लोहरदगा 02,मई`2012 08:00 सायं
प्रदक्षिणा, और वीणा का दम-ख़म (stamina):
हमारे शहर में भगवन भोलेनाथ के मंदिर, स्वम्भू महादेव के नाम से विख्यात, छत्तरबागीचा में यज्ञ हो रहा है। हजारों लोगो की उपस्थिति, शुद्ध गूंजते मंत्रोच्चार, यज्ञशाला के श्रृंगार से मन को बड़ी शांति मिली. आज सुबह-सवेरे वीणा के जोर देने पर मैं अलसाए भाव से उसे यज्ञस्थल पर ले गया जहाँ वीणा ने भीड़ के बावजूद खुद पूजा की और भगवन भोलेशंकर के प्राचीन (ज़मीन की खुदाई में से मिले) शिवलिंग पर मेरे हाथों भी दूध से अभिषेक करवाया। खुद उसने यज्ञशाला की 51 (इक्यावन) बार प्रदक्षिणा की !!
वीणा ने पहले से ही मुझे कह रखा था कि वो स्वयंभू मंदिर जाएगी, क्योंकि वहां यज्ञ हो रहा है। सबरे हम वहां गए। पूजा के बाद हमने यज्ञ कराने वाले बाबाजी के दर्शन किये। बाबाजी के लिए फूस की एक कुटिया बनाई गई थी। बाबाजी अपने कुटिया में विराजमान थे। तेजमूरती माथे पर चन्दन औए गले में मनकों कि माला धारण किये हुए थे। कभी-कभी मोबाइल फोन पर कहीं बतियाते थे। उनके सामने पड़ी एक थाली में छोटे-बड़े साइज़ के रुपये उफने पड़ रहे थे। जो जब भरकर बहार गिरने लगते थे तो बाबजी उन्हें बटोर कर एक झोले में ठूंस लेते थे। कभी-कभी माइक उठाकर वो स्वयं या उनके एक चेलाजी उपस्थित भीड़ को आवश्यक और सावधानी के निर्देश कहते थे। प्रदक्षिणा करते लोगों को भी निर्देश देते थे। हमने बाबजी के चरण छुए और प्रसाद पाया। वीणा ने प्रदक्षिणा का पहले से ही संकल्प ले लिया था। मुझे पूछी तो मैंने मना कर दिया। मुझे वहीँ कुटिया में ही बैठने को कह कर वो कलावती दाई के साथ यज्ञशाला की और चली गईं। उस दरम्यान कई लोग जो देखने में सम्पन्न लगते थे बाबजी की कुतिया में आये और यज्ञशाला की और जा कर प्रदक्षिणा करने लगे। पर मैं बैठा रहा। मुझे भान नहीं था कि वो कितनी बार प्रदक्षिणा करने वाली थीं। मैं बैठा वहीँ उनकी बाट जोहता रहा।
काफी देर होने पर जब खूब तेज़ धूप निकल आया तो मैं परेशान हो कर उठा और यज्ञशाला की और गया तो पंडित बालेश्वरमणि मिश्र जी मिल गए। वो भी सपरिवार पधारे थे। प्रणाम-पाती के बाद उन्होने मुझसे पूछा :
"आप हीएं खड़े है! (प्रदक्षिणा की और इशारा कर बोले:) हुवां घुमते काहे नहीं हैं? मैंने जान छुड़ाने के लिए कहा
कि में प्रासाद पा चूका हूँ। मैंने उन्हें बताया कि "_मलकिनी घूम रहीं हैं!" पंडितजी फिर अपने परिवार से
बतियाने लगे। मैं से बचने के लिए छांव में खड़ा हो गया तो देखता हूँ की कलावतिया नीचे ज़मीन पर चौकड़ी
मारे बैठल है, और हांफ रही है! मैंने उससे पूछा: "का होलऊ?" बोलती है: " बैत !थक गेलियऊ ! भउजी अभी तक घूमते हउ !" मैंने पूछा : "तूं घुम्लीहं कि नई ?" बोली :"हाँ, घुमलियाई एगारा बार !" मैंने आश्चर्य किया : "वाह!", और तोर मलकिनी?" तो बोली :"नई जानबऊ ,अभी घुमते हउ !" मैंने यज्ञशाला की ओर मुड कर
प्रदक्षिणा करने वालों की और देखा तो पाया कि लाल !! तेज से तमतमाया हुआ मुख लिए कुछ उच्चारण करते
हुए वीणा पूरी तन्मयता के साथ प्रदक्षिणा कर रही है!!! मेरा मन गर्व से भर गया।
एक नयी ऊर्जा का संचार होते मैंने साफ़ महसूस किया।
-श्रीकांत तिवारी