सबको सादर प्रणाम।
अभी मैं पाठक सर की काफी पुरानी लेकिन बहुत ही फेमस नोवेल "जादूगरनी" के बारे में सोच रहा हूँ। जिस वक़्त ये उपन्यास मार्केट में आया था शायद, शायद मैं -I.Sc`1st Yr. में था। वो वक़्त ही कुछ और था ...!! समय था सन 1980...
...हमारे शहर में शुरू से ही मात्र एक ही बुक स्टाल था जो उनके दो भाइयों में बंटवारे के बाद अब दो दुकाने हैं, पहले इस दूकान के बुजुर्ग मालिक जीवित थे तब इनकी दूकान हमारे क्वार्टर (स्व. बाबूजी के समय से अभी तक) के समीप हुआ करता था। अब नहीं है। बाबूजी के प्रेमी-प्रतापी प्रभाव के कारण दुकानदार हमें किताबें-कॉमिक्स (भाड़ा वो बाबूजी से चार्ज कर लेता था) पढने के लिए दे दिया करता था। उस समय अपनी उम्र के हिसाब से हम (सभी भाई-बहन) कॉमिक्स और किताबें छाँट कर उठा लाते थे। मैं शुरू में "लोटपोट", "पराग", "नंदन", "मधु-मुस्कान:, "इंद्रजाल कॉमिक्स", "अमर चित्र कथा" पढता था, ...फिर धीरे-धीरे मनोज बाल पॉकेट बुक्स ......, फिर v p sharma की विजय-विकास सीरीज की किताबों में दिलचस्पी हो गई थी। जब थोड़े और बड़े हुए तो कभी-कभार अब नज़रें कुछ ज्यादा की तलाश में भटकने लगीं थीं ... हर बार मेरी नज़रों के सामने रहते हुए भी जिनकी तरफ कभी ध्यान नहीं दिया था,..कभी कर्नल रंजीत, कभी मेजर बलवंत,...अला-बला,..से होते सुरेन्द्र मोहन पाठक के तरफ मेरा ध्यान गया किताब पर छपे एक स्लोगन पर जिसे उस वक़्त मैंने पब्लिसिटी स्टंट समझा ..मैंने पढ़ा : "सोहल की सनसनीखेज़ दुनिया!", "विमल का विस्फोटक संसार!" वो किताब मैंने उठाई उसके पन्ने पलटे और किसी पृष्ठ की चंद लाइने पढ़ीं, पाया की भाषा उर्दूदां है, मैंने छोड़ा फिर पकड़ा फिर उठाया, पता चला ये उपन्यास अपनी कथा का दूसरा भाग है; तब किताब के आखिर में छपे सन्देश से उसके पहले भाग का नाम पढ़ा और उसे ढूँढने लगा, सैंकड़ों किताबों के अम्बार में वो मुझे न मिला तो दुसरे भाग को भी छोड़ दिया। लेकिन मेरा ध्यान इस लेखक की लेखन शैली की तरफ बार-बार जाता रहा। आखिरकार मैंने निश्चय ले कर सुरेन्द्र मोहन पाठक का एक भाग में सम्पूर्ण किताब में से एक चुना वो था "लेट न्यूज़", जिसे मैंने वक़्त गुजारी के ख्याल से पढना शुरू किया; वक़्त गुजरा और क्या खूब गुजरा! अगले दिन किताब वापस करने का दिन था वरना 20 पैसे एक्स्ट्रा लग जाते, मैंने रातों-रात वो किताब पढ़ डाली। और फिर सुनील से हुई मुलाक़ात ने मुझे सुरेन्द्र मोहन पाठक को और पढने की प्रेरणा दी। अगले दिन किताब लौटने जब गया तब किताबों की भीड़ में वो किताब दिखी जो ढूंढें नहीं मिल रही थी। वो था "चेहरे पर चेहरा", किताब के कवर पर एक खूबसूरत लड़की का चेहरा यूँ छापा गया था कि वो छिले हुए सेब के छिलके से स्पाइरल बने सेबनुमा लड़की का चेहरा बन गया था, जिसके बगल में एक गन रखी हुई थी। सबसे बड़ी चीज थी उस पर छपा लेखक के नाम के फॉन्ट की थ्री-डाईमेनशनल आकृति! मुझे रोमांच हो आया। मैंने दोनों भाग उठा लिए रजिस्टर करवा कर घर पर रख कर कॉलेज चला गया। दिन भर मेरे जेहन में किताब का कवर घूमता रहा। आखिरकार वह समय आया जब मैंने इसे पढना शुरू किया। ...