सत्याग्रह (फिल्म)
"बेबस है मेरी आँखें तुझे बार-बार देखने के लिए,
क्या करूँ, मुझ पर मेरा कोई जोर नहीं है !"
_अभी-अभी प्रकाश झा -निर्देशित फिल्म "सत्याग्रह" देख कर लौटा हूँ! घर में खाना लगाया जा रहा है, कि पहले खा लूँ फिर अपनी खटर-पटर करूँ! लेकिन साब जी, बिन बोले रहा नहीं जाता! अमिताभ भईया को इसमें नहीं रख के दिलीप कुमार साहब को या धर्मेन्द्र (पा - जी ) को भी रख लेते ना तो आपकी इस बहू-प्रतीक्षित फिल्म का यही हश्र होना था! अमिताभ भईया ऐसी कहानियों की फिल्मों के लिए बने ही नहीं हैं! वे अपनी मित्र-वत्सलता के कारण कोई भी नजदीकी ("नजदीकी" पे ख़ास जोर है) मित्र निर्माता-निर्देशक को इन्कार नहीं करते, और उनके करोंड़ो प्रशंसकों के मुँह से फिल्म ख़त्म होते ही जो वाणी मुखरित होती है वह हम भक्तों को नहीं भाति, फिर भी गाली सहने और खामोशी की यही वजह होती है कि उन्हें इस फिल्म में टोटली वेस्ट किया गया है! सो, सहन कर शहीद होना पड़ता है! ना जी, फिल्म ONLY ONE DAY SHOW है, जो अपना कोई मेसेज, जो इस फिल्म से प्रकाश झा देना चाहते थे, वह नाकाम रहा, नहीं दे पाये! फिल्म में कई वास्तविकताएं हैं, इससे इन्कार नहीं, लेकिन वे कोई भी जागृति को तो छोडिये मनोरंजन तक नहीं करतीं! बासी और उबाऊ लगतीं है! मनोज बाजपेयी बहुत अच्छे अभिनेता हैं, इसमें भी खूब मन लगा कर अपने किरदार को निभाया है! लेकिन अमित भईया का कद्दावर व्यक्तित्व जब धूमिल होता है, तो सब बेकार लगने लगता है! निःसंदेह यह फिल्म अन्ना हजारे से कोई ताल्लुक नहीं रखती! लेकिन मंच पर झंडा लहराने का ढंग और नारों से छपी सफ़ेद टोपी यही बयाँ करती है, कि कुछ प्रेरणा -टी.वी.- से तो लिया ही गया है! आखिर ABP न्यूज़ चैनल की भी तो इसमें कुछ इन्वेस्टमेंट है, जो साफ़ नज़र आती है!
अमिताभ बच्चन का बेटा इंजिनियर है, जिसकी शादी अमृता राव (सुमित्रा) जो एक अल्हड़ धनवान की बहन है, से हुई है! अमित जी सच्चे पक्के दृढ निश्चयी गांधीवादी बुजुर्ग हैं! जो एक सड़क हादसे में में मारे गए अपने इंजिनियर बेटे की मौत के मातम में हैं! राज्य का मंत्री इंजिनियर साहब की मौत पर घड़ीयालु आँसू बहते हुए """पच्चीस लाख""" रुपये, मृतक के शोक संतप्त परिवार को मुआवजे में देने की घोषणा करता है! यह घोषणा मनोज बाजपेयी करते हैं जो राज्य की गठबंधन सरकार के दुसरे घटक हैं! इसी मुआवजे को वसूलने में मृतक की पत्नी अमृता राव को डिस्ट्रिक्ट कलकटेरीयेट में व्याप्त बेईमानियों से हुई फजीहत से मेरे भईया जिनका नाम -"द्वारका आनंद"- है भड़क कर जब जिला कलेक्टर के कार्यालय में जबरन घुसते हैं, तो उस वक़्त उनकी चाल the incredible and famous stride of the living legend Amitabh Bachchan और उनके उस वक़्त के तेवर हमें थोडा इत्मीनान और यकीन दिलाने की