घुड़सवारी करता कुलांचे भरता भाग जाता है,....और फिल्म के टाईटल्स और कास्टिंग्स, म्यूजिक के झमाकों के साथ शुरू हो जाते हैं! ....अब कहीं जाकर जनता अपनी सीटें खोजतीं, तंग करने वाली चमकती टोर्च की रौशनी में ‘उशर’ से बतियाती, शेष दर्शकों की दीद की बाधा बनती गालियों और कोसनें सहती 'हॉल' में प्रवेश कर रही है..., शोर और चिल्ल-पों मची हुई है; पब्लिक, पब्लिक को कुचलती हुई अपनी सीटों को कब्ज़ा रहे हैं..., कास्टिंग ख़त्म होते तक जनता शांत होती है, और खुसर-पुसर करती बगल वाले (उसी को गरियाते व्यक्ति से) पूछती है :"कितना पार हुआ?...का का हुआ?" सामने बैठे मेरी मुंडी को जबरन बाएं करते माईयवे पिछड़े दर्शक से उलझते, फिल्म आगे बढती है.....
......मनोज साहब धोती, कुर्ता और पवित्र अंगौछा धारण कर, हाथों में जप की माला लिए गंभीर, और शांतचित्त वाले सरल सहज और मजबूत इरादे वाले सन्यासी के रोल में १००% जमें हैं! जिनकी बाद में काया पलट 'उस दौर की' मजेदार एक्शन फिल्म बन गई! एक बात मेरे में यूँ हमेशा अहसास कराती रही है, कि मनोज साहब मार-धाड़ के दृश्य बहुत ही अल्प किन्तु रफ़्तार से निपटा देते हैं, ये कभी भी -ताकतवर शरीर वाले- हीरो बने ही नहीं! इनका एक्शन इनकी दृढ़ता, निडरता, सादगी और साफगोई और संवाद अदायगी में है! इनकी फिल्मों में शेष कलाकारों से जुदा इनके अपने एक्शन कम होते हैं, प्राण साब के ज्यादा!! और ये कभी डांस, नृत्य, नाच नहीं करते, बस और भी अन्य महारथियों की तरह अपनी एक ख़ास अदा के लिए भी बहुत चाहे, पसंद किये गए!  मनोज साब के अपने खुद के निर्देशित फिल्मों में उनकी फिल्म शूटिंग का अंदाज़ एक ख़ास ब्लेंड और 'डिमांडेड ब्रांड' की श्रेणी का रहा है, जिनके फिल्मों का गलैमर कभी हिन्दुस्तान के सर चढ़कर बोलता था!! जो हमारे "भारत भैया" हैं, जो अभी 'राम' के रूप में हमारे सामने हैं__
......राम के भाग जाने से दुखी उसके बीमार बुजुर्ग दादाजी यह वसीयत छोड़कर मर जाते हैं, कि राम के लौटते ही एक महीने के अन्दर उसका विवाह कर दिया जाय, _अन्यथा उनकी समस्त जायदाद दान में दे दी जाय!
......राम गंगा किनारे -गीता-भवन- में है! {ऋषिकेश} जहाँ उसके गुरुदेव 'शान्ति बाबा' संसार को गाकर उसे उसकी असलियत! कर्म! और कर्तव्य की दीक्षा दे रहे हैं, जिनमें शामिल कई बातों पर राम सहमत है, तो कभी असमंजस में....... 
......आखिरकार राम की माँ(सुलोचना/रेणुका देवी) उसे लेने आतीं हैं; जहाँ स्वयं गुरूजी और माँ राम को गृहस्थाश्रम के लिए प्रेरित करते हैं, लेकिन दृढ-संकल्पित राम किसी भी हालत में इसके लिए राजी नहीं होता! गुरूजी भी दबाव नहीं देते, लेकिन उनकी आँखें बतलातीं हैं, जो माँ को आश्वासन देतीं हैं कि शान्ति रक्खें, जो हुआ है वो होना था ; जो होना है, वह अटल है! राम अपनी माँ के साथ घर आकर समूचा कारोबार संभालता है, और अपने परिवार पर आश्रितों की उसी सद्भावना से मदद करता है जैसा कि उसके दादा जी ने की, एवं उसके खानदान की रीत रही है, लेकिन अपनी साधना-उपासना में भी अटल है! राम को पता चलता है कि उसके दादाजी के मार्फ़त, उनकी मदद से, उनके एक पुराने मुलाजिम की लड़की 'आरती(नजमा)' को उसकी पढाई और रहन-सहन के लिए माहवारी मदद दिए जाने का हुक्म है, -जिसे किसी ने नहीं देखा-, _राम निर्मल मन से इस व्यवस्था को भी जारी रखने की इज़ाज़त दे देता है! आरती के बारे में जानकार गुरूजी माँ को सलाह देते हैं कि वे आरती को अपने पास बुलवा लें, और उससे राम के मैत्री-संपर्क की इच्छा जताते हैं, ताकि राम का मन सांसारिक बातों की तरफ मुड़ सके! माँ का चेहरा खिल जाता है! वे आरती को आने को सूचना भेज देती हैं! राम को पता है कि माँ के भाई, उसके मामा, बचपन में सबको अचानक छोड़कर किसी तरह लन्दन चले गए थे; जिनकी सूचना उन्हें है, _पर जो कभी नहीं मिले हैं, __के लिए माँ अभी भी वापस आने की उम्मीद में हैं, जिनका एक राम के ही बराबर की उम्र का बेटा भी है! 