सब समझ में आ रहा था ! ...पर कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। कई स्थान पर ऐसा लगा जैसे ...ये पहला भाग नहीं है!...ज़रूर इसके पहले भी कोई कहानी है ...जिसका इशारा न समझ में आने वाली पूर्व-घटित घटनाओं, और कई पूर्व पात्रों के नाम जो इस उपन्यास में हाज़िर नहीं थे पर उनके जिक्र का ज़ोरदार दखल था जो और भी कहानी पीछे है जिन्हें पढना पड़ेगा - की ओर साफ़ संकेत करतीं थीं। मुझसे आगे पढने में वो मज़ा नहीं आ रहा था। पर किसी तरह पढ़ा। और बौरा गया। मुझे एक जिद्द ने अपने वश में कर लिया की विमल की कहानी मैं शुरू से पढूंगा। इस जिद्द को पूरा करने में मुझे 13 साल लग गए। इस बीच सुनील से और रमाकांत से मेरी घनिष्ठ मित्रता हो गई थी। फिर हाथ में आई वो किताब जिसने उपन्यास पढने के मेरे सारे कांसेप्ट को झिंझोड़ कर, बदल कर रख दिया। वो किताब बल्कि आज की तारीख में मैं उसे इंडियन क्राइम फिक्शन की दुनिया का माइलस्टोन मानता हूँ , जो थी : "मीना मर्डर केस!", साहबान वो दिन है और आज का दिन, पाठक साहब के अलावे "हिंदी क्राइम फिक्शन " के किसी दुसरे लेखक को मैंने छुआ भी नहीं है।
फिर मुझे पढने को मिला "जादूगरनी"! आज इस उपन्यास की बहुत याद आ रही है, क्योंकि ''सदा नगारा कूच'' का में भी कुछ ऐसी ही मिलती-जुलती घटना दर्शाई गई है। पर ये उपन्यास आज ओपन मार्केट में कहीं भी उपलब्ध नहीं है। .....हमारे शहर का हमारा वो बचपन का बुक स्टाल उजड़ चूका है, इस शहर में अब जहां तक मेरा सर्वे कहता है, किसी भी भाषा का कोई उपन्यास, कोई भी नहीं पढता। बुक स्टाल दो भाइयों में बांटकर अब अखबार एजेंसी की दुकान बन कर रह गई है जहां न अब कोई उपन्यास है, न कॉमिक्स न कोई चंदामामा, नंदन, पराग, चम्पक, लोटपोट, मधु-मुस्कान, इंद्रजाल कॉमिक्स, अमर चित्र कथा, ..... सभी पतली हवा में विलीन हो चुकीं हैं। इस शहर में मैं अकेला शख्श हूँ जिसके पास ये शौक नहीं नशा नहीं बल्कि नशे से गुस्से से फ्रश्टेशन से डिप्रेशन से लड़ने की दवा है, मेरे पास सुरेन्द्र मोहन पाठक के उपन्यासों की अच्छी-खासी हेल्दी लाइब्रेरी है। इस दवा का ही असर है कि इस पृष्ठ पर सु.मो.पा. परिवार का एक अदना सदस्य हूँ, और सुरेन्द्र मोहन पाठक अब एक नाम नहीं एक लेखक मात्र नहीं बल्कि मेरे पूज्यनीय अभिभावक समान आदरनीय आराध्य उपनिषद हैं जिनका मैं उपासक हूँ, जिनकी किताबों को मैंने सालों-साल की मेहनत और लगन से इक्कट्ठा किया है। विमल के सभी उपन्यास बकायदे नंबर लिख कर अलग से रखा गया है। भाड़े पर किताब पढना मैंने तब छोड़ा जब मुझे उनकी कहानी दिमाग में घुमड़-घुमड़ कर बारम्बार याद आती और मुझे सताती। तब मैंने फैसला किया कि सुरेन्द्र मोहन पाठक का