...और प्राण!
कल, यानि आठ-अक्तूबर,२०१३(मंगलवार) मेरे छोटे पुत्र अतुल (निक नेम = लड्डू! _का जन्मदिन!!) को मेरा राँची जाना हुआ! मेरे इंसानी जिस्म को एक चिकित्सक की आवश्यकता थी! मर्ज़ का ईलाज लाजिमी होता है! लड्डू का जन्मदिन सेलिब्रेट करने के लिये उसके दोनों बड़े भाई बोकारो गए हुये हैं! दशहरा की छुट्टी में जिन्हें कल (९ नौ तारीख को राँची आना है! यूँ दोनों काम हो जाते! इलाज़ भी! परिवार मिलन भी!
मेरे जन्मभूमि-कर्मभूमि लोहरदगा से मुझे राँची जब भी जाना होता है, ...जहाँ मेरा -हमारा- अपना फ्लैट है, और जिसमे फिलहाल मेरा छोटा भाई सपरिवार रहते हैं, जो एक अंग्रेजी दवाईयों की एक फर्म के रीजनल सेल्स मैनेजर हैं, भाई कम पुत्र ज्यादा, और सबसे बड़ा मित्र और एक काबिल गार्डियन उससे भी ज्यादा, को मेरी जितनी चिंता है, शायद कभी बाबूजी को ही हुआ करती थी, जिनकी कमी इस तरह पूरी हुई, ...मैं राँची हमेशा खुद अपनी गाडी ड्राइव कर जाना ही प्रेफर करता हूँ! कारण कि, जो आवागमन का सार्वजनिक सरकारी (गैर-सरकारी बसें) साधन ट्रेन है, मैं उसमे खुद को असहज फील करता हूँ! यह काम खर्चीला तो है, पर मुझे सहना पड़ता है, जिसे राम-राम करते सहता ही हूँ! परिवार के विरोध के बावजूद सहता हूँ! जो कभी भी मुझे अकेले एक शहर से दुसरे शहर (राजधानी, राँची) ड्राइव कर जाने देने के हमेशा खिलाफ रहते हैं! फिर भी मेरी जिद्द के आगे सभी को मुझपर भरोसा कर राम-राम करते जाने देना ही पड़ता है! पर कल ऐसा हो न सका! वजह –दशहरा! षष्ठी के दिन राँची के पूजा पंडालों के सैर की योजना पूर्वनिर्धारित है! सो क्यों बेकार में यूँ इतना पेट्रोल फूंकियेगा? ट्रेन से ही जाईये! ट्रेन से ही आईये! भाईयों, लोहरदगा से राँची की ट्रेन यात्रा सुलभ और सहज है, पर जो भीड़ इस ट्रेन में दिन भर में चार बार अप-डाउन करती है, उसमें पिसना मेरे बूते से बाहर की बात है! पब्लिक को क्यूँ दोष दूं और कोसूं? मैं कौन होता हूँ इनमें मीन-मेख निकालने वाला!? बड़े-बड़े ताईकून से लेकर मामूली और निम्नस्तरीय फकीर भी तो इसीमें पिसते हैं!! जिनके पास अपनी ही बेशुमार लग्ज़री गाडी, बमय ड्राईवर है भी और नहीं भी! इस ट्रेन द्वारा रांची की दूरी महज डेढ़ घंटे में पूरी हो जाती है! लेकिन सीट लूटने की दंगल और जंग में मैं हमेशा फिसड्डी ही रहता हूँ! इसलिए यदि मजबूरन या पारिवारिक जिद्द के सामने झुककर मैं कभी जाना क़ुबूल कर भी लेता हूँ तो मुझे मेरे मंझले भाई स्वयं ले