......यहीं इस रामायण के रावण का प्राकट्य होता है, जिसकी भाव-भंगिमा से सिनेमा हॉल के सभी दर्शक समझ जाते हैं कि यही इस फिल्म का खलनायक है, नहीं समझती है तो स्क्रीन में उसके साथ मैजूद जनता; _जो वस्तुतः हम ही हैं, साब! यह छल-प्रपंच-धोखा-ठगी-गद्दारी-तस्करी-लूट-डाका-बालात्कार-छलावा-ईर्ष्या-काम-क्रोध-लोभ-घमण्ड-ज़ुल्म-कहर और मौत का शक्तिशाली मूर्तिमान स्वरुप है जो अपनी दुष्टता और दुश्चरित्रता को साधू-योगी-संत-ऋषि के पाखण्डपूर्ण बहुरूप में छिपा छद्मवेषधारी पूज्यनीय स्वामी बना हुआ है! इसके चेलों की ज़मात है! जिसमें एक इसका अपना चेला है, शेष दो जने पार्टनर जैसे हैं, जो सभी लम्पट-लफंगई और धूर्तता की जीवंत मूरत हैं! सभी मिलकर एक डाका डालते हैं! जिसमें इनके ग्रुप की संत-सति-नारी रुपी अपनी (मजबूरी से) गुलाम-महिला(अरुणा ईरानी) द्वारा जश्न मनाते खाते पीते नाचते गाते बजाते हैं, और पुलिस की भारी सुरक्षा में उनकी आँखों के सामने दीदादीलेरी से उनका मुँह चिढाते, दान हेतु सोने से खुद को तौलाये सेठ का, सारा सोना ले उड़ते हैं!! लूट के बँटवारे के बाद, उम्रदराज गिरधारी(राज मेहरा) और जवान बनवारी(प्रेम चोपड़ा) ट्रेन में दो व्यक्ति, मालदार -पिता-पुत्र- से मिलते हैं, जो लन्दन से वापस इंडिया आये हैं, जिन्हें अपनी बहन रेणुका देवी से पहली बार मिलने जाना है! ‘ज़ाहिर तौर पर’, इस ट्रेन ट्रेन का एक्सीडेंट हो जाता है, लन्दन वाले -पिता-पुत्र- मारे जाते हैं; _घायल गिरधारी-बनवारी की बाछें खिल जाती हैं, वे खुद को मृत घोषित कर लन्दन वाले मामा जी और उनके बेटे राकेश बन जाते हैं! और जैसे राम की अयोध्या में कंस और दुर्योधन का पदार्पण हुआ हो ; वे पूरी बेशर्मी से मेहमान से घरवाले बनकर साथ ही चमचई कर मौज करते लम्बे दाँव का षड्यंत्र शुरू कर देते हैं, जिन्हें पता है कि राम से मिलने आरती आने वाली है! जिससे राम की शादी हुई नहीं कि स्कीम का बंटाधार...! जिसके सूत्रधार इनके "बड़े मालिक" हैं! जो दरअसल दुर्दांत डाकू मंगल सिंह हैं; जो अभी तंत्कालीन सुप्रीमो, -वही रावण- अंडरवर्ल्ड डॉन है! _जो शहर में धर्मांध अन्धविश्वासी हिन्दुओं में साक्षात भगवन शंकर का अवतार “-ईश्वर बाबा-“ है!_ _ _ "बम-बम, महादेव !!!" की गर्जना करता दुर्वाषा ऋषि सा क्रोधी महाभयंकर (महाप्रभु प्रेमनाथ जी)"ईश्वर बाबा" के बहुरूप में 'अवतरित' होता हैं; पाखण्ड से जादू-चमत्कार का जाल फैलाकर और सभी जन-साधारण का भगवान् बनकर उनसे अपनी पूजा करवाने लगता है! इसी षड्यंत्र में इनकी "प्यादी" -चम्पा-(हेमा जी) का प्रवेश होता है, जिसकी मदद से आरती दुष्टों द्वारा कैद कर ली जाती है! और चम्पा -'आरती'- बनकर रेणुका देवी घर में घुस कर अपना काम शुरू कर देती है, जिसकी ड्यूटी है, राम को स्लो poison देकर मार डालना वरना उसकी माँ (कामिनी कौशल) को मार दिया जायेगा! चम्पा