हमारी क्या बात करतें हैं, हुजुर?
हमने तो नामुराद फकीरों को भी तख़्त-ए-आज़म बनते देखा है!"
__ये पंक्तियाँ अभी मेरे में जेहन में स्वतः कौंधी और मैंने छाप दी! यदि यह किसी और की रचना है तो कब! कैसे!_मेरे दिमाग में आईं? _मैं नहीं जानता! और यदि इन्हें आप पहली बार पढ़ रहें हैं तो इसका रचनाकार मैं, श्रीकांत तिवारी, हूँ, जिसे किसी अदृश्य शक्ति ने लिखने को प्रेरित किया, _उस शक्ति को बारम्बार प्रणाम!! जो शायद मेरी अईया है! यह एक हकीकत है, अनर्गल प्रलाप नहीं! बाबुजी की चाकरी करके ही कितनों को साहिब-ए-जायदाद बनते आपने भी देखा है!
.......आरा, भोजपुर रोहतास, छपरा, सिवान, बलिया(UP) इत्यादि भोजपुरी भाषी क्षेत्रों के अलावे उत्तर बिहार और उत्तरप्रदेश के बिहार से सटे कई जिलों में शादी-ब्याह या अन्य उत्सवों में लौण्डा-नाच खूब प्रचलित है! इसके आयोजन के बिना आपकी बड़ी जग हंसाई होगी! होती है! हुई है! दूल्हा या दुल्हे का बाप या बाराती रूठ सकते हैं! बरात वापस तक हो सकती है! होती है! हुई है! मैंने अपने छुटपन, बचपन में ऐसे नाच और नचनियों को देखा है, जिसमें मर्द, _औरत बनकर बेहूदा, फूहड़ और भौंडा नाच पेश कर वाहवाहियाँ और ईनाम-इकराम वसूलते हैं! इनके लिए स्पेशल शामियाना और रहने-खाने और सजने-संवरने के तम्बू होते हैं! इसमें फिर उस नाच की तो बात ही क्या जिसमे साक्षात् एक लौण्डी नाचती है! इन नाचों को देखने के लिए भोजपुरी भाई लोग कोसों, मीलों दूर से आते हैं! नचनियों पर पैसों की बौछार करते हैं! आयोजक और विशिष्ट अतिथि, कोई नेता छाप गुंडा, या गुंडा छाप नेता, या जमींदार साहब, बाबु-साहब अग्रिम पंक्तियों में सिंहासनारुढ़ होकर मदिरा और पान का आनंद लेते हुए नाच देखते हैं! कई माननीय तो लौंडियों को रखैल रखने की चाहत पूरी करके ही मानते हैं! यह भी -दुर्भिक्ष- का ही एक छद्म वेष है, साब जी! राजकपूर साहब की फिल्म "तीसरी कसम" इसी विषय पर आधारित है! कोमल मानवीय भावनाओं, सहज और सरल हास्य से भरपूर यह फिल्म तो अच्छी है ही, इस फिल्म के गाने भी बड़े कर्णप्रिय और काफी मशहूर हैं!
१. दुनियां बनाने वाले, क्या तेरे मन में समाई, तूने, काहे को दुनियां बनाई
२. सजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है
३. चलत मुसाफिर मोह लिया रे, पिंजरे वाली मुनियाँ
४. पान खाय सईयाँ हमारो, सांवली सूरतिया होठ लाल लाल, अय-हय मलमल का कुरता`ह:
_मैं इस फिल्म को मेरे साथ देखने के लिए आपको आमंत्रित करता हूँ!
_तोंहों आईहे, रे!
_क्योंकि, लाले दी जान! मुझे फिर फिल्म देखने का मन कर रहा है!.......
........-दुर्भिक्ष- को यह बात बड़ी निराश और मायूस कर गई कि ना ही बाबुजी ने, ना ही उनके किन्हीं बेटों ने, और ना ही उनके किन्हीं दामादों ने इस लौण्डा नाच की रवायत को कुबूल किया! पर इसके दीवानों को हमने बौराते हुए देखा जरूर है! इनमें बाबुजी के ही कई रिश्तेदार हैं, जिन्हें यह नाच का शौक अभी भी है! जिससे हमें कोई सरोकार और मतलब नहीं! लेकिन हमारे बॉलीवुड को इससे खूब खूब खूब मतलब और लगाव है! फिल्मों के आईटम सॉंग इसी बेहुदेपन के आधुनिक रूप हैं, जिनमे से कोई अच्छा मनोरंजन है, तो कोई भारी शर्मिंदगी! भोजपुरी भाषा की कुछ चुनिन्दा फ़िल्में ही तारीफ के काबिल हैं, बाकी गटरल गार्बेज! -दुर्भिक्ष- की यही मंशा है कि उससे बचने के लिए कोई भी समझौता कर लो, तो वह नहीं सताएगा! अब यह तो हम इंसानों पर निर्भर करता है कि हम अपनी आत्मा शैतान के पास गिरवी रखने को राजी हैं या रामप्यारे तिवारी जी बनकर एक स्वाभिमान युक्त गरिमामय इतिहास रचना चाहते हैं!?? साब जी, यदि रच नहीं सकते तो इतना तो अपने लिए कर ही सकते हैं ना, कि प्राण छूटने से पहले शर्मिंदगी से ही न मर जाएँ!?? हर होली में राय साहब के दरबार में होने वाले नाच-गान से इसकी कोई तुलना हो ही नहीं सकती! ऐसे तुलनात्मक गुस्ताखी की सोचना भी मत्त! ताकीद रहे!