उपन्यास जो मुझे पसंद है वो अब हमेशा मेरे अंग-संग रह्रेगा। इस तरह मैंने उन्हें खरीदना शुरू कर दिया। पैसे की तंगी हुई तो उधार पर ले लिया कई-कई महीनों तक उधार खाता चलता रहा, लेकिन तारीफ़ है दुकानदार की कि उसने तकादा कर के कभी मुझे शर्मिंदा नहीं किया। घर में बहना बना कर पैसे जमा कर दिया पर सुरेन्द्र मोहन पाठक की किसी भी उपन्यास को कभी मैंने लौटाया नहीं। इसके बावजूद "_विमल (सिरीज़) को छोड़कर_" बहुत सारी किताबे अब भी जेहन में दस्तक दे रही हैं जो मेरे पास नहीं है, जैसे की मैंने शुरुआत में ही कहा है 1. जादूगरनी, 2.अँधेरी रात, 3.खाली मकान, 4.स्टार नाईट क्लब, 5. विश्वास की हत्या, 6.डायल-100 इसके बारे में सुना था कि इस पे फिल्म बनेगी, 7. धोखाधड़ी ...इत्यादि। शायद SMP लाइब्रेरी से मिलेगी जिसका सुजाव आपने मुझे दिया है। कोशिश ज़रूर करूँगा।
आज पाठक सर की किताबें हासिल करने के लिए, प्रकाशन की जानकारी मिलने पर कि बुक मार्केट में आ गई है, मुझे बाकायदे ऑफिस से छुट्टी ले कर (मेरी जॉब/नौकरी 365 दिन 24 घंटे हमेशा अलर्ट वाली है;) रांची जाना पड़ता है। बदकिस्मती देखिये की राजधानी रांची में बुक स्टालस सिर्फ 2 जगह पर है और कुल मिलकर दुकाने मात्र 3"तीन" ही है। एक रेलवे स्टेशन पर का व्हीलर, बाकी के 2 शहर के दुसरे छोर पर 7 कि.मी. दूर !! मेरे रांची स्थित फ्लैट के दो बिलकुल विपरीत दिशाओं में !! अक्सर मैं स्टेशन के व्हीलर से ही किताबें खरीदता हूँ। कई बार तो ऐसा हुआ है कि एक ही महीने में जब भी किसी अन्य काम से रांची गया व्हीलर वाले भैया/काका से आदतन पूछ बैठता हूँ :" जी भइया, सुरेन्द्र मोहन पाठक की नई नोवेल ...." उत्तर :"अभी परसुवें न डब्बल गेम लेगे हैं, एतना जल्दी कहियो नया आया है कि आ जावेगा? ..!!"
23, दिसंबर 2012, रविवार को जो सुरेन्द्र मोहन पाठक परिवार मिलन समारोह होने जा रहा है। इसकी सूचना मुझे ग्रुप ज्वाइन करने के बाद मिली। और परसों ही तो मैंने ग्रुप ज्वाइन किया है। इसके पहले ही कई तरह के और कार्यक्रमों का निर्धारण हो चूका था ऑफिस से मुझे ऑर्डर्स मिल चुके थे। इसी दरम्यान मेरे बच्चों की छुट्टियों की घोषणा तय थी, मेरे अनुज और समूचे परिवार ने मिल कर जगन्नाथ पुरी जी की यात्रा का प्रोग्राम बना कर टिकट्स भी ले चुके थे। जैसे ही मैंने SMP fb फॅमिली - ग्रुप ज्वाइन किया तो मुख पृष्ठ पर ही इस आयोजन की घोषणा का संवाद देखा। अब आप स्वयं सोचें इतने शार्ट नोटिस पर मेरे जैसा अदना आदमी जिसकी आमदनी गृहस्थी और बच्चों की शिक्षा में खर्च हो जाती है वो हजारों मील दूर से भीड़ भरी दुनिया में तुरंत टिकट भी कहाँ से पावे, आना बड़ी बात है।
लेकिन यदि आप सभी कृपा करें तो शायद मेरी हाजिरी भी पाठक सर की सेवा में लगा देने की कृपा करें। इसे मेरा नेवेदन समझें और कृपया पाठक सर को याद कर के मेरी क्षमा याचना के साथ उनको मेरा चरण स्पर्श कह देने की महत्ती कृपा करेंगे।
