उठिए, सारे संसार को दिखाएं कि हम भारतीय कितने जीवट वाले हैं!
'घाटी इतनी गहरी कि कुछ समझ में ना आए, पहाड़ी इतनी सीधी, सपाट और चिकनी कि कुछ टिक ना पाए, सबकुछ इतना संकरा कि सांस लेना दूभर - किन्तु इंसानियत और कर्तव्य की भावना भरे हमारे सैनिक वहाँ उतर ही गए!' _ गौरीकुंड और रामबाड़ा के बीच दुरूह जंगलचेट्टी में फंसे कोई एक हज़ार लोगों को बचाने वाले जवानों पर नाज़ करते हुए - एयर मार्शल एस. बी. देव .
वो छोटी सी बच्ची बढती बाढ़ में बहने को थी! किन्तु एक बुज़ुर्ग की कमज़ोर बांहों ने उसे मजबूती से लिया! कोई रास्ता न था! बस, इंसानियत!
वो दो दिन से भूखा-प्यासा! भारी बारिश में बस जिंदा बचा था! परिवार लापता! इसलिए हिम्मत भी गायब! पानी की बोतल देख लपका! "सौ रुपये!", निर्दयी मांग उठी! अरे, इनसे पैसे, वो भी ऐसी लूट? "मेरा क्या रिश्ता है?" - हैवानियत!!
उत्तराखंड त्रासदी हमारे देश की सर्वाधिक बड़ी, सबसे दर्दनाक और सबको हिलाकर रख देनेवाली प्राकृतिक आपदा है! इसमें सरकारों का भी दोष, गंगा में आये उफान की तरह उभर-उभर सामने आ गया है!
किन्तु एक निर्णय का समय भी आ गया है! या तो हम दोष ढूंढना शुरू करें ..., वो तो हम कर ही रहे हैं! कहने का आशय यह है कि या तो हम बस "यह भूल हुई, उन्होंने ऐसा गलत किया, यह हैवानियत है" जैसी बातों में उलझें रहें, ...बहस करते रहें, ...आक्रमण करते रहें! ...या हम अब सब कुछ ठीक कैसे हो, जिंदगियां कैसे बचें, आगे ऐसा न हो - इनके उपाय करें!
निश्चित ही हम जो यात्री फंसे हैं, उन्हें बचाना चाहेंगे! जो इन चार धामों में और आसपास के गावों में रहते हैं, उनकी सहायता करना चाहेंगे! उन जांबाजों को सलाम करना चाहेंगे, जो जान की बाज़ी लगाकर, जान देकर, हमारे प्रियजनों को बचा रहे है!
हम भारतीय हैं - एकजुट हो जाएं तो विश्व में बेजोड़! हमारी सभ्यता ही इंसानियत का आधार है! और संवेदना हमारी सभ्यता का मूलाधार! हम जीवट के हैं! किन्तु इस समय हम बंट गए हैं! हमारा ध्यान बांटा जा रहा है! कभी हमें उत्तराखंड के मुख्यमंत्री की गलतियाँ गिनाई जा रही हैं तो कभी गुजरात के मुख्यमंत्री की! दोनों नेता गलत हैं भी! सभी 'बड़े-बड़े', इस भयानक विपदा पर घृणित राजनीति कर भी रहे हैं! किन्तु हम क्यों उन्हें और सम्बंधित छिड़ी बहस पर ध्यान दें? हम क्यों उन विवादों में उलझें जो -"बुद्धिजीवी"- चला रहे हैं? _ कि चार धाम एक बड़ा भारी सिर्फ पैसे कमाने का कारोबार बन गए हैं, ...कि श्रद्धालु भी विकराल गन्दगी फैलाकर पर्यावरण नष्ट कर रहे हैं, ...कि फेंकी हुई एक-एक बोतल भविष्य के खतरे को तैयार कर रही है, ...कि बच्चों को लेकर क्यूँ जाया जाता है, ...कि केवल गरीब मर रहे हैं, ...कि हम भारतीय तो हैं ही ऐसे, ...! जबरदस्त बहस छिड़ी हुई है! बहुत आपत्तिजनक है! अनजाने में हम किसी न किसी रूप से इसमें शामिल हो गए हैं!
इनके काट्य तर्क भी ढेरों चल रहे हैं! बोतल फेंकने से कोई बाढ़ नहीं आ सकती! बांधों के हिस्से छह-सात मंजिला जितने विशालकाय हैं! बोतलें तो चुटकियों में कुचल जाती है! बच्चों को क्यों नहीं ले जायेंगे? कहाँ रख जाएँ उन्हें? गलती सरकार की है! और तीन दिनों तक तो वहां के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा मानों सो रहे थे! इन सब पर भी तीखी बहस है - जो सरकार ने खड़ी की है! कि बादल फटने, बाढ़ आने, अति वर्षा होने या भूकंप आने में सरकार की क्या गलती? हर बात में सरकार?