कोशिश करते हैं, कि बस्स पईस्सवा वसूल होने ही वाला है! अमित भईया की DC से गर्मा-गर्मी और झड़प होती है और वही हुआ जिसकी उम्मीद में हम हमेशा रहते हैं, भईया ने DC को झापड़ मार दिया! जेल में डाल दिए गये! विधवा बहु इसकी सूचना अपने (अजय देवगन) मानव भईया को देती है! मानव, करप्ट सिस्टम को समझता है, और अपने तरीके से मदद करना चाहता है, जो नाकाम होती है! शहर का छुटभईया नेता अर्जुन रामपाल (अर्जुन) और किसी ज़माने में अमित जी का बिगडैल विद्यार्थी भी इसमें अपने हाथ आजमाता है, पर भईया उसकी मदद लेने से मना कर देते हैं! लेकिन मानव (अजय देवगन) हार नहीं मानता, ABP NEWS की कोरेस्पौन्डेंट करीना कपूर (यस्मिन अहमद), और इंटरनेट, facebook, और कॉलेज के नौजवानों और अर्जुन की सहायता और पैसे के दम पर एक आन्दोलन खड़ा कर देता है, जिसकी गर्मी सरकार और भ्रष्ट नेता बलराम सिंह (मनोज बाजपेयी) झेल नहीं पाता! और वह DC पर दबाव डालकर भईया के खिलाफ केस वापस लेकर उन्हें रिहा कर देता है! जब उन्हें मुआवजे की रकम का चेक दिया जाता है तो वे मनाकर देते हैं! शर्त रखते हैं कि इस कल्र्कटेरियेट में जितने पेंडिंग पेटिशंस हैं, का तत्काल निपटारा किया जाय, वरना वे जन आन्दोलन करेंगे!
बस भईया का रोल ख़तम!
फिर आमारण अनशन!
इन पेटिशंस की संख्या का अनुमान भी लगाकर दिखाया गया है! अजय देवगन सुधरे शहीद हीरो बनकर आन्दोलन का हिस्सा बनते हैं! इंजिनियर की मौत का रहस्य भी खुलता है! नतीजा सिर्फ …… अब क्या बोलूं?
अमिताभ बच्चन जैसी शख्शियत का बुरा अंजाम कोई पहली बार नहीं हुआ है! एक और सही!
भईया बस एक आइकॉन की तरह दिखते रहते हैं! और लास्ट में धत्त धत्त धत्त हो जाते हैं!
फिल्म की जान किस कलाकार में है इसका पता लगाना मुश्किल है! अमिताभ बच्चन के बेमिसाल शख्शियत का प्रयोग तो ऐसा होना चाहिए जो दिलीप कुमार के साथ सुभाष घई ने "विधाता", "कर्मा" और राजकुमार दिलीप कुमार को संग लेकर "सौदागर" में किया! पर हमारे सोचने से क्या होता है, साब!!?
साफ़ और दो टूक _ यह एक फ्लॉप है! मत देखिये!
आईन्दे के लिए कान पकड़ता हूँ, जब तक भईया की जयजयकार सुन नहीं लूँगा कि उन्होंने फलाने नए फिल्म में -"गज़ब-ढा"- दिया है, उनकी नयी कोई भी फिल्म देखने नहीं जाऊँगा!
वजह ये है कि मौजूदा दौर में बॉलीवुड के किसी भी राइटर की कलम में भईया की अजिमोश्शान शख्शियत को सलाम करने का दम नहीं है!
प्रकाश झा की सत्याग्रह में कोई भी कलाकार बुरा नहीं लगा! सभी अपने अपने जगह पर जमे और कसे हुए हैं!
बस, कहानी में ही कोई दम नहीं है!
डायलॉग्स हैं ही नहीं, जो भईया की ख़ास खासियत और खासुसियत को मजबूती से स्थापित कर सके!
कुल मिलकर यह फिल्म अमिताभ के प्रशंसकों को निराश कर गई!
बस यही गनीमत जानिये कि मेरे अपने मुँह से कोई गाली नहीं निकली!
