"जिंदा"-मुर्दा!
(हमारे यहाँ घटी एक सच्ची घटना पर आधारित {रिम्पी की फरमाइश पर कि "मामा आप बुक लिखिए ! ! !"} ... एक लघुत्तम कथा जो कपोल कल्पना कतई नहीं है।) :
एक बार की बात है, रांची में मालिकन के निवास पर हमारे कुछ स्टाफ, नौकर-चाकरों और कुछ ड्राईवर साथियों ने ऐसी हरकत की थी कि आज भी याद आने पर हंसी छूटती है। आज भी जब उस हरकत का "शिकार" हुए स्टाफ को देखता हूँ तो बरबस हंसी छूट पड़ती है।
वो कहानी यूँ घटी थी :
उस दिन घर पर कोई मालिकन नहीं थे, केवल साधू राम (ड्राईवर) के मालिक थे जो शाम से पहले निकलने वाले नहीं थे। लम्बी ड्राइव से आने के बाद साधू ड्राईवर को थकान की वजह से ऊंघ आ रही थी, ऊपर से वो, छिपाकर, एक-गिलास दारु पी गया था जिसकी वज़ह से वह रह-रह कर झूपने लगता था।
एक स्टाफ ने उससे कहा :"अरे, जा के रूम में सुत जा ना।"
साधू ने मना करते हुए कहा कि :"नई इयार, कभियो बाबु बोला सका हउ।"
पर बैठे-बैठे उसे आखिरकार वहीँ नींद आ ही गई। वो वहीँ बरामदे में ही फर्श पर लेट गया, उसे घनघोर नींद आ गई थी। वहाँ मौजूद सभी स्टाफ ने उसकी उस अवस्था को देखा। पहले तो वो उसकी इस पुरानी, कहीं भी कभी भी सो जाने की आदत से चिढ़ गए, फिर उन्हें शरारत सूझी। एक ड्राईवर साथी, अख्तर ने अपनी एक योजना सभी को बताई, जिससे सभी ने सहमती जताई। सभी साधू की इस तरह से सो जाने की आदत से अनसाय हुए थे, सो सब ने हामी भर दी : "ठीक हउ, चल आज मामू के मजा चखावल जाय।"
एक साथी-स्टाफ क्वार्टर से दौड़कर एक उजला चादर ले आया। दो जनों ने मिलकर सोए हुए साधू राम पर सफ़ेद चादर को सिर से पाँव तक ओढ़ा दिया। एक साथी दौड़कर अगरबत्ती और स्टैंड ले आया। अगरबत्तीयों को सुलगा कर साधू के सिरहाने रख दिया गया। फिर सभी उसके इर्द-गिर्द ग़मगीन मुँह बना कर बैठ गए। एक बाकायदे सुबकने भी लगा।
मालिकान के घर पर बाहरी लोगों का तांता लगा ही रहता है। ज्यादा इंतज़ार नहीं करना पड़ा। एक सज्जन पधारे। गेट के अन्दर आते ही उन्हें वो अजीब मंज़र दिखाई दिया।
वे बुरी तरह चौंके! : "अरे! तेर्रे की!! का होलई जी? कोई मर गेलई का?"
एक स्टाफ रुंघे स्वर में बोला : "हाँ!"
आगंतुक : "च-च-च, के रे भाई?"
स्टाफ : "साधुवा !"
आगंतुक : "साधुवा ! ड्राईवर ! मर गेलई !? धेत्त !!! अभी थोडेहें देर पाहिले तो बाबु के ले के ओकरा आवत देखले हलियई !"
एक स्टाफ ने चादर को थोड़ा सा उठा कर सोय हुए साधू राम का चेहरा उसे दिखाया। आगंतुक ने अविश्वासपूर्ण भाव से उसे देखा। मायूस मुंह बना कर अपना अफ़सोस जताया, फिर उसने सुबकते हुए आदमी को देखकर पूछा :" ई के हई?"
स्टाफ : "साधुवा के भाई। बेचारा लोहरदगा से एकर से कुछ पइसा मांगे आइले हलई, लेकिन,..ओफ़्फ़! ...अब का कहियऊ!"
आगंतुक : "म..चह:! बेचारा ! आगंतुक अपना दुःख प्रकट करते हुए बोला : "कोई मालिक लोग नई हथुन का? अब कैसे का करे ला हई?"