*_पेश है, मेरे बाबुजी की तितली मूँछ!! और एक ऐतिहासिक फोटो, जिसमे मेरी अईया(तेजवंती देवी), बालिका उर्मिला(दीदी) मेरे बाबूजी, चेरिया के साथ हैं! चेरिया अब बूढी हो चुकी है, पर इसके वही बिंदास रंग-ढंग और बोली और हमारे माता पिता के प्रति वही समर्पण और सम्मान की भावना जिंदा है! जो, खेद है बॉस, कि आपमें इसका सर्वदा अभाव है, और 'आप'-अभावग्रस्त तो इन फकीरों से भी गरीब हैं! खुश रहने की कोशिश कीजिये, थोड़ा हँसना-मुस्काना भी सीख लीजिये! शायद बुढ़ापा सहन कर सकें! खिन्न रहते, खिन्न ही जीते आपकी मुखाकृति ऐसी बदल गई है, जैसे जन्म से ही थोबड़ा लकवाग्रस्त हो! अपनी शक्ल एक बार आईने में देखिये आपको -दुर्भिक्ष- का चमचा आपकी आँखों में झांकता नज़र आयेगा!
इस इमेज को क्लिक कीजिये और फोटो को बड़ी करके देखिये! इसकी ओरिजिनल फोटो की रिजोल्यूशन बहुत बड़ी है! अपलोड होने बहुत समय लगने लगा, इसीलिए इसे एडिट कर कदरन छोटा कर के यहाँ ऐड किया है! इस फोटो की उम्र का कोई अंदाजा लगाईये! उर्मिला दीदी का जन्म १९५१ में हुआ है! यह फोटो उर्मिला दीदी के पास सुरक्षित है, जिसकी फोटो और विडियो मैंने बनाई है!
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*_"घुघुआ मामा उपजे धाना।
घुघुआ मामा उपजे धाना,
पुरानी भीती गीरेला,
नई भीती उठेला।
सम्हरीये गे बुढ़िया
अपन थरिया, कपार !!!
ए गिरल! गिरल!!
गिरल!! गिरल!!!
धडाम!_"*
{भीती = भीत = दीवार}
_यह बोल उस प्यार के हैं जिसमें माँ, पिता, बहन, भाई सभी समाये हैं! अपनी संतानों के लाड़-प्यार के इस खेल में सबने इसे खेला और गाया है। इसमें माँ या पिता या बड़े भाई बहन अपने नन्हे मुन्ने या मुनियां को, लेट कर अपने घुटने मोड़कर, बच्चे को अपने पैर पर घुड़सवार जैसा बिठा कर अपनी पीठ के बल झूला झुलाते हुए इसे गाते हैं, जिसमे "धडाम!" बोलकर बच्चे को बिना चोट पहुँचाये यूँ गिराते और गुदगुदाते हैं कि वह खल खल खल खल खूब हँसते हुए फिर से सवारी करने की फरमाईश करते हैं, जिसे पूरा करने में सचमुच खूब मजा आता हैं!
और यह खेल भी मुझे बाबुजी ने मुझे खूब खेलाया है!
_बाबुजी की गैर मौजूदगी में दिल बहुत रोता है! मात्र २७ वर्षों का ही साथ रहा हमारा! मेरी गोद में ही इनके प्राण निकलते और साक्षात् एक मानव को मरते देखते हुए, इनके पार्थिव शरीर को अपनी गोद में लिए, उनके दुलारे प्यारे गुलगुले शरीर को अकड़ कर पत्थर बनते देखेते हुए, नंगी कठोर ज़मीन पर एक चादर पे इस शरीर को लेटे देखते हुए, इनके मृत शरीर के मुँह में तुलसी संग गंगा जल टपकाते हुए, इनकी अर्थी को कन्धा देते हुए, चिता पर लिटाते हुए, और इन्हें मुखाग्नि देते हुए न मैं कभी रोया न किसी ने मुझे रोते देखा!! _क्यों? क्या इसलिए कि मैं एक पत्थरदिल इंसान हूँ? मैं इस सवाल का क्या जबाब दूँ, साब? आप खुद ही विचार कर कुछ कह लीजिये, समझ लीजिये!
_मैं तो सिर्फ यही सोचता हूँ कि :"क्यों मर जाते है ऐसे प्यारे प्यारे रामप्यारे??"
_और ऐसे अन्नदाता, आश्रयदाता के बालकों का आश्रय दुनिया वाले छीनने की हिमाकत कर उसे न्याय कैसे कह सकते हैं??