चूँकि यात्रा की तैयारी और पूरी पैकिंग करने हैं, सुबह ही निकलना है; अभी पाठक सर के कम-से-कम 3 उपन्यास ज़रूर साथ होंगे। अब 7/8 दिनों तक मैं आपसबों को "तंग" नहीं करूँगा। एक बात मैं बड़े हिचक के साथ कहना चाहता हूँ कि पता नहीं क्यों मुझे लगता है कि मैं आप लोगों को बहुत ही मिस करूंगा। अब विदा लेना चाहूँगा। सपरिवार सुबह 8 (आठ) बजे खुद 75 कि मी ड्राइव कर के जाना है। रांची वाले फ्लैट पे रुकना है जहां मेरे कॉलेज की छट्टियों से लौटे 2 बेटे मेरे छोटे भाई और बहु हैं। गाड़ी शाम में 4 बजे की है।
सप्रेम सादर नमस्कार के साथ दोनों हाथ जोड़ कर ह्रदय से लगा कर सबका अभिनन्दन करता हूँ। 23,दिसंबर के मिलन समारोह के लिए मेरी हार्दिक शुभकामनाएं ! सादर प्रणाम।
बोले भईया बलभद्र जी की जय ! बोले बहिनी सुभद्रा जी की जय !! बोलो भगवन श्रीकृष्णचन्द्र जी की जय !!!
श्री सुरेन्द्र मोहन पाठक जी का अनन्य भक्त
-अकिंचन_
श्रीकांत .
लोहरदगा दिनांक :21, माह : दिसंबर (12), वर्ष : सन 2012 समय रात्रि : 00.27(AM)
अब मैं एसएमपी ग्रुप का मेंबर नहीं हूँ। मैंने स्वेच्छा से ये ग्रुप छोड़ दिया है।
अभी मैं पाठक सर की काफी पुरानी लेकिन बहुत ही फेमस नोवेल "जादूगरनी" के बारे में सोच रहा हूँ। जिस वक़्त ये उपन्यास मार्केट में आया था शायद, शायद मैं -I.Sc`1st Yr. में था। वो वक़्त ही कुछ और था ...!! समय था सन 1980...
...हमारे शहर में शुरू से ही मात्र एक ही बुक स्टाल था जो उनके दो भाइयों में बंटवारे के बाद अब दो दुकाने हैं, पहले इस दूकान के बुजुर्ग मालिक जीवित थे तब इनकी दूकान हमारे क्वार्टर (स्व. बाबूजी के समय से अभी तक) के समीप हुआ करता था। अब नहीं है। बाबूजी के प्रेमी-प्रतापी प्रभाव के कारण दुकानदार हमें किताबें-कॉमिक्स (भाड़ा वो बाबूजी से चार्ज कर लेता था) पढने के लिए दे दिया करता था। उस समय अपनी उम्र के हिसाब से हम (सभी भाई-बहन) कॉमिक्स और किताबें छाँट कर उठा लाते थे। मैं शुरू में "लोटपोट", "पराग", "नंदन", "मधु-मुस्कान:, "इंद्रजाल कॉमिक्स", "अमर चित्र कथा" पढता था, ...फिर धीरे-धीरे मनोज बाल पॉकेट बुक्स ......, फिर v p sharma की विजय-विकास सीरीज की किताबों में दिलचस्पी हो गई थी। जब थोड़े और बड़े हुए तो कभी-कभार अब नज़रें कुछ ज्यादा की तलाश में भटकने लगीं थीं ... हर बार मेरी नज़रों के सामने रहते हुए भी जिनकी तरफ कभी ध्यान नहीं दिया था,..कभी कर्नल रंजीत, कभी मेजर बलवंत,...अला-बला,..से होते सुरेन्द्र मोहन पाठक के तरफ मेरा ध्यान गया किताब पर छपे एक स्लोगन पर जिसे उस वक़्त मैंने पब्लिसिटी स्टंट समझा ..