स्टाफ :"मालिक लोग तो कोई नई हथिन। जे बाबु के ले के तूं एकरा आवत देखलिन ओहो अभी दुसरा डरेवर ले के क्लब निकल गेलई। तब्भे अचानक हमिन के नज़र पडलई तो ...ख़तम!! डाक्टरो डिक्लियर करदेलई। एकर भाई "बॉडी" लोहरदगा लेगे खोजत हई, लेकिन हिंयाँ हमिन केकरो पास काम लायेक रुपिया-पैसा नई हई, एहे ला हमिन हिंयाँ चन्दा वास्ते बैठल 'तोर जइसन' "बड़ा" आदमी के इंतज़ार करा थियऊ, कि कोई गाडी-वाड़ी ठीक कर के "बॉडी" भेजवावल जाय। देखिन, अगर ...जे हो सका हउ तो कुछ मदद कर देहिन बेचारा के।"
उस 'बड़े' आदमी ने सहानिभूति और संवेदना प्रकट करते हुए 20/रू . दिए।
ऐसे ही लोग आते गए जिनके सामने वो ख़ास ड्रामा पूरे थियेट्रीकल्स के साथ पेश किया जाता रहा। अपने काम से आये व्यक्ति मालिकन के न रहने पर उस "दारुण दुःख" पर द्रवित हो कर अपना आर्थिक योगदान और "मृतक" और उसके परिवार के प्रति अपनी संवेदना और श्रद्धांजलि प्रकट कर जाने लगे। कुछ लोग, जो मालिकान से "मांगने" आये थे, किसी मालिकान के नहीं रहने के कारण, और कहीं उल्टा कुछ देना न पड़ जाय, केवल अपना अफ़सोस जता कर तुरंत फूट लिए। यूँ ही करीब 20-25 मिनट ये ड्रामा चला और ...तक़रीबन 250/-रू. जमा हो गए।
इस 'तमाशे' के चलते तबतक अन्दर कंपाउंड में छोटी-सी भीड़ इक्कट्ठी हो गई थी। भीड़ में से एक 'सयाने' ने कहा :"आईं, इयार तोहिन मुर्दवा उल्टा काहे सुताइले ह ?" मुर्दा के मूंडी उत्तर दिसा में न रक्खल जा हई! तोहीन तो पुरबे-पच्छिम धर देले हं! चला मिलके उत्तर दिसा देने मूंड़ी करा। गंगाजल-तुलसी तो अब लोहरदगे में न करबथिन, से कम-से-कम हीयाँ तो कदर करांह।" और वो आगे बढ़ा और बाकियों पर झल्लाया : "चल्हन भाई! कोई अउर आदमी दूसर देने पकड़ा, सबके एक दिना अइसने जाय ला हवा।"
उसके कहने पर कुछ लोग "मुर्दे" की तरफ बढ़े। ऐसा देख अख्तर और बाकी स्टाफ भीड़ के पीछे खिसक गए। लोग मिलकर "मुर्दे" को जैसे ही उठाने लगे साधू राम कुनमुनाया। "मुर्दे" को कुनमुनाते देख उसे उठाये हुए लोगों की हालत पतली हो गई, "मुर्दा" उनके हाथ से छूट गया और वो धबाक से नीचे पक्के फर्श पर गिरा। गिरते ही साधुवा जोर से चिल्लाया :"अगे मांय गे! ...ऊह!! ...अरे ब..आप!!"
...लोग भागे।
सबने देखा "मुर्दा" उठ खडा हुआ था! सब हक्के-बक्के थे।
साधू ने पूछा :"काहे भाई! काहे पटकला बे हमरा, सालन सुत्तल आदमी के आइसे जागवल जा हई?" ...फिर उसकी नज़र अपने जिस्म से उलझी सफ़ेद चादर पर और अगरबत्तियों पर पड़ी। वो गरजा :"केकर बदमासी हई?"