_श्री .
"बेबस है मेरी आँखें तुझे बार-बार देखने के लिए,
क्या करूँ, मुझ पर मेरा कोई जोर नहीं है !"
_अभी-अभी प्रकाश झा -निर्देशित फिल्म "सत्याग्रह" देख कर लौटा हूँ! घर में खाना लगाया जा रहा है, कि पहले खा लूँ फिर अपनी खटर-पटर करूँ! लेकिन साब जी, बिन बोले रहा नहीं जाता! अमिताभ भईया को इसमें नहीं रख के दिलीप कुमार साहब को या धर्मेन्द्र (पा - जी ) को भी रख लेते ना तो आपकी इस बहू-प्रतीक्षित फिल्म का यही हश्र होना था! अमिताभ भईया ऐसी कहानियों की फिल्मों के लिए बने ही नहीं हैं! वे अपनी मित्र-वत्सलता के कारण कोई भी नजदीकी ("नजदीकी" पे ख़ास जोर है) मित्र निर्माता-निर्देशक को इन्कार नहीं करते, और उनके करोंड़ो प्रशंसकों के मुँह से फिल्म ख़त्म होते ही जो वाणी मुखरित होती है वह हम भक्तों को नहीं भाति, फिर भी गाली सहने और खामोशी की यही वजह होती है कि उन्हें इस फिल्म में टोटली वेस्ट किया गया है! सो, सहन कर शहीद होना पड़ता है! ना जी, फिल्म ONLY ONE DAY SHOW है, जो अपना कोई मेसेज, जो इस फिल्म से प्रकाश झा देना चाहते थे, वह नाकाम रहा, नहीं दे पाये! फिल्म में कई वास्तविकताएं हैं, इससे इन्कार नहीं, लेकिन वे कोई भी जागृति को तो छोडिये मनोरंजन तक नहीं करतीं! बासी और उबाऊ लगतीं है! मनोज बाजपेयी बहुत अच्छे अभिनेता हैं, इसमें भी खूब मन लगा कर अपने किरदार को निभाया है! लेकिन अमित भईया का कद्दावर व्यक्तित्व जब धूमिल होता है, तो सब बेकार लगने लगता है! निःसंदेह यह फिल्म अन्ना हजारे से कोई ताल्लुक नहीं रखती! लेकिन मंच पर झंडा लहराने का ढंग और नारों से छपी सफ़ेद टोपी यही बयाँ करती है, कि कुछ प्रेरणा -टी.वी.- से तो लिया ही गया है! आखिर ABP न्यूज़ चैनल की भी तो इसमें कुछ इन्वेस्टमेंट है, जो साफ़ नज़र आती है!
अमिताभ बच्चन का बेटा इंजिनियर है, जिसकी शादी अमृता राव (सुमित्रा) जो एक अल्हड़ धनवान की बहन है, से हुई है! अमित जी सच्चे पक्के दृढ निश्चयी गांधीवादी बुजुर्ग हैं! जो एक सड़क हादसे में में मारे गए अपने इंजिनियर बेटे की मौत के मातम में हैं! राज्य का मंत्री इंजिनियर साहब की मौत पर घड़ीयालु आँसू बहते हुए """पच्चीस लाख""" रुपये, मृतक के शोक संतप्त परिवार को मुआवजे में देने की घोषणा करता है! यह घोषणा मनोज बाजपेयी करते हैं जो राज्य की गठबंधन सरकार के दुसरे घटक हैं! इसी मुआवजे को वसूलने में मृतक की पत्नी अमृता राव को डिस्ट्रिक्ट कलकटेरीयेट में व्याप्त बेईमानियों से हुई फजीहत से मेरे भईया जिनका नाम -"द्वारका आनंद"- है भड़क कर जब जिला कलेक्टर के कार्यालय में जबरन घुसते हैं, तो उस वक़्त उनकी चाल the incredible and famous stride of the living legend Amitabh Bachchan और उनके उस वक़्त के तेवर हमें थोडा इत्मीनान और यकीन दिलाने की कोशिश करते