जाकर खुद लड़-भिड़कर सीट लूटकर मुझे बिठाकर टिकट देकर और मेरे संतुष्ट होने और गाडी खुलने तक स्टेशन पर खड़े मुझपर नज़र रखते हैं! उधर राँची में छोटा भाई गाड़ी के आगमन पर मुझे रिसीव करने के लिये मौजूद होता है! और लौटने के क्रम में भी यही प्रक्रिया दुहराई जाती है, जिसमे मोबाइल फोन हमेशा बजता ही रहता है! कल भी यही हुआ! एक बार ट्रेन में बैठ जाऊं और संतुष्ट हो लूं, तो इस सफ़र में बहुत ही आनंद है! सबसे बड़ी ख़ुशी ये होती है कि राँची ट्रेन-स्टेशन के व्हीलर की दूकान पर जाकर किताबें ताड़ने और खरीदने का जो नायाब मौक़ा हासिल होता है, वह, यदि कोई परेशानी हुई भी होती है तो सारे अवसाद हर लेता है! मुझे शौपिंग का शौक है! लेकिन किताब की शौपिंग में जो मज़ा है, वह और किसी भी वस्तु की खरीदारी में नहीं! हमेशा कुछ नायाब किताब हाथ में थामना जो उर्जा प्रदान करता है उसके आगे शेष उत्साह मेरे लिये हेच हैं! किताबों के बाद फिल्मों का नंबर आता है! अब आप सोचिये कि यदि कोई ऐसी किताब सहसा, बिना किसी पूर्वानुमान के आपके सामने आये जो किताब तो है ही, पर किसी फिल्म से कम नहीं, बल्कि उससे भी बढ़-चढ़कर रोचक फिल्म-सी हो!! ...और लेखन में योगदान मेरे आराध्य श्री अमिताभ बच्चन का हो, जिन्होंनें स्वयं इसमें अपनी लेखनी की स्याही खर्ची हो, और जो “प्राण साहब” को समर्पित हो तो मैं भला कीमत की परवाह करूंगा? नहीं ना! और यही हुआ! किताब खरीद ली गई!
अभी हाल ही में एक किताब पढ़ रहा था! जिसे पढ़ते समय मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि किस करवट इसे पढने से सही सूझेगा!!?? या उलटा लटक कर पढूं कि तिरछा पलटकर पढूं?? ‘घर’ से बाहर किताबों की संगत मेरी सबसे बड़ी साथी हैं, साब! इस आड़े-तिरछे के संग आँख फोड़ते मैं कुछ और ‘अच्छा’ की आस में जब व्हीलर की दूकान पर पहुंचा तो मेरी नज़रें किसी चंचल बालक की तरह अपने लिये मुफीद खिलौने की तलाश में उसकी सभी रैकों पर और सामने पसरी पड़ी मग्ज़िन्स पर फिरने लगीं!
कल, यानि आठ-अक्तूबर,२०१३(मंगलवार) मेरे छोटे पुत्र अतुल (निक नेम = लड्डू! _का जन्मदिन!!) को मेरा राँची जाना हुआ! मेरे इंसानी जिस्म को एक चिकित्सक की आवश्यकता थी! मर्ज़ का ईलाज लाजिमी होता है! लड्डू का जन्मदिन सेलिब्रेट करने के लिये उसके दोनों बड़े भाई बोकारो गए हुये हैं! दशहरा की छुट्टी में जिन्हें कल (९ नौ तारीख को राँची आना है! यूँ दोनों काम हो जाते! इलाज़ भी! परिवार मिलन भी!