अख्तर ने आगे आकर उसे हँसते हुए समझाया : "कोई बदमासी नई करले हउ। तोरा सुतल देख के कि कहीं ठंढा नई लगे चद्दर ओढ़ा देले हलियाऊ लेकिन पब्लिक तोरा लावारिस मुर्दा समझ के तोर किरिया-करम वास्ते तोर उपरे पइसा फेंके लग्लथुन तो एकर में केकरो का दोस हई? सांत हो जा रे मामू ढेरे चंदा मिलले हउ। अइसने रोज-रोज मरबे न तो जे गाड़िया चलावाहीन ना वइसन के मालिक बने में देरी नई लगतऊ।"
साधू राम से रहा न गया उसने एक ढेला उठाया और गाली बकते हुए अख्तर को मारने दौड़ा। : "स्स्साला !!! बदमासी नई हई !! तो अगरबत्तिया का तोर बाप गाडले हलऊ!!??" भोंस...वाला! ...फिर साधू राम ने सनातन धर्म के संस्कारों की तरह प्राप्त विरासत में मिले अभाद्रान्कालिक शब्दावलियों से कुसंस्कृत-कुसज्जित गालियों के साथ ईंट-पत्थर और ढेला चलाते अख्तर को सबक सिखाने उसके पीछे दौड़ा। आगे-आगे अख्तर, पीछे-पीछे हाथ में ढेला लिए गाली बकते साधू राम को देख उपस्थित लोग पेट पकड़कर जोर-जोर से हंसने लगे। अख्तर को साधू नहीं पकड़ सका। थक कर वापस आकर बाकी स्टाफ साथियों से उलझ गया :" सालन! तोहीन के हंसी छुटत हउ, मामू के ..अना सब! आवे दे बाबु के हम सब बतईबई।" साधू का गुस्सा,बकते-झकते, गालियों और कोसनो से सब पर अपनी भड़ास निकलते, धीरे-धीरे शांत होने लगा।
उस दिन शाम को - शांत होने पर साधू ने पूछा :आइं रे, पइसवा के का होलई? जबाब मिला सभी स्टाफ आपस में बाँट लिए। साधू उदास हो गया, और मन-ही-मन सबको फिर गरियाने लगा। तभी अख्तर और बाकी स्टाफ आते दिखे। उन्हें देखते ही साधू राम क्रोध से कांपने लगा। उसके मुंह से गालियों का लावा फूटने ही वाला था कि अख्तर ने उसके सामने एक थैला रखा और बोला :" ले साधू भाई, खा-पी और आशीर्वाद दे।" आशंकित साधू ने थैले में से निकाल-निकाल कर सभी सामान सामने रखे, देखा - भुनी हुई मछरी, चना-मसाला और दारु के 5-7 पाउच थे। साधू हिचकिचाया। अख्तर ने हँसते हुए कहा :"अभियो गोसाइले हे का? अरे खा न! और हमिनो के कुछ दे। और वादा कर कि अब से मरल जइसन नई सुतबे। नई तो अबकी सीधे ....हूवें पंहुचावे ला सब कोई तइयार हथुन।"
धीरे-धीरे साधू शांत होने लगा, उसने खूब मनुहार के बाद मछरी के एक टुकड़े को उठाया और चबाने लगा, उसने कुछ चने भी लिए और बोला :"सब हम अकेले थोड़े खइबई, तोहिनो लेवां। तभी दिन का वो आगंतुक अचानक आ टपका। साधू को जीता-जागता सही-सलामत देखकर पहले तो वो बुरी तरह चौंका, लेकिन साधू सहित अन्य लोगों के चेहरों पर जब उसने गौर किया तो सारा माजरा उसकी समझ में आ गया।
वो बोला : "का रे साधुवा तूं तो मर गेले हले ना रे मामू! स्स्स्साल्ला दारू-मछरी सूंघते जिंदा हो गेल्ले बेट्टा !"
साधू मुस्कुराया। सभी मुस्कुराए, और पार्टी जम गई। दिन की उस हरकत की बात निकली, सभी उस बात को अब एक मज़ाक समझ कर बतियाने लगे और खिलखिला-खिलखिलाकर हंसने लगे।
हंसने वालों में साधू राम भी था, जो अब खींस निपोर कर हंस रहे था।
मुर्दा सचमुच जी उठा था।
[साधू राम ड्राईवर अब पेंशन पर रिटायर हो चुके हैं, रोज मिलते हैं, हंसी ठट्टा होते ही रहता है।]
- श्रीकांत तिवारी.