हम भारतीय हैं ही ऐसे - यह डरावना झूंठ फैलाया जा रहा है! फ़ैल रहा है! इसे झुठलाना ही होगा! हम भारतीय कैसे हैं - यह संसार के सामने लाना होगा!
भारत-तिब्बत सीमा पुलिस (ITBP) के जांबाज सर्वेश कुमार जैसे हैं हम भारतीय! सात साल पहले दूल्हा बने थे! गौरीकुंड में फंसे यात्रियों की जान बचाने पहुंचे थे! जान दे दी! उस व्यापारी रमेश पुरोहित की भारतीयता देखिये! एक हाथ में बच्ची! दूसरा हाथ गरजती लहरों से मुकाबला करता रहा! बाहर फेंक कर बचा दी जान नन्ही की! अपनी ज़िन्दगी जाने दी! सार्थक कर दिया जीवन!
गुजरात भूकंप के उस मुस्तफा की माँ जैसी है भारतीयता! 2001 की उस दारुण दहला देने वाली आपदा में वह उस बच्चे को खुद मरते-मरते भी, अपने रक्त की बूँद से जिंदा रखने में सफल हुई थी! पता नहीं वह उस बच्चे की माँ थी भी या नहीं!
मोरवी की बाढ़ में भी दिखा था सच्चा भारतीय! कुछ नाम रहा होगा! उसने बताया नहीं! पत्रकार तक पता न लगा सके! बस, न जाने किसके बच्चे को अपने पैरों के बंधन में जकड़े किनारा ढूंढता रहा! बलिदान दे गया! जीवनदान दे गया!
विंग-कमांडर डेरिल केस्टलीनो हैं भारतीय! 7-वर्षीय बेटी एंजेलिना बड़ी होकर गर्व करेगी! गौरव गाथा सुनाएगी कि कैसे उसके पापा रूद्रतांडव के शिकार हुए श्रद्धालुओं को ज़िन्दगी देने गए थे! आंसू होंगे, किन्तु एंजेलिना के पापा की वीरता सार विश्व याद करेगा!
आपदा में भूलों को ठीक करने के लिए उनका - उन भूलों का - पता लगाना भी अनिवार्य है! बहस भी आवश्यक! इतनी तबाही के दोषी नेतृत्व - सरकार, नेता, अफसर, पूंजीपति, भ्रष्ट गंठजोड़ हर तरह के दोषियों को दंड मिलना भी उतना ही अनिवार्य और महत्वपूर्ण! किन्तु अभी समय बचाव का है! इलाज़ का है! बसाने का है! लोगों की जिंदगियों में कुछ करने का है! इसके लिए कुछ कर गुजरना होगा! जिन्हें दंड देना है, उनके लिए बाद में भी समय निकाला जा सकता है! वैसे भी इस समय बहस में उलझने से कौन सी उन्हें कोई सज़ा मिल जायेगी? केन्द्रीय मंत्रीगण, मुख्यमंत्री, नेतागण तो यूँ भी चुनाव में हटाय जा सकते हैं / हटाय जायेंगे! किन्तु दोषी अफसरों का तो हम कुछ भी न कर पायेंगे! बेबसी!
आपदाएं बिखेर देती हैं हमें! तोड़ देतीं हैं सबकुछ! ऐसे में कुछ उजला, कुछ सकारात्मक सोचना असंभव है! किन्तु सोचना ही होगा! क्योंकि एक आशा, समूचे संसार को बना सकती है! एक, केवल एक विचार! एक विचार ही तो था जिसने विश्वयुद्ध के बाद जीवन खिलाया! अन्यथा लाखों लोग मारे जा चुके थे! एक विचार ही तो था जिसने चीन का पुनर्निर्माण कर दिया - वरना 1931 की येलो रिवर की बाढ़ कोई 37-लाख लोगों को लील गई थी! हमारा अपना कलकत्ता 1737 में ऐसे चक्रवात में तबाह हो गया था कि त्रासदी पढ़कर कोई भी जड़ हो जाए! 1943 के आकाल से पूरा बंगाल बर्बाद हो गया था! बस, एक विचार ही तो था .... ज़िन्दगी सहेजने का! समेटने का! संवारने का!
मौत तो जन्म के साथ ही तय हो गई थी! जीवट तो जीवन में है! यही दिखाना होगा! हमसभी को! मिलजुलकर!
और इस समय भगवान् को भूल जाएँ! सबकुछ इंसान को करना है!
जय हिन्द!
साक्षी- श्रीकांत तिवारी ...उत्तराखंड से
(कल्पेश याग्निक के साथ)