मेरे जन्मभूमि-कर्मभूमि लोहरदगा से मुझे राँची जब भी जाना होता है, ...जहाँ मेरा -हमारा- अपना फ्लैट है, और जिसमे फिलहाल मेरा छोटा भाई सपरिवार रहते हैं, जो एक अंग्रेजी दवाईयों की एक फर्म के रीजनल सेल्स मैनेजर हैं, भाई कम पुत्र ज्यादा, और सबसे बड़ा मित्र और एक काबिल गार्डियन उससे भी ज्यादा, को मेरी जितनी चिंता है, शायद कभी बाबूजी को ही हुआ करती थी, जिनकी कमी इस तरह पूरी हुई, ...मैं राँची हमेशा खुद अपनी गाडी ड्राइव कर जाना ही प्रेफर करता हूँ! कारण कि, जो आवागमन का सार्वजनिक सरकारी (गैर-सरकारी बसें) साधन ट्रेन है, मैं उसमे खुद को असहज फील करता हूँ! यह काम खर्चीला तो है, पर मुझे सहना पड़ता है, जिसे राम-राम करते सहता ही हूँ! परिवार के विरोध के बावजूद सहता हूँ! जो कभी भी मुझे अकेले एक शहर से दुसरे शहर (राजधानी, राँची) ड्राइव कर जाने देने के हमेशा खिलाफ रहते हैं! फिर भी मेरी जिद्द के आगे सभी को मुझपर भरोसा कर राम-राम करते जाने देना ही पड़ता है! पर कल ऐसा हो न सका! वजह –दशहरा! षष्ठी के दिन राँची के पूजा पंडालों के सैर की योजना पूर्वनिर्धारित है! सो क्यों बेकार में यूँ इतना पेट्रोल फूंकियेगा? ट्रेन से ही जाईये! ट्रेन से ही आईये! भाईयों, लोहरदगा से राँची की ट्रेन यात्रा सुलभ और सहज है, पर जो भीड़ इस ट्रेन में दिन भर में चार बार अप-डाउन करती है, उसमें पिसना मेरे बूते से बाहर की बात है! पब्लिक को क्यूँ दोष दूं और कोसूं? मैं कौन होता हूँ इनमें मीन-मेख निकालने वाला!? बड़े-बड़े ताईकून से लेकर मामूली और निम्नस्तरीय फकीर भी तो इसीमें पिसते हैं!! जिनके पास अपनी ही बेशुमार लग्ज़री गाडी, बमय ड्राईवर है भी और नहीं भी! इस ट्रेन द्वारा रांची की दूरी महज डेढ़ घंटे में पूरी हो जाती है! लेकिन सीट लूटने की दंगल और जंग में मैं हमेशा फिसड्डी ही रहता हूँ! इसलिए यदि मजबूरन या पारिवारिक जिद्द के सामने झुककर मैं कभी जाना क़ुबूल कर भी लेता हूँ तो मुझे मेरे मंझले भाई स्वयं ले जाकर खुद लड़-भिड़कर सीट लूटकर मुझे बिठाकर टिकट देकर और मेरे संतुष्ट होने और गाडी खुलने तक स्टेशन पर खड़े मुझपर नज़र रखते हैं! उधर राँची में छोटा भाई गाड़ी के आगमन पर मुझे रिसीव करने के लिये मौजूद होता है! और लौटने के क्रम में भी यही प्रक्रिया दुहराई जाती है, जिसमे मोबाइल फोन हमेशा बजता ही रहता है! कल भी यही हुआ! एक बार ट्रेन में बैठ जाऊं और संतुष्ट हो लूं, तो इस सफ़र में बहुत ही आनंद है! सबसे बड़ी ख़ुशी ये होती है कि राँची ट्रेन-स्टेशन के व्हीलर की दूकान पर जाकर किताबें ताड़ने और खरीदने का जो नायाब मौक़ा हासिल होता है, वह, यदि कोई परेशानी हुई भी होती है तो सारे अवसाद हर लेता है! मुझे शौपिंग का शौक है! लेकिन किताब की शौपिंग में जो मज़ा है, वह और किसी भी वस्तु की खरीदारी में नहीं! हमेशा कुछ नायाब किताब हाथ में थामना जो उर्जा प्रदान करता है उसके आगे शेष उत्साह मेरे लिये हेच हैं! किताबों के बाद फिल्मों का नंबर आता है! अब आप सोचिये कि यदि कोई ऐसी किताब सहसा, बिना किसी पूर्वानुमान के आपके सामने आये जो किताब तो है ही, पर किसी फिल्म से कम नहीं, बल्कि उससे भी बढ़-चढ़कर रोचक फिल्म-सी हो!! ...और लेखन में योगदान मेरे आराध्य श्री अमिताभ बच्चन का हो, जिन्होंनें स्वयं इसमें अपनी लेखनी की स्याही खर्ची हो, और जो “प्राण साहब” को समर्पित हो तो मैं भला कीमत की परवाह करूंगा? नहीं ना! और यही हुआ! किताब खरीद ली गई!