(हमारे यहाँ घटी एक सच्ची घटना पर आधारित {रिम्पी की फरमाइश पर कि "मामा आप बुक लिखिए ! ! !"} ... एक लघुत्तम कथा जो कपोल कल्पना कतई नहीं है।) :
एक बार की बात है, रांची में मालिकन के निवास पर हमारे कुछ स्टाफ, नौकर-चाकरों और कुछ ड्राईवर साथियों ने ऐसी हरकत की थी कि आज भी याद आने पर हंसी छूटती है। आज भी जब उस हरकत का "शिकार" हुए स्टाफ को देखता हूँ तो बरबस हंसी छूट पड़ती है।
वो कहानी यूँ घटी थी :
उस दिन घर पर कोई मालिकन नहीं थे, केवल साधू राम (ड्राईवर) के मालिक थे जो शाम से पहले निकलने वाले नहीं थे। लम्बी ड्राइव से आने के बाद साधू ड्राईवर को थकान की वजह से ऊंघ आ रही थी, ऊपर से वो, छिपाकर, एक-गिलास दारु पी गया था जिसकी वज़ह से वह रह-रह कर झूपने लगता था।
एक स्टाफ ने उससे कहा :"अरे, जा के रूम में सुत जा ना।"
साधू ने मना करते हुए कहा कि :"नई इयार, कभियो बाबु बोला सका हउ।"
पर बैठे-बैठे उसे आखिरकार वहीँ नींद आ ही गई। वो वहीँ बरामदे में ही फर्श पर लेट गया, उसे घनघोर नींद आ गई थी। वहाँ मौजूद सभी स्टाफ ने उसकी उस अवस्था को देखा। पहले तो वो उसकी इस पुरानी, कहीं भी कभी भी सो जाने की आदत से चिढ़ गए, फिर उन्हें शरारत सूझी। एक ड्राईवर साथी, अख्तर ने अपनी एक योजना सभी को बताई, जिससे सभी ने सहमती जताई। सभी साधू की इस तरह से सो जाने की आदत से अनसाय हुए थे, सो सब ने हामी भर दी : "ठीक हउ, चल आज मामू के मजा चखावल जाय।"
एक साथी-स्टाफ क्वार्टर से दौड़कर एक उजला चादर ले आया। दो जनों ने मिलकर सोए हुए साधू राम पर सफ़ेद चादर को सिर से पाँव तक ओढ़ा दिया। एक साथी दौड़कर अगरबत्ती और स्टैंड ले आया। अगरबत्तीयों को सुलगा कर साधू के सिरहाने रख दिया गया। फिर सभी उसके इर्द-गिर्द ग़मगीन मुँह बना कर बैठ गए। एक बाकायदे सुबकने भी लगा।
मालिकान के घर पर बाहरी लोगों का तांता लगा ही रहता है। ज्यादा इंतज़ार नहीं करना पड़ा। एक सज्जन पधारे। गेट के अन्दर आते ही उन्हें वो अजीब मंज़र दिखाई दिया।
वे बुरी तरह चौंके! : "अरे! तेर्रे की!! का होलई जी? कोई मर गेलई का?"
एक स्टाफ रुंघे स्वर में बोला : "हाँ!"
आगंतुक : "च-च-च, के रे भाई?"
स्टाफ : "साधुवा !"
आगंतुक : "साधुवा ! ड्राईवर ! मर गेलई !? धेत्त !!! अभी थोडेहें देर पाहिले तो बाबु के ले के ओकरा आवत देखले हलियई !"
एक स्टाफ ने चादर को थोड़ा सा उठा कर सोय हुए साधू राम का चेहरा उसे दिखाया। आगंतुक ने अविश्वासपूर्ण भाव से उसे देखा। मायूस मुंह बना कर अपना अफ़सोस जताया, फिर उसने सुबकते हुए आदमी को देखकर पूछा :" ई के हई?"
स्टाफ : "साधुवा के भाई। बेचारा लोहरदगा से एकर से कुछ पइसा मांगे आइले हलई, लेकिन,..ओफ़्फ़! ...अब का कहियऊ!"
आगंतुक : "म..चह:! बेचारा ! आगंतुक अपना दुःख प्रकट करते हुए बोला : "कोई मालिक लोग नई हथुन का? अब कैसे का करे ला हई?"