_फैसले पर मेरी सहमती पर मेरी पीठ ठोककर मुझे शाबाशी देकर मुझे "अपने बाप की सच्ची औलाद!" की संज्ञा से सम्मानित और विभूषित किया गया!
_लेकिन मेरी माँ की नज़रों में मैं आज भी एक पराजित गुनाहगार हूँ!
_आज भी एक पापी हूँ!
_आज भी एक कायर हूँ!
_यह वही माँ है साब जी, जिसे 'रमवा' -"माई"- पुकारते नहीं अघाता था! यह वही माँ है जो राजेसर, संकर, रमवा, चमेल, शव, जानकी, लल्लू, और मल्लू (='चुसके आम') के साथ-साथ इनकी पाँचो जनानियों को और आपको और आपके बापजी को भी अपने यहाँ अपने हाथ से बनाकर खाना खिलाती रही! बिसू बाबु से मुफ्त की ईलाज मुहैया करवाती रही! राम जी के ''पुर्जे'' से मुफ्त की दवाईयाँ मुहैया करवाती रही! इसी देवी माँ ने संकरा की जनानी, चिंतवा को, मौत के मुँह से निकाल कर स्वस्थ सकुशल खड़ा कर दिया! इसी के दिए फेराडॉल और च्यवनप्राश के अनगिनत पेटियां की पेटियां चाटकर 'शव' से 'शिव' बने! _क्या इसीलिए कि इस औरत को बेघर कर सको?? और साब जी, आपके औलादों के जन्म अपनी सुरक्षा और देख-रेख में करवाती रही! कभी कोई शिकायत नहीं, कोई माँग नहीं! राम जी की यह विधवा आप निरंकुश और नमकहराम से सवाल पूछती है, यदि सच्चे पक्के मर्द और अपने बाप की -ही- (पडोसी की नहीं) पैदाईश हो तो जबाब दो!:
_रामप्यारे तिवारी की विधवा को घर क्यों न दिया?
_रामप्यारे तिवारी की असली वारिस और उत्तराधिकारी उनकी विधवा कलावती देवी है, ना कि श्रीकांत, शशिकांत और न कमलकांत!
_तुम जैसे लोगों की वजह से ही -दुर्भिक्ष- का साम्राज्य पनपता है!
_सिर्फ भारत ही नहीं, सिर्फ हम ही नहीं, पूरी की पूरी मानवता के असली शत्रु और सबकी दुर्भिक्षावस्था के असली कारण अकेले सिर्फ तुम जैसे प्रेत ही हो! जिसको दुनियां बिगडैल, बेलाग, बेलगाम, बेहूदा, बेलिहाज़, बेईमान, बदतमीज़, बुरा, बदनाम, बेरहम, बेगैरत जैसे शब्दों से नवाज़ती रहेगी!
_बहुत बड़ी गलती की भगवान ने जो कटोरे की जगह तुम्हारे हाथ में कलम थमा दी! और तुम खुद को ही खुदा समझ बैठे, आज भी घमंड में फूले हुए हो, _यही मेरे लिए तसल्ली की बात है, कि पंचर तो तुममे भी किया जा सकता है, हवा तुम्हारी भी खिसक सकती है, खिसकाई जा सकती है! पर तुम्हें तो अपनी आँखों से गल-सड़कर मरते देखेने के तम्मनाई हैं बॉस, सो जल्दी मत मरना! पहले सड़ना! फिर गलना! फिर बाद प्रार्थना करना कि मर सको! उस वक़्त कोई रोवेगा तो सिर्फ कुत्ते और भेड़िये!
_और हमलोग घी के चिराग जलायेंगे!
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*_बाबूजी ने अपनी छोटी बेटी "राजकुमारी" का ब्याह सिवान जिले के घरथौलिया ग्राम के शिक्षक श्री विश्वम्भरनाथ जी शुक्ला के जयेष्ट सुपुत्र "श्री दिनेशचन्द्र जी शुक्ला" के साथ १९७९ में सुसंपन्न किया! यही एक बेटी की शादी बाबुजी ने लोहरदगा से संपन्न की! इसके निमित्त तिलकोत्सव में काफी लोग शामिल हुए थे! यह तिलक भी मैंने ही चढ़ाया! इसमें सम्मिलित लोगों में मुरारी मामा, मैं और लोहरदगा से ललन पंडित जी गए थे! गाँव का वृहद् समाज, प्रयाग जीजाजी, मदन जीजाजी वगैरह ने हमें पटना में ज्वाइन किया! उस समय गाँधी सेतु का कोई वजूद नहीं था! पटना के "महेन्द्रू घाट" से स्टीमर द्वारा हमारी _सेना_ गंगा जी को पारकर "पहलेजा घाट" पर उतरी! फिर वहाँ से ट्रेन द्वारा हम सिवान पहुंचे! मुझे बहुत ही रोमांच हो रहा था कि रेल गाडी पर चढूँगा! उन दिनों रेलवे की पटरी की चौंड़ाई तीन "गेज़" की होतीं थी!
ब्रॉड गेज़ = बड़ी लाईन!
