गद्दी चक्कलस !
हमेशा से ऐसा देखने को मिला है कि एक साथ एक ही जगह काम करने वाले
कर्मचारियों की आपस में नहीं पटती हैं। लड़ते-झगड़ते और हमेशा बकझक करते आम
देखे जाते हैं। हमारे यहाँ भी ऐसा ही है। मोहन और केदार हमेशा एक दुसरे को नीचा दिखाने में लगे रहते हैं। एक दुसरे से इतने आज़िज़ आ चुके हैं कि एक दुसरे की मौत की कामना करने लगे हैं। लेकिन साथ काम करने की मजबूरी है, इसलिए न चाहते हुए भी एक दुसरे को झेलते हैं, और बकझक जारी रखते हैं। मोहन को चिढ़ाने का शगल है। कोई मौका नहीं छोड़ते हैं। सिर्फ केदार को ही नहीं गद्दी कंपाउंड में घुसने-निकलने, हर आने-जाने वालों से टोका-टोकी इनकी आदत है। केदार मोहन से दूर-दूर रहने की कोशिश करते हैं, लेकिन मोहन कोई-न-कोई मौका निकल कर केदार को छेड़ ही देते हैं। और बकबक शुरू! अभी "_2012_" में महाप्रलय की चर्चा ज़ोरों पर है, हरकोई इसपर अपना-अपना ज्ञान बघारने में लगा हुआ है। मोहन और केदार भी इस बात पर नजर रखे हुए हैं और फ्री में हमें इसका लेटेस्ट उपडेट देते रहते हैं। केदार सोचते हैं कि मोहन जब मरेगा तो उनकी शवयात्रा कैसे ओर्गेनाइज़ करना है। पर मोहन भी हाज़िरजबाबी के महारथी हैं। अतः रोज़ कुच्छ-न-कुच्छ चुटीली बात होती ही रहती है। कल शाम केदार गद्दी में अपना ज्ञान बखान रहे थे........
केदार : " आज के परभात खबर में फिर छापले हलऊ, संभावना तो हई।"
दूर बइठे मोहन ने चुटकी लेने के लिए केदार को छेड़ा : " आँय ! का छपल था, बताइये।"
केदार चिढ़ कर :" नई बताएँगे! आपको काहे बतायं? जानना है तो अपना पेपर मंगवा के काहे नई पढ़ लेते हैं! काहे, मुंह पोंछने वास्ते पेपर लेते हैं का?"
मोहन : " अरे बता दीजियेगा तो का हो जायेगा?"
केदार : " न हम नई बताएँगे। खासकर के आपको!"
मोहन : " काहे, अकेले मरिएगा का!?"
मोहन के इस व्यंग्य पर सभी इतनी जोर से और देर तक हँसे की गद्दी की दीवारें अट्टहास झनझना गयीं। केदार अपनी झेंप छिपाने के लिए काम में पनाह तलाशने लगे, पर हँसे बिना वो भी न रह सके।
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जिम्मी : "पापा ! क्या कर रहे हैं?"
पापा : " एमा वाटसन या क्रिस्टीन स्टीवर्ट जैसी लड़की खोज रहे हैं।"
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दादागिरी, रंगदारी, बोकरादी, बोसगिरी को कभी-कभी अच्छा जबाब मिलता है। और तताकथित स्वनामधन्य दादा, रंगदार, बोकराद और खुद को ख़ुदा से भी दस हाथ ऊंचा समझने वाले अपना सा मुंह ले कर रह जाते हैं।
लोक-सभा के चुनाव के वक़्त, स्थान -चतरा (पलामू), कैशियर के साथ:
रात के साढ़े बारह बजे किसी ने जोर से दरवाजा भडभड़ाया, फिर जोर से नशे में धूत्त थरथराती आवाज़ में पुकारने लगा : " एई!" "..एजी!!" "...अई मनोज जी !!!" "मनोज जिह !!!!" "अरे दरवाजा खोलिए।" "जरुरी काम है। एई !!!!!!" "अरे खोलियेह !!!!!!" खट-खट-खट, ...हड़-हड़-हड़, ...! "होह !!!!"
मनोज जी थकान की वजह से आई घोर नींद से जागे। " ....हाँ! हाँ!! !कौन?"
आगंतुक : "अरे खोलिए पइसा लेना है।"
मनोज : "भाई, सबेरे नौ बजे ऑफिस में आइये, अभी यहाँ स्टाफ और रजिस्टर वगैरह नहीं है।"
आगंतुक : "अरे देत्त ! बोले न ज़रूरी है। 'बाबु ' का पुर्जा है, बोले अभिये ले लेने वास्ते, बिहानेहें मनिका जाय ला औडर दिए हैं। अभी नई दीजियेगा तो कइसे होगा? जल्दी खोलिए अउ पइसा दीजिये नई तो फेरा में फंस जियेगा!"