स्टाफ :"मालिक लोग तो कोई नई हथिन। जे बाबु के ले के तूं एकरा आवत देखलिन ओहो अभी दुसरा डरेवर ले के क्लब निकल गेलई। तब्भे अचानक हमिन के नज़र पडलई तो ...ख़तम!! डाक्टरो डिक्लियर करदेलई। एकर भाई "बॉडी" लोहरदगा लेगे खोजत हई, लेकिन हिंयाँ हमिन केकरो पास काम लायेक रुपिया-पैसा नई हई, एहे ला हमिन हिंयाँ चन्दा वास्ते बैठल 'तोर जइसन' "बड़ा" आदमी के इंतज़ार करा थियऊ, कि कोई गाडी-वाड़ी ठीक कर के "बॉडी" भेजवावल जाय। देखिन, अगर ...जे हो सका हउ तो कुछ मदद कर देहिन बेचारा के।"
उस 'बड़े' आदमी ने सहानिभूति और संवेदना प्रकट करते हुए 20/रू . दिए।
ऐसे ही लोग आते गए जिनके सामने वो ख़ास ड्रामा पूरे थियेट्रीकल्स के साथ पेश किया जाता रहा। अपने काम से आये व्यक्ति मालिकन के न रहने पर उस "दारुण दुःख" पर द्रवित हो कर अपना आर्थिक योगदान और "मृतक" और उसके परिवार के प्रति अपनी संवेदना और श्रद्धांजलि प्रकट कर जाने लगे। कुछ लोग, जो मालिकान से "मांगने" आये थे, किसी मालिकान के नहीं रहने के कारण, और कहीं उल्टा कुछ देना न पड़ जाय, केवल अपना अफ़सोस जता कर तुरंत फूट लिए। यूँ ही करीब 20-25 मिनट ये ड्रामा चला और ...तक़रीबन 250/-रू. जमा हो गए।
इस 'तमाशे' के चलते तबतक अन्दर कंपाउंड में छोटी-सी भीड़ इक्कट्ठी हो गई थी। भीड़ में से एक 'सयाने' ने कहा :"आईं, इयार तोहिन मुर्दवा उल्टा काहे सुताइले ह ?" मुर्दा के मूंडी उत्तर दिसा में न रक्खल जा हई! तोहीन तो पुरबे-पच्छिम धर देले हं! चला मिलके उत्तर दिसा देने मूंड़ी करा। गंगाजल-तुलसी तो अब लोहरदगे में न करबथिन, से कम-से-कम हीयाँ तो कदर करांह।" और वो आगे बढ़ा और बाकियों पर झल्लाया : "चल्हन भाई! कोई अउर आदमी दूसर देने पकड़ा, सबके एक दिना अइसने जाय ला हवा।"
उसके कहने पर कुछ लोग "मुर्दे" की तरफ बढ़े। ऐसा देख अख्तर और बाकी स्टाफ भीड़ के पीछे खिसक गए। लोग मिलकर "मुर्दे" को जैसे ही उठाने लगे साधू राम कुनमुनाया। "मुर्दे" को कुनमुनाते देख उसे उठाये हुए लोगों की हालत पतली हो गई, "मुर्दा" उनके हाथ से छूट गया और वो धबाक से नीचे पक्के फर्श पर गिरा। गिरते ही साधुवा जोर से चिल्लाया :"अगे मांय गे! ...ऊह!! ...अरे ब..आप!!"
...लोग भागे।
सबने देखा "मुर्दा" उठ खडा हुआ था! सब हक्के-बक्के थे।
साधू ने पूछा :"काहे भाई! काहे पटकला बे हमरा, सालन सुत्तल आदमी के आइसे जागवल जा हई?" ...फिर उसकी नज़र अपने जिस्म से उलझी सफ़ेद चादर पर और अगरबत्तियों पर पड़ी। वो गरजा :"केकर बदमासी हई?"