मीटर गेज़ = मंझली लाईन!
और स्माल गेज़ = छोटी लाईन!
इस बार हमारी ट्रेन "मीटर गेज़" की थी! और भीड़ और धक्कम धक्का तो पूछिये मत्त! हमारे दल के 'बल' ने ट्रेन में जगह "लूटी" और हम विराजमान भये! मुझे बोगी के फर्श पर बाबुजी की बेडिंग खोलकर डाल दिया गया! मुरारी मामा बानर की तरह एक उपरी बर्थ पर दर्जनों जनता जनार्दन के साथ लटक कर एडजस्ट हो गए! यह जाड़े का मौसम था! मुरारी मामा ने हँसते हुए मुझसे पूछा :"का सीरीकान्त, मजा आवतआ नूँ? ही ही ही ही ही! बड़ी, रेलगाड़ी में चढ़े खाति तकतकाईल रहअ! हे हे हे हे हे!!" बाबुजी को उनके भक्तों ने किसी तरह विराजमान कर दिया था! प्रयाग जीजाजी इस माहौल को अपनी हंसी और चुटीले मजाकों से मस्त-मस्ती में बदल चुके थे! हमें आज भी उनकी "मिमिक्री" याद है! और सचमुच बहुत मजा आया! सिवान स्टेशन पर उतर कर हमने प्लेटफ़ॉर्म के एक कदरन साफ़ स्थान पर अपना मुकाम बनाया! बाबुजी की योजना अनुसार शुक्ला जी का कोई आदमी हमें इस स्टेशन पर रिसीव करने वाला था, जो हमें हमारे ठहरने के स्थान पर लिवा जाता! जो अभी तक तो नदारद था! उसके आने तक बाबुजी इतने व्यग्र व्याकुल और इतने चिंतित हो गए कि मुझे भी चिंता होने लगी कि कहीं हम नेपाल में तो नहीं घुस गए! पर जब वह व्यक्ति आये तो उनके खोजने के अंदाज़ से लगा जैसे वे आपदा ग्रस्त शरणार्थियों में अपने -अपनों- को बहुत ही शिद्दत और यत्न से तलाश रहे हों, जिनकी उन्हें कोई पहचान ही नहीं है!! बड़ी ही मुश्किल से उन राहतकर्मी हुजुरजी ने हमें; और बाबुजी ने उन्हें पहचाना! हंसी तब और मुखर हो गई जब पता चला कि ये श्रीमान इसी प्लेटफ़ॉर्म पर हमें घंटों से खोज रहे थे! चुपचाप!! बाबुजी की झल्लाहट भरी वाणी के शोर में "शुक्ला जी" शब्द सुनकर उन्होंनें हमसे पूछा :"लोहरदगा से आईल 'तिलकहरु' लोगिन अपनेहीं सभे हईं का?"
_"हाँ हाँ हाँ!!!" बाबुजी व्यग्रता से बोले।
......तब सबको चैन आया! वे हमें स्टेशन से निकाल कर शहर के एक पक्के मकान में ले गए! और हमारे ठहरने की व्यवस्था दिखाई, समझाई और बड़े ही गर्व से बोले :"ये हमारे _"षिष्या"_ का मकान है!"
"दुर्र रेह:!" _मैंने समझा था कि यही राजकुमारी दीदी का भवितव्य ससुलाल है! बाद में हमें पता चला कि ये -गुरुघंटाल- दरअसल तोताराम जी हैं! "सुग्गा पंडित !!" वे जो हाट बाज़ारों में सड़क के किनारे बैठकर अपने ट्रेंड तोते की सहायता से आपका भविष्य बांचते हैं!! प्रयाग जीजाजी को अनायास ही एक और चुटीला प्रसंग मिल गया! दिन में इसी मकान में रेस्ट किया गया! शाम को हम एक भाड़े की जीप से "घरर्थौलिया" गए! ज़ाहिर है कि भाड़ा बाबुजी ने भरा! और बाबुजी ने मेरे द्वारा ही इस तिलकोत्सव को भी संपन्न करवाया! रात्रि भोजन और शयन वहीँ हुआ! दिन के भोज में एक ज़नाब जिलेबी चला रहे थे! उनके चलाने, देने और बोलने का बेढब ढंग याद कर आज भी मुरारी मामा खूब हँसते हैं! वे किसी के भी पत्तल में जिलेबी दिए बिना :"दिहीं? दिहीं? दिहीं? दिहीं?" _करते पार हो गए! जब वे सेकेंड राउंड भी इसी तरह लगा रहे थे, तब मुरारी मामा ने झल्ला कर कहा :"अरे, द ना महाराज! _कि खाली पुछबे करबअ?" तब सबको जिलेबी नसीब हुई! रामध्यान सिंह जी सब्जी नहीं खा रहे थे, तो बाबुजी ने उन्हें टोका कि,: "तरकरिया खात काहे नईखअ?"
_"बेई, बड़ी तींत बा! खियाआ ता कि खाईं?" रामध्यान चाचा ने -"सिसिया"- कर कहा!