-ये सुनकर मनोज और मौजूद दो अन्य सहकर्मी सकपकाय। पर कुछ सोच कर मनोज ने दरवाजा खोल दिया और बत्ती जलाई। देखा कि सामने नशे में लेरुआईल, झूमता-डोलता मैला-कुचैला लाल-लाल आँखें मिचमिचाता काला-कलूटा मैला सा एक आदमी खड़ा था। दारू का भभूका मनोज के मुंह पर पड़ा, मनोज ने उसे पहचाना। वो रोज मांगने-खाने वाला आदमी था जो मालिक का चाटुकार था, जिसे मालिक का मुंहलगा होने के कारण और चुनावी माहौल में वक्ती तौर पर हासिल संगत और साथ घूमने-फिरने से इतराने का मौका मिल गया था। और चुनावी वातावरण में खुद को V.I.P. समझने लगा था। सबको अपनी धौंस में लेने की कोशिश से बाज नहीं आता था। मनोज उसके सम्मुख हुए।
मनोज : "हाँ बोलिए।"
आगंतुक : "बोलिए का !! ई पुर्जा धरिये अउर पइसा दीजिये।"
मनोज : " ये ऑफिस नहीं है, ये हमारे सोने का कमरा है। ऑफिस यहाँ से दूर है। यहाँ हम पैसा कहाँ से लाकर दें आपको एतना रात में? इतना ही ज़रूरी था तो जब शाम में ऑफिस में ही पुर्जा पास हुआ, वहीँ हम थे, सभी तरह का पुर्जा का पैसा चुकती दिया जा रहा था, वहाँ उसी समय काहे नहीं ले लिए? अब अभी आधा रात को आपको पैसा और काम याद आ गया!?
आगंतुक : " उ सब हम नई जानते हैं, इ पुर्जा पकड़िये और शांति से पइसा दीजिये नई त बोले न फेरा में फंस जाईयेगा।"
तबतक बाकि दोनों साथी भी जाग चुके थे।
मनोज : " क्या। कइसा फेरा में फंस जायेंगे"
आगंतुक : "अगिला दिन दिखाई नहीं दीजियेगा।"
एक साथी ने आगंतुक से पुर्जा ले कर उसका मुआयना किया, 'बाबु' का दस्तखत किया हुआ ऑर्डर था : "25/- रूपया दे देंगे।" _ इधर बहस जारी थी।
मनोज : "क्या कर लीजियेगा?"
आगंतुक : "छव इंच छोटा कर देंगे, समझे! अभी आप चीन्हे नहीं हैं।"
मनोज : "अरे आपको कौन नहीं चिन्ह्ता है! ई सब आपका रोज का धंधा है। रहा सवाल छव इंच छोटा करने का तो आपका जइसा आदमी को तो हम कब से खोज रहे हैं। हम भी आजिज़ आ गए हैं ई ज़िन्दगी से ! जल्दी ई काम करिए नई तो भुजलिया भोथडा जायेगा। एक किरपा आउर कीजियेगा, हमारा दू गो बेटा है उनका लिखाई-पढ़ाई और सब तरह के जिम्मेवारी ले लीजिये उनको पालने-पोसने का जिम्मा ले लीजिये हम अभिये अपना गर्दन आपके हवाले करते हैं, लेकिन ये पुर्जा सबेरे ऑफिस टाइम में ऑफिस से ही भंजाने सकिएगा। चल्ल ! कर छव इंच छोटा !!"
एक साथी ने उसे धकेल कर बहार निकला। नशे में वो भरभरा कर गिरा। उसका पुर्जा उसके ऊपर उछाल कर दरवाजा बंद कर दिया गया। उसके बाद वो आदमी फिर कभी दिखाई नहीं दिया। पता चला कि सबेरे ही वो पुर्जा किसी को देकर पैसे लेकर जा चूका था।
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लोहरदगा में कल शाम से घने काले बादल घिर आये हैं, झमाझम पानी बरस रहा है, खूब जोर से बिजली चमक रही है और बादल के घनघोर गर्जन भारी बरसात की धमकी दे रहे हैं। मलुवा और उसके बच्चों को ऊपर से नीचा उतार लाया हूँ। पुवाल को बोरी में भर कर उससे गद्दा बनाकर सीढ़ी के नीचे रख कर बच्चों को स्रुरक्षा में रखा है। मलुवा इस नए गद्दे पर आराम से बैठी अपने बच्चों को संभाले हुए है। लेकिन दरवाजे पर होती हर आहट और आने-जाने वालों पर जोर से भूंक रही है। इससे माँ मलुवा पर बमक रही है। वैसे माँ मलुवा को उसकी लापरवाही पर उसे डांट भी रही है कि वो बच्चों का ख्याल रक्खे। अब कूकुर से के बतियावे।
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