सभ्रांत घर की अच्छी और गुणवान लड़की है, जिसे इन पाखंडियों से नफरत है, जिनके चंगुल में इसकी माँ क़ैद है, रोकर, हारकर इस दुष्कर्म में शामिल होने की हामी भरती है! लेकिन रेणुका देवी की नज़र में उसकी एक और ड्यूटी भी है, राम को अपनी ओर आकर्षित करना, उसे समझाना, विवाह के लिए राजी करना! _जो मानना पड़ेगा बॉस!!!!' क्या रोल किया है हेमा जी ने !! वाह!!!!! और इस दाँव में तीन सुपर डूपर हिट गाने अंजाम दिए गए, जिनपर हिंदी फिल्म और हम, _हक से; ख़ुशी से झूम सकते हैं!
१.सुन बाल-ब्रम्हचारी मैं हूँ कन्याकुमारी .......!'_-मुकेश साब, एवं लता जी! मनोज कुमार और हेमा मालिनी की रूहानी याद ... http://www.youtube.com/watch?v=faW0FwAVF0s
२.चल सन्यासी मंदिर में.........!'_मुकेश साब, एवं लता जी! मनोज कुमार और हेमा मालिनी की रूहानी याद ...http://www.youtube.com/watch?v=XPpPXwXzoFI
३.बाली उमरिया भजन करूँ कैसे..........!'_मुकेश साब, एवं लता जी! मनोज कुमार और हेमा मालिनी की रूहानी याद ...http://www.youtube.com/watch?v=WgdTu3iOHro
--------बज गई घंटी---------
राम तो नहीं, पर चम्पा राम के सामने श्रद्धा से उससे प्रेम करने लगती है! जिसे काफी धक्का लगता है जब राम अपना फैसला सुनाता है कि : माँ राकेश को गोद ले ले, उसकी शादी चम्पा से कर दे, यूँ खानदान का नाम भी कायम रहेगा और दादाजी की इच्छा भी पूरी हो जाएगी! राकेश बदसुलूकी से और चाल चलकर चम्पा को, जिसका अब कोई यूज़ नहीं,  -गेम- ले निकलने के लिए (यूज़ & थ्रो) असली आरती को रेणुका देवी के सामने लाकर उसे माँ द्वारा बेईज्ज़त करवाकर घर से निकलवा देता है! दुष्टों की चाल कामयाब रहती है! रेणुका देवी राकेश को गोद लेने वाली बात पर राज़ी हो जातीं हैं, और इससे कानूनी रूप से सिक्केबंद कर शत्रु अपना वार राम के खानदान और सम्पत्ति पर करते हैं और बाज़ी उनके हाथ लगती है! ऐन मौके पर भ्रम-धर्मान्धता-अंधविश्वास के मोहजाल में फँसी अपना सबकुछ गँवाने वाली रेणुका देवी को रोकने गुरूजी आ जाते हैं! _ _ _"बम-बम, महादेव!!!" गरजते ईश्वर बाबा का उत्तर आत्मिक मुस्कान युक्त शांत वाणी "जय श्रीकृष्ण!" से देते हैं! रेणुका देवी की आखें खोलने का भरसक प्रयत्न करते हैं, __जिसमें राम भी अपनी माँ की धर्मान्धता, और अपनी सादगी और शिष्टाचार वश असमर्थ हैं__, अन्धविश्वास की जीत होती है! अच्छाई-सच्चाई को शपथ के बंधन में बाँधकर परे हो लेने दिया जाता है! _पाप लगेगा, _पुरखों की आत्मा भूखों श्राप देंगी! _भस्म हो जाओगे! _सर्वनाश हो हजायेगा! _बेटा मर जाएगा! _धन-धर्म-मर्यादा धूल में मिल जायेगी! _जैसी वाणी से डरकर किसी साधू के चक्कर में कोई नहीं पड़ना चाहेगा, फिर भी जबकि यह २०१४ आ गया इस फिल्म के दर्शकों को अक्ल नहीं आई! अभी पिछले ही साल "ओह माय गॉड" बनी, अक्ल वज्रबुद्धि लट्ठ की तरह खड़ी/पड़ी हुई है!