_" त, धो-धो के खा!" बाबुजी ने बड़े आराम से मासूमियत और भोलेपन से कहा! जिसे सुनकर समस्त समुदाय ने जो जमकर अट्टाहास किया, वह आज भी गूंजती प्रतीत होती है!
_इस तिलकोत्सव से लौटते समय वृद्ध ललन पंडित जी की तबीयत काफी बिगड़ गई थी! बाबुजी ने जब ललन पंडित जी को उनके लोहरदगा आवास पर उनके परिवार के पास सकुशल पहुँचा दिया, तब इनकी स्वयम की अवस्था भी सामान्य हुई! फिर मिडल स्कूल के पास शिवबाबु-परिवार के बड़ा गेस्टहाउस से राजकुमारी दीदी का विवाह हुआ! जहाँ -दुर्भिक्ष- जैसे स्वयं दहेज़ के दानवी रूप में प्रकट हुआ और "सकता-सा" छा गया! शादी की अगली सुबह समधी मिलन के बाद, मड़वा (मण्डप) में दूल्हा अपने पिता, भ्राता और अन्य सगे-सम्बन्धियों के साथ भोजन कर स्वयं प्रतिष्ठित होते हैं, और वधु पक्ष को प्रसन्न और कृतार्थ करते हैं! पर जो हुआ उसे जग जानता है! दूल्हा रूठ गया! भोजन करने से इन्कार कर दिया! दूल्हा जब अपना पहला निवाला खाता है, तभी शेष बाराती भी खाना शुरू करते हैं! भोजन रुक गया! बाबुजी दौड़े-दौड़े आये! :
_"का भाईल, का भाईल, खात काहे नईखीं?"
_"पहिले दूल्हा के डिमांड सुनीं, पूरा करीं, तब्बे भोजन होई!" उनकी तरफ के एक महाशय ने फरमाया!
सन्नाटा!
सैंकड़ों लोगों को जैसे लकवा मार गया हो!
सन्नाटा!!
जैसे सभी सन्निपात से ग्रसित हो गए हों!
सन्नाटा!!!
मेरे बाबुजी को मैंने व्यथित, विचलित, व्यग्र, व्याकुल, बेचैन, बेसहारा और बेचारा बना हुआ देखा! मेरे बाबुजी ने इस -दुर्भिक्ष- की भूखी जठराग्नि में दुल्हे की मनोवांछित वस्तु की आहुति डाली! जबकि डिमांडेड मोटर-साइकिल "YEZDI" की या उसके उस वक़्त के कीमत की पूर्ती बाबुजी की सीमित आय और हैसियत से बाहर की बात थी!! बाबुजी एक घंटे तक "दामाद जी" को मनाते-मनाते हार गए! गाँव-घर और लोहरदगा के हमारे मुअज्ज़िज़ मेहमान और सैंकड़ों तमाशबीन से लोग देखते रह गए! फिर दृढ़ निश्चयी होकर, असहाय, लाचार, विवश और बेचारे-रामप्यारे, मेरे बाबुजी छाती तानकर वचनबद्ध हुये; तब भोजन कर "उन्होंनें" हम पर एहसान किया! श्रीमान उदय बाबु ने सब संभाल लिया, और बाबुजी ने अपना वचन पूरा किया!......
_यह 'हीरो' मेरे बाबुजी रामप्यारे तिवारी जी ही हैं, जो एक नामालूम गाँव में अनाथ जन्मे! अनाथ पले बढ़े! अनाथ आगे बढ़े! अनाथ खेले-कूदे! अनाथ पढ़े-लिखे! अनाथ रोजी ढूंढी! अनाथ ही लुट गए और दुर्भिक्षावस्था में गुमनामी में खो गए! जो जब फिर प्रकट हुए तो एक महामानव थे! सुपरह्युमन Superhuman थे! जो दुश्मनों के भी दोस्त थे! जिनके अनाथ बच्चों की बोटियाँ तुम दुर्भिक्षों ने मिलकर लूटी! और हम लुटकर भी सुसम्पन्न रहे, यह उन्हीं महामानव का आशीर्वाद है! प्रयाग जीजाजी १०० % सही हैं! निःसंदेह हम हीरो हैं! निःसंदेह हमने महादान किया है! वह कृतज्ञ हो या कोई सडा हुआ कृतघ्न, _कोई माई का लाल यह कहने की शक्ति नहीं रखता कि उसने -हमें- कुछ दिया है! बल्कि -हमने उन्हें- सबकुछ दिया है!.......
*_रामप्यारे तिवारी जी के पाँच भतीजों की
पाँच प्रकार की बहुएँ, इनकी पाँच बेटियों और एक भतीजी की शादी से छह प्रकार
के दामाद कुल मिलाकर ग्यारह घराने से जुड़कर बाबुजी का अपना ही परिवार एक
व्यापक समाज और समुदाय बन चुका था! जिसकी गरिमा बाबुजी की उपस्थिति से ही
सुशोभित होती थी! बाबूजी बिहार में अपने समाज के एक बेहद मजबूत आधार स्तम्भ
थे! सामाजिक जानकारियों के एक मानद, ज्ञानी और जानकार, a living
Encyclopedia! जिनके भतीजों की संतानों की शादी का वक़्त भी करीब आने लगा! स्व० राजेश्वर भईया के प्रथम पुत्र भुवनेश्वर की नौकरी HEC धुर्वा (राँची) में ही, राजेश्वर भईया के स्थान पर, अनुकम्पा के आधार पर हो गई, और बाबुजी की आत्मा प्रसन्न हुई!