मैंने पढ़ा : "सोहल की सनसनीखेज़ दुनिया!", "विमल का विस्फोटक संसार!" वो किताब मैंने उठाई उसके पन्ने पलटे और किसी पृष्ठ की चंद लाइने पढ़ीं, पाया की भाषा उर्दूदां है, मैंने छोड़ा फिर पकड़ा फिर उठाया, पता चला ये उपन्यास अपनी कथा का दूसरा भाग है; तब किताब के आखिर में छपे सन्देश से उसके पहले भाग का नाम पढ़ा और उसे ढूँढने लगा, सैंकड़ों किताबों के अम्बार में वो मुझे न मिला तो दुसरे भाग को भी छोड़ दिया। लेकिन मेरा ध्यान इस लेखक की लेखन शैली की तरफ बार-बार जाता रहा। आखिरकार मैंने निश्चय ले कर सुरेन्द्र मोहन पाठक का एक भाग में सम्पूर्ण किताब में से एक चुना वो था "लेट न्यूज़", जिसे मैंने वक़्त गुजारी के ख्याल से पढना शुरू किया; वक़्त गुजरा और क्या खूब गुजरा! अगले दिन किताब वापस करने का दिन था वरना 20 पैसे एक्स्ट्रा लग जाते, मैंने रातों-रात वो किताब पढ़ डाली। और फिर सुनील से हुई मुलाक़ात ने मुझे सुरेन्द्र मोहन पाठक को और पढने की प्रेरणा दी। अगले दिन किताब लौटने जब गया तब किताबों की भीड़ में वो किताब दिखी जो ढूंढें नहीं मिल रही थी। वो था "चेहरे पर चेहरा", किताब के कवर पर एक खूबसूरत लड़की का चेहरा यूँ छापा गया था कि वो छिले हुए सेब के छिलके से स्पाइरल बने सेबनुमा लड़की का चेहरा बन गया था, जिसके बगल में एक गन रखी हुई थी। सबसे बड़ी चीज थी उस पर छपा लेखक के नाम के फॉन्ट की थ्री-डाईमेनशनल आकृति! मुझे रोमांच हो आया। मैंने दोनों भाग उठा लिए रजिस्टर करवा कर घर पर रख कर कॉलेज चला गया। दिन भर मेरे जेहन में किताब का कवर घूमता रहा। आखिरकार वह समय आया जब मैंने इसे पढना शुरू किया। ...सब समझ में आ रहा था ! ...पर कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। कई स्थान पर ऐसा लगा जैसे ...ये पहला भाग नहीं है!...ज़रूर इसके पहले भी कोई कहानी है ...जिसका इशारा न समझ में आने वाली पूर्व-घटित घटनाओं, और कई पूर्व पात्रों के नाम जो इस उपन्यास में हाज़िर नहीं थे पर उनके जिक्र का ज़ोरदार दखल था जो और भी कहानी पीछे है जिन्हें पढना पड़ेगा - की ओर साफ़ संकेत करतीं थीं। मुझसे आगे पढने में वो मज़ा नहीं आ रहा था। पर किसी तरह पढ़ा। और बौरा गया। मुझे एक जिद्द ने अपने वश में कर लिया की विमल की कहानी मैं शुरू से पढूंगा। इस जिद्द को पूरा करने में मुझे 13 साल लग गए। इस बीच सुनील से और रमाकांत से मेरी घनिष्ठ मित्रता हो गई थी। फिर हाथ में आई वो किताब जिसने उपन्यास पढने के मेरे सारे कांसेप्ट को झिंझोड़ कर, बदल कर रख दिया। वो किताब बल्कि आज की तारीख में मैं उसे इंडियन क्राइम फिक्शन की दुनिया का माइलस्टोन मानता हूँ , जो थी : "मीना मर्डर केस!", साहबान वो दिन है और आज का दिन, पाठक साहब के अलावे "हिंदी क्राइम फिक्शन " के किसी दुसरे लेखक को मैंने छुआ भी नहीं है।