अख्तर ने आगे आकर उसे हँसते हुए समझाया : "कोई बदमासी नई करले हउ। तोरा सुतल देख के कि कहीं ठंढा नई लगे चद्दर ओढ़ा देले हलियाऊ लेकिन पब्लिक तोरा लावारिस मुर्दा समझ के तोर किरिया-करम वास्ते तोर उपरे पइसा फेंके लग्लथुन तो एकर में केकरो का दोस हई? सांत हो जा रे मामू ढेरे चंदा मिलले हउ। अइसने रोज-रोज मरबे न तो जे गाड़िया चलावाहीन ना वइसन के मालिक बने में देरी नई लगतऊ।"
साधू राम से रहा न गया उसने एक ढेला उठाया और गाली बकते हुए अख्तर को मारने दौड़ा। : "स्स्साला !!! बदमासी नई हई !! तो अगरबत्तिया का तोर बाप गाडले हलऊ!!??" भोंस...वाला! ...फिर साधू राम ने सनातन धर्म के संस्कारों की तरह प्राप्त विरासत में मिले अभाद्रान्कालिक शब्दावलियों से कुसंस्कृत-कुसज्जित गालियों के साथ ईंट-पत्थर और ढेला चलाते अख्तर को सबक सिखाने उसके पीछे दौड़ा। आगे-आगे अख्तर, पीछे-पीछे हाथ में ढेला लिए गाली बकते साधू राम को देख उपस्थित लोग पेट पकड़कर जोर-जोर से हंसने लगे। अख्तर को साधू नहीं पकड़ सका। थक कर वापस आकर बाकी स्टाफ साथियों से उलझ गया :" सालन! तोहीन के हंसी छुटत हउ, मामू के ..अना सब! आवे दे बाबु के हम सब बतईबई।" साधू का गुस्सा,बकते-झकते, गालियों और कोसनो से सब पर अपनी भड़ास निकलते, धीरे-धीरे शांत होने लगा।
उस दिन शाम को - शांत होने पर साधू ने पूछा :आइं रे, पइसवा के का होलई? जबाब मिला सभी स्टाफ आपस में बाँट लिए। साधू उदास हो गया, और मन-ही-मन सबको फिर गरियाने लगा। तभी अख्तर और बाकी स्टाफ आते दिखे। उन्हें देखते ही साधू राम क्रोध से कांपने लगा। उसके मुंह से गालियों का लावा फूटने ही वाला था कि अख्तर ने उसके सामने एक थैला रखा और बोला :" ले साधू भाई, खा-पी और आशीर्वाद दे।" आशंकित साधू ने थैले में से निकाल-निकाल कर सभी सामान सामने रखे, देखा - भुनी हुई मछरी, चना-मसाला और दारु के 5-7 पाउच थे। साधू हिचकिचाया। अख्तर ने हँसते हुए कहा :"अभियो गोसाइले हे का? अरे खा न! और हमिनो के कुछ दे। और वादा कर कि अब से मरल जइसन नई सुतबे। नई तो अबकी सीधे ....हूवें पंहुचावे ला सब कोई तइयार हथुन।"
धीरे-धीरे साधू शांत होने लगा, उसने खूब मनुहार के बाद मछरी के एक टुकड़े को उठाया और चबाने लगा, उसने कुछ चने भी लिए और बोला :"सब हम अकेले थोड़े खइबई, तोहिनो लेवां। तभी दिन का वो आगंतुक अचानक आ टपका। साधू को जीता-जागता सही-सलामत देखकर पहले तो वो बुरी तरह चौंका, लेकिन साधू सहित अन्य लोगों के चेहरों पर जब उसने गौर किया तो सारा माजरा उसकी समझ में आ गया।
वो बोला : "का रे साधुवा तूं तो मर गेले हले ना रे मामू! स्स्स्साल्ला दारू-मछरी सूंघते जिंदा हो गेल्ले बेट्टा !"
साधू मुस्कुराया। सभी मुस्कुराए, और पार्टी जम गई। दिन की उस हरकत की बात निकली, सभी उस बात को अब एक मज़ाक समझ कर बतियाने लगे और खिलखिला-खिलखिलाकर हंसने लगे।
हंसने वालों में साधू राम भी था, जो अब खींस निपोर कर हंस रहे था।
मुर्दा सचमुच जी उठा था।
[साधू राम ड्राईवर अब पेंशन पर रिटायर हो चुके हैं, रोज मिलते हैं, हंसी ठट्टा होते ही रहता है।]
- श्रीकांत तिवारी.