बाबुजी को अपने समाज के बारे में समस्त जानकारी समाज में ही रहने, और अपने समाज में, अपने समुदाय में, अपने ही ग्यारह परिवारों में लगातार जुड़े रहने और घूमने और मिलते रहने से प्राप्त हुई! सोचिये, १९६२ से लेकर १९७९ तक लगातार शादी-ब्याह के सिलसिले में १६ वर्षों की अथक यात्रा और कठिन श्रम से हासिल इनकी जानकारी कितनी व्यापक होगी!!? इसी के वजह से इनसे सलाह मशवरा और इनके विचार जानने को उत्सुक कौन नहीं होगा? जानकारी भी एक विद्या है, एक सम्पत्ति है, एक ताक़त है, जिसके पास ज्ञान और जानकारी होती है वह बिना धन के ही धनवान होता है! बौधिक, वैचारिक और व्यवहारिक रूप से सदा उसकी समृद्धि कायम रहती है! और ऐसे महापुरुष, युगपुरुष होते हैं! निःसंदेह मेरे बाबुजी एक महान युगपुरुष हैं, और सदैव हमारे लिए वन्दनीय हैं!! बाबुजी सिर्फ अपने ग्यारह संबंधो में ही सिमटे नहीं रहे, समाज, गाँव-जवार के और भी अनेक लोगों से उनका सम्बन्ध एक मैत्री की तरह बड़े व्यापक रूप में फैला, और सभी एक दुसरे से प्रेम भाईचारा और परस्पर सहयोग से और समृद्ध हुए! _कृपया, 'समृद्ध' शब्द को धन रुपया पैसा जायदाद नहीं समझें! फिर भी आपकी "खोटी-अक्कल" यही कहती है तो कटोरा लेकर आओ, कुछ भीख ले जाओ! बाबूजी का दिया इतना तो है ही कि तुम दुष्ट -दुर्भिक्ष- को आईना दिखाते एक साँझ खिला सकते हैं!
बाबुजी राय साहब के परिवार के समस्त सदस्यों के बीच एक सम्मानित और मान्यवर महोदय थे! बाबुजी राय साहब के कारोबार के समस्त प्रतिष्ठानों के हरेक कर्मियों के बीच एक सम्मानित और मान्यवर महोदय थे! बाबूजी मजदूर वर्ग के लोगों के बीच एक सम्मानित और मान्यवर महोदय थे! बाबुजी अपने गाँव-जवार से लेकर लोहरदगा शहर के एक सम्मानित और मान्यवर महोदय थे! बाबुजी शहर के बुद्धिजीवी वर्ग के मध्य एक सम्मानित और मान्यवर महोदय थे! बाबुजी मुजफ्फरपुर, नालंदा (बिहारशरीफ), भोजपुर, रोहतास, सिवान, गया और बिहार के और कई जिलों में फैले अपने सम्न्धों और सम्बन्धियों के बीच एक सम्मानित और मान्यवर महोदय थे! बाबुजी आम जनों के बीच एक सम्मानित और मान्यवर महोदय थे! बाबुजी का पूरा जीवन प्रेरणास्पद और अनुकरणीय है। इसे भूलना, भारी भूल होगी। नहीं, हम इन्हें कभी नहीं भूलेंगे! और इनके आदर्शों को अपने जीवन में उतारने और उनके गुणों का अनुकरण करने का भरपूर प्रयास करेंगे! बाबुजी ने स्थापित कर दिखाया कि बेटियाँ बेटों से भी बढ़कर पितृभक्त और सहयोगी होती हैं!
*_बेटियाँ~
हैं समस्या बेटे गर, समाधान है बेटियाँ!
तपती धुप में जैसे, ठंडी छाँव हैं बेटियाँ !!
होकर भी धन पराया, है सच्चा धन अपना,
दिखावे की दुनियां में, गुप्तदान हैं बेटियाँ!!
अपनी बदहाली की, कीं सबने बहुत चर्चाएँ!
हैं ढापति कमियों को, मेहरबान हैं बेटियाँ!!
तनाव भरी गृहस्थी में, है चारों ओर तनाव!
व्यंग्यबाणों के बीच, जैसे ढाल हैं बेटियाँ!!
हैं दूर वे हम सबसे, है फिक्र उन्हें हमारी!
करतीं दुआयें हरदम, खैरख्वाह हैं बेटियाँ!!
है बेटा कुलदीपक, घर ये रौशन जिससे,
दो घर जिनसे रौशन, आफताब हैं बेटियाँ!!