फिर मुझे पढने को मिला "जादूगरनी"! आज इस उपन्यास की बहुत याद आ रही है, क्योंकि ''सदा नगारा कूच'' का में भी कुछ ऐसी ही मिलती-जुलती घटना दर्शाई गई है। पर ये उपन्यास आज ओपन मार्केट में कहीं भी उपलब्ध नहीं है। .....हमारे शहर का हमारा वो बचपन का बुक स्टाल उजड़ चूका है, इस शहर में अब जहां तक मेरा सर्वे कहता है, किसी भी भाषा का कोई उपन्यास, कोई भी नहीं पढता। बुक स्टाल दो भाइयों में बांटकर अब अखबार एजेंसी की दुकान बन कर रह गई है जहां न अब कोई उपन्यास है, न कॉमिक्स न कोई चंदामामा, नंदन, पराग, चम्पक, लोटपोट, मधु-मुस्कान, इंद्रजाल कॉमिक्स, अमर चित्र कथा, ..... सभी पतली हवा में विलीन हो चुकीं हैं। इस शहर में मैं अकेला शख्श हूँ जिसके पास ये शौक नहीं नशा नहीं बल्कि नशे से गुस्से से फ्रश्टेशन से डिप्रेशन से लड़ने की दवा है, मेरे पास सुरेन्द्र मोहन पाठक के उपन्यासों की अच्छी-खासी हेल्दी लाइब्रेरी है। इस दवा का ही असर है कि इस पृष्ठ पर सु.मो.पा. परिवार का एक अदना सदस्य हूँ, और सुरेन्द्र मोहन पाठक अब एक नाम नहीं एक लेखक मात्र नहीं बल्कि मेरे पूज्यनीय अभिभावक समान आदरनीय आराध्य उपनिषद हैं जिनका मैं उपासक हूँ, जिनकी किताबों को मैंने सालों-साल की मेहनत और लगन से इक्कट्ठा किया है। विमल के सभी उपन्यास बकायदे नंबर लिख कर अलग से रखा गया है। भाड़े पर किताब पढना मैंने तब छोड़ा जब मुझे उनकी कहानी दिमाग में घुमड़-घुमड़ कर बारम्बार याद आती और मुझे सताती। तब मैंने फैसला किया कि सुरेन्द्र मोहन पाठक का उपन्यास जो मुझे पसंद है वो अब हमेशा मेरे अंग-संग रह्रेगा। इस तरह मैंने उन्हें खरीदना शुरू कर दिया। पैसे की तंगी हुई तो उधार पर ले लिया कई-कई महीनों तक उधार खाता चलता रहा, लेकिन तारीफ़ है दुकानदार की कि उसने तकादा कर के कभी मुझे शर्मिंदा नहीं किया। घर में बहना बना कर पैसे जमा कर दिया पर सुरेन्द्र मोहन पाठक की किसी भी उपन्यास को कभी मैंने लौटाया नहीं। इसके बावजूद "_विमल (सिरीज़) को छोड़कर_" बहुत सारी किताबे अब भी जेहन में दस्तक दे रही हैं जो मेरे पास नहीं है, जैसे की मैंने शुरुआत में ही कहा है 1. जादूगरनी, 2.अँधेरी रात, 3.खाली मकान, 4.स्टार नाईट क्लब, 5. विश्वास की हत्या, 6.डायल-100 इसके बारे में सुना था कि इस पे फिल्म बनेगी, 7. धोखाधड़ी ...इत्यादि। शायद SMP लाइब्रेरी से मिलेगी जिसका सुजाव आपने मुझे दिया है। कोशिश ज़रूर करूँगा।
आज पाठक सर की किताबें हासिल करने के लिए, प्रकाशन की जानकारी मिलने पर कि बुक मार्केट में आ गई है, मुझे बाकायदे ऑफिस से छुट्टी ले कर (मेरी जॉब/नौकरी 365 दिन 24 घंटे हमेशा अलर्ट वाली है;) रांची जाना पड़ता है। बदकिस्मती देखिये की राजधानी रांची में बुक स्टालस सिर्फ 2 जगह पर है और कुल मिलकर दुकाने मात्र 3"तीन" ही है। एक रेलवे स्टेशन पर का व्हीलर, बाकी के 2 शहर के दुसरे छोर पर 7 कि.मी. दूर !! मेरे रांची स्थित फ्लैट के दो बिलकुल विपरीत दिशाओं में !! अक्सर मैं स्टेशन के व्हीलर से ही किताबें खरीदता हूँ। कई बार तो ऐसा हुआ है कि एक ही महीने में जब भी किसी अन्य काम से रांची गया व्हीलर वाले भैया/काका से आदतन पूछ बैठता हूँ :" जी भइया, सुरेन्द्र मोहन पाठक की नई नोवेल ...." उत्तर :"अभी परसुवें न डब्बल गेम लेगे हैं, एतना जल्दी कहियो नया आया है कि आ जावेगा? ..!!"