हैं, कि बस्स पईस्सवा वसूल होने ही वाला है! अमित भईया की DC से गर्मा-गर्मी और झड़प होती है और वही हुआ जिसकी उम्मीद में हम हमेशा रहते हैं, भईया ने DC को झापड़ मार दिया! जेल में डाल दिए गये! विधवा बहु इसकी सूचना अपने (अजय देवगन) मानव भईया को देती है! मानव, करप्ट सिस्टम को समझता है, और अपने तरीके से मदद करना चाहता है, जो नाकाम होती है! शहर का छुटभईया नेता अर्जुन रामपाल (अर्जुन) और किसी ज़माने में अमित जी का बिगडैल विद्यार्थी भी इसमें अपने हाथ आजमाता है, पर भईया उसकी मदद लेने से मना कर देते हैं! लेकिन मानव (अजय देवगन) हार नहीं मानता, ABP NEWS की कोरेस्पौन्डेंट करीना कपूर (यस्मिन अहमद), और इंटरनेट, facebook, और कॉलेज के नौजवानों और अर्जुन की सहायता और पैसे के दम पर एक आन्दोलन खड़ा कर देता है, जिसकी गर्मी सरकार और भ्रष्ट नेता बलराम सिंह (मनोज बाजपेयी) झेल नहीं पाता! और वह DC पर दबाव डालकर भईया के खिलाफ केस वापस लेकर उन्हें रिहा कर देता है! जब उन्हें मुआवजे की रकम का चेक दिया जाता है तो वे मनाकर देते हैं! शर्त रखते हैं कि इस कल्र्कटेरियेट में जितने पेंडिंग पेटिशंस हैं, का तत्काल निपटारा किया जाय, वरना वे जन आन्दोलन करेंगे!
बस भईया का रोल ख़तम!
फिर आमारण अनशन!
इन पेटिशंस की संख्या का अनुमान भी लगाकर दिखाया गया है! अजय देवगन सुधरे शहीद हीरो बनकर आन्दोलन का हिस्सा बनते हैं! इंजिनियर की मौत का रहस्य भी खुलता है! नतीजा सिर्फ …… अब क्या बोलूं?
अमिताभ बच्चन जैसी शख्शियत का बुरा अंजाम कोई पहली बार नहीं हुआ है! एक और सही!
भईया बस एक आइकॉन की तरह दिखते रहते हैं! और लास्ट में धत्त धत्त धत्त हो जाते हैं!
फिल्म की जान किस कलाकार में है इसका पता लगाना मुश्किल है! अमिताभ बच्चन के बेमिसाल शख्शियत का प्रयोग तो ऐसा होना चाहिए जो दिलीप कुमार के साथ सुभाष घई ने "विधाता", "कर्मा" और राजकुमार दिलीप कुमार को संग लेकर "सौदागर" में किया! पर हमारे सोचने से क्या होता है, साब!!?
साफ़ और दो टूक _ यह एक फ्लॉप है! मत देखिये!
आईन्दे के लिए कान पकड़ता हूँ, जब तक भईया की जयजयकार सुन नहीं लूँगा कि उन्होंने फलाने नए फिल्म में -"गज़ब-ढा"- दिया है, उनकी नयी कोई भी फिल्म देखने नहीं जाऊँगा!
वजह ये है कि मौजूदा दौर में बॉलीवुड के किसी भी राइटर की कलम में भईया की अजिमोश्शान शख्शियत को सलाम करने का दम नहीं है!
प्रकाश झा की सत्याग्रह में कोई भी कलाकार बुरा नहीं लगा! सभी अपने अपने जगह पर जमे और कसे हुए हैं!
बस, कहानी में ही कोई दम नहीं है!
डायलॉग्स हैं ही नहीं, जो भईया की ख़ास खासियत और खासुसियत को मजबूती से स्थापित कर सके!
कुल मिलकर यह फिल्म अमिताभ के प्रशंसकों को निराश कर गई!
बस यही गनीमत जानिये कि मेरे अपने मुँह से कोई गाली नहीं निकली!
_श्री .