हैं लोग वे ज़ल्लाद, जो ख़त्म उन्हें हैं करते!
टिका जिनपे परिवार, वह बुनियाद हैं बेटियाँ!!
मांगतीं हैं मन्नत, बेटों की खातिर दुनिया!
श्रीकांत की नज़र में, महान हैं देश की बेटियाँ!! …और ऐसे ही प्यारे प्यारे , मेरे बाबुजी, की कीर्ति को तुमने आकस्मिक मौत की सजा दी, तो अपने गुनाहों की सजा भोगे बिना तुम कैसे चले जाओगे रे, -दुर्भिक्ष-!!???
[यह कविता मेरी रचना नहीं है, मैं नहीं जानता इसके रचनाकार कवि कौन हैं! मेरे ब्लॉग के पिछले पन्नों में भी इसका ज़िक्र है और उस थैले की तस्वीर भी है, जिसपर यह छपी हुई सड़क पर उड़ती फिरती मुझे मिली थी!_श्री.]
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*_अब तक अमित जी की -"डॉन"- रिलीज़ हो चुकी थी!
भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी को इन्हीं दिनों मैंने
देखा, जिन्हें राँची एअरपोर्ट से रिसीव कर हमारे शिव बाबु खुद जीप ड्राइव
करते राँची की सडकों पर से गुजरे तो उस जयजयकार में शिव बाबु के नाम की
गूँज भी शामिल थी! इंदिरा जी को देख कर मैं बहुत हैरान हुआ! "कैसे कोई
इंसान इतना प्रतापी हो सकता है, जिसे आभामंडल को देखकर लगे कि उसके शरीर से ज्योति और
दिव्य प्रकाश की रश्मियाँ फूटती प्रतीत होती हों? प्रमाण मेरे सामने था! भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी! शिव बाबु के साथ चाय पीती हुईं!
*_और इसी साल मैंने बाबुजी के साथ मैंने पहली बार अमित जी की -"ज़ंजीर"- देखि! ऐसा लगा जैसे मेरा नया जनम हुआ है! और अभी तो मुझे बड़ा होना है, फिर इंस्पेक्टर बनने के लिए तो अभी और भी कई फ़िल्में देखनी पड़ेंगी! फिर शायद हो सकता है मैं एक कामयाब और सुधरा हुआ स्मगलर ही बन जाऊं! यह भी हमारी हिंदी फिल्मों में अज़ब क्राईम की गज़ब कहानी है कि, मुफलिस फकीर हीरो 'स्मगलर' बनता है, स्मगलिंग से ही उसकी रईसी, आन-बान और शान है, जो लास्ट में क़ानून पर ऐहसान करते हुए गिरफ्तार होता है, लेकिन उसकी क्रिमिनल लाईफ में क्राईम से ही लूट कर कमाई हुई काली दौलत को कभी ज़ब्त नहीं किया जाता, जो अगली सीन में ही १०-बीस साल बाद उतना ही नौजवान सेंट्रल-जेल से बाहर आकर हँसते हुए सबसे गले मिलकर अपने क्राईम से "कमाई" धन-दौलत से ऐश करने को आज़ाद हो जाता है! वाह! फिर कोई क्यों नहीं चाहेगा कि बॉलीवुड हीरो`ज़ समान स्मगलर बना जाय!!?? यह बिगडैल बॉलीवुड कभी नहीं सुधरेगा।
पर, अमित जी (मेरा -विजय- भ्रा!!) की तो बात और छटा ही निराली है! ...मेरी चाल-ढाल, मेरे रंग-ढंग, मेरे तौर-तरीके, मेरे बोलने का अंदाज़ और अंदाजेबयां, मेरे हेयर स्टाइल में -विजय- अभी भी नवयुवक है! और रहेगा, आई मीन = "रह्तऊ!!"; तुमको अगर गुस्सा आ रहा है, सेठ, तो अपना कलेजा भून कर खाओ न, बाप!! मांय कसम बड़ी टेस्टी लगतऊ!! नून दियउ? यार, मुझे फिर फिल्म देखने का मन कर रहा है! मेरी फिल्मों और उपन्यासों की लाइब्ररी यदि ये -दुर्भिक्ष- के दल्ले देख भी लें ना, तो "शशि वाला" -घीव- खा के मर जाएँ!
_मरें सार!