अभी हाल ही में एक किताब पढ़ रहा था! जिसे पढ़ते समय मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि किस करवट इसे पढने से सही सूझेगा!!?? या उलटा लटक कर पढूं कि तिरछा पलटकर पढूं?? ‘घर’ से बाहर किताबों की संगत मेरी सबसे बड़ी साथी हैं, साब! इस आड़े-तिरछे के संग आँख फोड़ते मैं कुछ और ‘अच्छा’ की आस में जब व्हीलर की दूकान पर पहुंचा तो मेरी नज़रें किसी चंचल बालक की तरह अपने लिये मुफीद खिलौने की तलाश में उसकी सभी रैकों पर और सामने पसरी पड़ी मग्ज़िन्स पर फिरने लगीं!
उन्हुंह:! ना...ह:! धत्त! ...! ...!! ...!!! आयें!!??
_:“अरे वाह!!” मेरी नज़र किताबों के हुजूम में एक रैक पर ऊपर और नीचे के बीच में सैंडविच्ड इस किताब पर पड़ी! रंग लाल! लेखन सफ़ेद!! लिखा है : “...और प्राण!” मुझे फाटक से सब समझ में आ गया कि किसी मान्यवर ने मेरे प्रिय “मलंग चाचा” और दोस्त “शेरखान” को अपनी श्रद्दांजलि पेश कर दी है जो अब जन-साधारण के लिये उपलब्ध है! मैंने दुकानदार से उस किताब कि मांग की! ...कौन?...कौन?? करते उस दुकानदार को मैं अपनी ऊँगली के इशारे से इस किताब तक पहुंचाया! जिसे निकालने में बंदे को अपने जबड़े अमिताभ की तरह भींचने पड़े! आखिरकार मेरी उत्कंठा समाप्त हुई और यह किताब मेरे हाथों में थी, कि –‘जिया’- धक् से रह गया!!! लिखा है :
प्राक्कथन
_ अमिताभ बच्चन
!!!!!!!!!!!!!!!?????????????
_"कितना पैसा भईया!!!???.......!"
जो कीमत उन्होंने बोली उतने मेरी जेब में
_:“अरे वाह!!” मेरी नज़र किताबों के हुजूम में एक रैक पर ऊपर और नीचे के बीच में सैंडविच्ड इस किताब पर पड़ी! रंग लाल! लेखन सफ़ेद!! लिखा है : “...और प्राण!” मुझे फाटक से सब समझ में आ गया कि किसी मान्यवर ने मेरे प्रिय “मलंग चाचा” और दोस्त “शेरखान” को अपनी श्रद्दांजलि पेश कर दी है जो अब जन-साधारण के लिये उपलब्ध है! मैंने दुकानदार से उस किताब कि मांग की! ...कौन?...कौन?? करते उस दुकानदार को मैं अपनी ऊँगली के इशारे से इस किताब तक पहुंचाया! जिसे निकालने में बंदे को अपने जबड़े अमिताभ की तरह भींचने पड़े! आखिरकार मेरी उत्कंठा समाप्त हुई और यह किताब मेरे हाथों में थी, कि –‘जिया’- धक् से रह गया!!! लिखा है :
प्राक्कथन
_ अमिताभ बच्चन
!!!!!!!!!!!!!!!?????????????
_"कितना पैसा भईया!!!???.......!"
जो कीमत उन्होंने बोली उतने मेरी जेब में
नहीं थे! मैंने अपना बैकपैक कंधे से उतारा और सामने
बिछी मैगज़ीन्स कि चटाई पर रखकर खोला,
उसमे से पैसे निकाले
और भुगतान किया! वे मुझे छुट्टा वापस किये अपने हाथ ताने-ताने थक गए तो
टोके :"लीजिये!"