.......अक्ल तब आई जब जन माल ईज्ज़त सब चला गया!
डॉन अपने असली रूप मंगल सिंह के ग्लैमरस आधुनिक रूप में प्रकट होता है! और सब अपने काबू में कर लेता है!
.......तब राम को गुरूजी की ही शरण लेनी पड़ी! गुरुजी ने राम को गीतानुसार कर्मयोग की आज्ञा दी! राम निडरता से दुष्टों का सामना करता है! अब चम्पा भी उसकी तरफ उसके साथ पाक-साफ़ दिल से दिलेरी से उसका साथ देती है! ईश्वर बाबा के पोल खोलनेवाली एक मंडली बनाकर राम उसके झूँठ के जाल को उजागर कर देता है!
......गाना नंबर ४. जो अभी भी सुनकर अच्छा लगता है :” कर्म किए जा फल की इच्छा मत कर ऐ इंसान, जैसा कर्म करेगा वैसा फल देगा भगवान्, ये है गीता का गया, ये है गीता का ज्ञान!”http://www.youtube.com/watch?v=MhqgjgD1k28
......दुष्ट रावण सीता को जबरन उठाना चाहता है,पर रास्ते में गुरूजी हैं, जो खुद जटायु तो नहीं हैं पर यहाँ रावन से भीषण द्वंद्वयुद्ध कर रामचरणों में वीरगति को प्राप्त होते हैं; जब खून से लथपथ राम भी अपने मरते गुरूजी की चरणों में गिर जाता है! ! डॉन मंगल सिंह के अड्डे में अकेले लड़ते राम को ज़ख़्मी कर के उसे मुर्दा जानकार गंगा में उसकी 'लाश' फेंक दी जाती है! योगविद्या से जीवित बचा राम गंगा तीरे एक मुसलमान को मिलता है जिसकी सिफत और दवा से राम स्वस्थ हो जाता है! अब उसे अपने शत्रुओं से सब वापस हासिल कर हमारा पैसा वसूल करवाना होता है, फलस्वरूप वह ZORO बनकर गोलियां चलाता काऊबॉय-सा रूप बनाकर मंगल सिंह पर टूट पड़ता है! आप तो जानते ही हैं कि हिंदी फिल्मों के इस सिच्युवेशन में दिमाग जेब में रख लेना चाहिए! __लेकिन मनोज कुमार को पता था कि श्रीकांत उन्हें कुछ उम्मीद से देख रहा है, अतः मेरी ख़ुशी और संतुष्टि के लिए वे दो-चार बार बड़ियाँ ढिशुम-ढिशुम कर दिखाए! उनके लास्ट PUNCH के ब्लो से मंगल सिंह मारा जाता है! कंस और दुर्योधन भारतीय फ़िल्मी पुलिस की गिरफ्त में होते हैं, जहाँ एक नामालूम से पुलिस कमिश्नर साहब यह बताते हैं कि यह रब कारनामें राम ने उनकी मदद से पुरे किये! पूरे परिवार कलाकार का सुखद मिलन होता है! धन-धर्म-सम्मान से सभी विभूषित होते हैं! फिल्म समाप्त होती है!
























































परदे पर भारतीय तिरंगा ध्वज फहरता है और राष्ट्रीय गान बजता है जिसके सम्मान में अभी सच्चे भारतीय दर्शक खड़े होकर राष्ट्रीय ध्वज के आगे राष्ट्रीय गान गाकर सिनेमा हॉल से बाहर आकर अपने-अपने घर चले जाते जाते हवा में विलीन हो गए________!!!???
अब कहाँ हैं ये दर्शक ?
कहाँ गया राष्ट्रीय गान ??
कहाँ गया भारत का तिरंगा???
तुम्हारे -अंडरवर्ल्ड- में ???????
http://www.rajivbajaj.net/wp-content/uploads/2013/08/indian-flag.jpegखड़े होकर इसके सम्मान में गाईये :
http://www.indiaonlinepages.com/gifs/national-anthem-india.jpg
अब मैं कह सकता हूँ :_
शुभम,
_श्री .