23, दिसंबर 2012, रविवार को जो सुरेन्द्र मोहन पाठक परिवार मिलन समारोह होने जा रहा है। इसकी सूचना मुझे ग्रुप ज्वाइन करने के बाद मिली। और परसों ही तो मैंने ग्रुप ज्वाइन किया है। इसके पहले ही कई तरह के और कार्यक्रमों का निर्धारण हो चूका था ऑफिस से मुझे ऑर्डर्स मिल चुके थे। इसी दरम्यान मेरे बच्चों की छुट्टियों की घोषणा तय थी, मेरे अनुज और समूचे परिवार ने मिल कर जगन्नाथ पुरी जी की यात्रा का प्रोग्राम बना कर टिकट्स भी ले चुके थे। जैसे ही मैंने SMP fb फॅमिली - ग्रुप ज्वाइन किया तो मुख पृष्ठ पर ही इस आयोजन की घोषणा का संवाद देखा। अब आप स्वयं सोचें इतने शार्ट नोटिस पर मेरे जैसा अदना आदमी जिसकी आमदनी गृहस्थी और बच्चों की शिक्षा में खर्च हो जाती है वो हजारों मील दूर से भीड़ भरी दुनिया में तुरंत टिकट भी कहाँ से पावे, आना बड़ी बात है।
लेकिन यदि आप सभी कृपा करें तो शायद मेरी हाजिरी भी पाठक सर की सेवा में लगा देने की कृपा करें। इसे मेरा नेवेदन समझें और कृपया पाठक सर को याद कर के मेरी क्षमा याचना के साथ उनको मेरा चरण स्पर्श कह देने की महत्ती कृपा करेंगे।
चूँकि यात्रा की तैयारी और पूरी पैकिंग करने हैं, सुबह ही निकलना है; अभी पाठक सर के कम-से-कम 3 उपन्यास ज़रूर साथ होंगे। अब 7/8 दिनों तक मैं आपसबों को "तंग" नहीं करूँगा। एक बात मैं बड़े हिचक के साथ कहना चाहता हूँ कि पता नहीं क्यों मुझे लगता है कि मैं आप लोगों को बहुत ही मिस करूंगा। अब विदा लेना चाहूँगा। सपरिवार सुबह 8 (आठ) बजे खुद 75 कि मी ड्राइव कर के जाना है। रांची वाले फ्लैट पे रुकना है जहां मेरे कॉलेज की छट्टियों से लौटे 2 बेटे मेरे छोटे भाई और बहु हैं। गाड़ी शाम में 4 बजे की है।
सप्रेम सादर नमस्कार के साथ दोनों हाथ जोड़ कर ह्रदय से लगा कर सबका अभिनन्दन करता हूँ। 23,दिसंबर के मिलन समारोह के लिए मेरी हार्दिक शुभकामनाएं ! सादर प्रणाम।
बोले भईया बलभद्र जी की जय ! बोले बहिनी सुभद्रा जी की जय !! बोलो भगवन श्रीकृष्णचन्द्र जी की जय !!!
श्री सुरेन्द्र मोहन पाठक जी का अनन्य भक्त
-अकिंचन_
श्रीकांत .
लोहरदगा दिनांक :21, माह : दिसंबर (12), वर्ष : सन 2012 समय रात्रि : 00.27(AM)
अब मैं एसएमपी ग्रुप का मेंबर नहीं हूँ। मैंने स्वेच्छा से ये ग्रुप छोड़ दिया है।