“आयें!? क्या!!?? ओह! थैंक्स!!” मैं वहीँ खड़े खड़े किताब पढने लगा था और सचमुच खो गया था! फिर संभला! किताब को हसरत भरी नज़रों से एकबार फिर निहारकर मैंने उसे बैकपैक में डाला और ‘छोटे’ को फोन लगाया! उसने मुझे स्थान बताया कि ‘उस’ जगह खड़ा रहूँ वह बस पहुँच गया है!
हम घर पहुंचे! तो गुनगुन मुझसे चिपट गयी फिर रुंवासी होकर पूछी कि "बाबुजी, कल आप मुझे स्कूल से लेने आईयेगा ना??" मैं भावुक हुए बिना नहीं रह सका! माँ को देखते उसके चरणों पड़ा! बहु ने प्रणाम किया फिर डुग्गु महाशय (यथार्थ) –‘बावा बावा’- कहते मेरी तरफ लपके! दोनों बच्चों को अपनी गोद में उठाकर उन्हें चूमते दुलारते मैं मेरे अपने कमरे में पहुंचा बच्चों को आराम से उतारकर बैकपैक को बेड पर फेंककर कपडे उतारे और हल्का होने भागा! आया तो बच्चे ‘दादी’ के पास जा चुके थे! मैंने कमल से एक पजामा माँगा तो उसने मुझे लुंगी थमा दी कि ‘मेरा पजामा आपको नहीं आएगा!’
_"यार! ये लुंगी में मैं बिलकुल भठियारा लगता हूँ!" मैं खीजा फिर यूँ ही लपेटकर बेड पर लेट गया, व्यग्रता से बैकपैक खोलकर उसमे से “आड़े-तिरछे” को दूर ------‘लेब्दा’- कर मैंने अमिताभ बच्चन की स्याही वाली और विख्यात फिल्म जर्नलिस्ट -श्रीमान ‘बन्नी रुबेन’ की किताब “...और प्राण!” को निकाला! इसका टाईटल मुझे कोई आश्चर्यजनक और अजनबी नहीं बल्कि स्वाभाविक, वांछित प्रत्याशित और सटीक लगा, क्योंकि जिस फिल्म में प्राण साहब होते हैं उसमे उनका नाम सभी कलाकारों के बाद आखिर में आना और म्यूजिक की शानदार झमाके के साथ स्क्रीन पर प्रकट होना
...and PRAN
का उभरना मेरे लिये एक स्थापित तरतीब वाली बात थी, जिसके साथ ही मैं बड़ा हुआ! मैंने किताब में गोता लगाया! जब माँ ने टोका कि :“कुछ खईबे-पियबे कि खाली किताबे पढ़त रहबे?” तब मैंने अनिच्छा से इसे छोड़ा और खाने चला गया! फिर यारों रात बीत गयी! पर प्राण नहीं निकली! प्राण प्राण में समा गयी!
इस किताब की शरुआत में अमिताभ बच्चन पहले अपनी बात कहते हैं! इनके कहने का ढंग आपको रोमांचित करेगा, भावुक करेगा और ज्ञानार्जन करेगा!
और जब किताब शुरू होती है तो प्राण खुद –मैं फिर दुहराता हूँ- प्राण साहब खुद आपसे बात कर अपनी समूची जीवन गाथा को यूँ सुनायेंगे जैसे आप और प्राण साहब के बीच और कोई मईयवा –‘आड़ा-तिरछा’- की गुंजाईश नहीं!
यह किताब १९२० से २०१३ तक के भारतीय सिनेमा का इतिहास यूँ पेश कर रहा है कि आप इसका मालिक बनकर गौरान्वित महसूस करेंगे!
सचित्र जीवन-यात्रा!
एक गौरव गाथा!
पृष्ठ संख्या ५१० !!
...और प्राण
स्वयम !
साक्षात!
सजीव!
संलग्न फ़ोटोज़ इसी किताब की हैं!
~शुभम~
_श्री.
“आयें!? क्या!!?? ओह! थैंक्स!!” मैं वहीँ खड़े खड़े किताब पढने लगा था और सचमुच खो गया था! फिर संभला! किताब को हसरत भरी नज़रों से एकबार फिर निहारकर मैंने उसे बैकपैक में डाला और ‘छोटे’ को फोन लगाया! उसने मुझे स्थान बताया कि ‘उस’ जगह खड़ा रहूँ वह बस पहुँच गया है!
हम घर पहुंचे! तो गुनगुन मुझसे चिपट गयी फिर रुंवासी होकर पूछी कि "बाबुजी, कल आप मुझे स्कूल से लेने आईयेगा ना??" मैं भावुक हुए बिना नहीं रह सका! माँ को देखते उसके चरणों पड़ा! बहु ने प्रणाम किया फिर डुग्गु महाशय (यथार्थ) –‘बावा बावा’- कहते मेरी तरफ लपके! दोनों बच्चों को अपनी गोद में उठाकर उन्हें चूमते दुलारते मैं मेरे अपने कमरे में पहुंचा बच्चों को आराम से उतारकर बैकपैक को बेड पर फेंककर कपडे उतारे और हल्का होने भागा! आया तो बच्चे ‘दादी’ के पास जा चुके थे! मैंने कमल से एक पजामा माँगा तो उसने मुझे लुंगी थमा दी कि ‘मेरा पजामा आपको नहीं आएगा!’
_"यार! ये लुंगी में मैं बिलकुल भठियारा लगता हूँ!" मैं खीजा फिर यूँ ही लपेटकर बेड पर लेट गया, व्यग्रता से बैकपैक खोलकर उसमे से “आड़े-तिरछे” को दूर ------‘लेब्दा’- कर मैंने अमिताभ बच्चन की स्याही वाली और विख्यात फिल्म जर्नलिस्ट -श्रीमान ‘बन्नी रुबेन’ की किताब “...और प्राण!” को निकाला! इसका टाईटल मुझे कोई आश्चर्यजनक और अजनबी नहीं बल्कि स्वाभाविक, वांछित प्रत्याशित और सटीक लगा, क्योंकि जिस फिल्म में प्राण साहब होते हैं उसमे उनका नाम सभी कलाकारों के बाद आखिर में आना और म्यूजिक की शानदार झमाके के साथ स्क्रीन पर प्रकट होना
...and PRAN
का उभरना मेरे लिये एक स्थापित तरतीब वाली बात थी, जिसके साथ ही मैं बड़ा हुआ! मैंने किताब में गोता लगाया! जब माँ ने टोका कि :“कुछ खईबे-पियबे कि खाली किताबे पढ़त रहबे?” तब मैंने अनिच्छा से इसे छोड़ा और खाने चला गया! फिर यारों रात बीत गयी! पर प्राण नहीं निकली! प्राण प्राण में समा गयी!
इस किताब की शरुआत में अमिताभ बच्चन पहले अपनी बात कहते हैं! इनके कहने का ढंग आपको रोमांचित करेगा, भावुक करेगा और ज्ञानार्जन करेगा!
और जब किताब शुरू होती है तो प्राण खुद –मैं फिर दुहराता हूँ- प्राण साहब खुद आपसे बात कर अपनी समूची जीवन गाथा को यूँ सुनायेंगे जैसे आप और प्राण साहब के बीच और कोई मईयवा –‘आड़ा-तिरछा’- की गुंजाईश नहीं!
यह किताब १९२० से २०१३ तक के भारतीय सिनेमा का इतिहास यूँ पेश कर रहा है कि आप इसका मालिक बनकर गौरान्वित महसूस करेंगे!
सचित्र जीवन-यात्रा!
एक गौरव गाथा!
पृष्ठ संख्या ५१० !!
...और प्राण
स्वयम !
साक्षात!
सजीव!
संलग्न फ़ोटोज़ इसी किताब की हैं!
~शुभम~
_श्री.