*_ज़ंजीर और डॉन के गाने और म्यूजिक की फैंटेसी का जादू अभी भी मेरे सर चढ़कर बोलता है! कल्याणजी आनंद जी द्वारा इन दोनों फिल्मों में क्रियेट किये गए म्यूजिकल बैकग्राउंड को जरा एक बार मेरे साथ देखिये; आपको लगेगा कि इन फिल्मों को आप पहली बार देख रहे हैं! अकोर्डियन पियानो की एक आवाज़ से सीन और संवाद (Scene and the Dialogues) को जिस खूबसूरती से कल्याणजी-आनंद जी ने रेखांकित किया है, उसे फील करने के लिए अमिताभ या श्रीकांत बनना बहुत जरूरी है! वो एक ख़ास ट्यून है, जो वे अकोर्डियन पियानो से ही -शायद- पैदा करते थे! फिल्म खून-पसीना में भी यही जादू है! उसे शब्दों में कैसे लिखूं समझ में नहीं आ रहा, वो आवाज़ यूँ सुनाई देता है, ~ "ह्युम्वाआआआआआ…!" या (Hyum हटा के)सिर्फ ~ "वाआआआआ…!" ज़ंजीर और डॉन और खून-पसीना के अलावे दूसरी फिल्मों में भी ये आवाजें यह प्रूफ है कि इसके म्यूजिक डायरेक्टर कल्याणजी-आनंदजी ही हैं! खून-पसीना देखने की भी एक कहानी है। बाबुजी ने मुरारी मामा को राँची में कोई काम सौंप कर भेजा तो मैं उनके साथ लसूड़े की तरह चिपक गया! मामू भी खुश और मैं भी खुश! हमारी यही संयुक्त योजना थी कि खून-पसीना किसी शर्त में नहीं छोड़ना है, पर मुरारी मामा बाबुजी की नाहक नाराजगी मोल लेना भी नहीं चाहते थे, अतः सशर्त :
"डन!?"
"हाँ,डन!!!"
हम रांची गए पर गाड़ी ने जिस टाईम पे हमें रांची पहुँचाया वह न नून शो का वक़्त था, न मैटिनी शो का! इवनिंग शो संभव ही नहीं था क्योंकि वापस भी तो लौटना था! मेरी खुराफाती खोंपड़ी में एक योजना आई! काश कि आइन्स्टाइन सर मेरे साथ बगल में होते! E=mc2(ई इज़ इक्वल टू एम् सी स्क्वायर) की खोज में मेरा नाम भी शुमार हो जाता! मैंने मुरारी मामा को बताया कि विनोद और चिंता दीदी के पापा (१९७५ में लोहरदगा में पदस्थापित छोटे दारोगा साहब {के पुत्र और पुत्री}, जिनका आवास हमारे थाना टोली के आवास के बिलकुल सामने है, और पीले चूने से पुता हुआ है, जिसकी मात्र एक टूटी खिड़की ही इस तरफ है!!) _का ट्रन्स्फ़र राँची सदर थाना में हुआ है, उनके पास चलें -सिर्फ विनोद से मिलने, चिंता दीदी से मिलने, बस!- मामू को शक हुआ कि छौंड़ा, कोई अपन खुराफात के फेरा में हई! मैंने कसम खाई की सिर्फ विनोद से मिलना भर है! बाबूजी को खबर है! बोल के आये हैं, कि विनोद से मिलेंगे!! मामू मेरे साथ सदर थाना चले! थाना स्टाफ से विनोद के बाबुजी का नाम बतलाकर हमने उनका आवास पूछा, कि हम उनके रिश्तेदार हैं, लोहरदगा से आये हैं! एक हवालदार हमें उनके क्वार्टर तक पहुंचा गया! हमने कुण्डी खड़काई! चिंता दीदी ने दरवाजा खोला और हमें देख हैरत और ख़ुशी और उत्साह से चिल्लाने कूदने फुदकने लगी! :"विनोद! विनोद!! आव! जल्दी आव! देखो! श्रीकांत और मामा आये हैं!!!!" दीदी ने मामा को प्रणाम किया और मुझे हपने हाथ से खींचती ले जाकर अन्दर एक कुर्सी पर बैठाया, फिर चाची को देख हमने प्रणाम किया! विनोद आया तो हम दोनों दोस्त जैसे फिर से जिंदा हो गये! चिंता दीदी की एक ही फिकरे ने मेरी चालबाजी को शह और मामू को मात दे दिया! वे भी भोजपुर के भोजपुरी भाषी ही थे! चिंता दीदी ने जिद्द पकड़ ली कि :"आज ना जाए देब! आज रहे के होई!" मामू ने प्रतिवाद किया! मैंने भी हाँ में हाँ का ड्रामा किया; और विनोद को कनकी मारी! एकांत में मैंने विनोद को बतलाया कि मेरा प्लान खून-पसीना देखने का है, और आज ही लौटना भी है कैसे होगा? पता नहीं फिर कब राँची आना होगा। तबतक तो फिल्म ही बदल जायेगी!!??? विनोद ने कहा कि :"चलो पापा से बोलते हैं!" हम सदर थाना के ऑफिस में जाकर विनोद के पिताजी से मिले उन्होंने मुझे देखकर हर्षयुक्त आश्चर्य प्रकट कर बाबुजी और हमारे परिवार की कुशलता पूछी! मैंने उनके चरण छुए! विनोद ने आग्रह किया कि ये आज ही लौटना चाहता है, सो वे अपना हुक्म दें कि ये रुक जाय, और ट्रंक कॉल से लोहरदगा बाबूजी को सूचना दे दें कि ये लोग अगले सबेरे लोहरदगा पहुंचेंगे!
ट्रंक कॉल नहीं हो सका!
क्योंकि वह B.S.N.L. की ही माँ थी!
लेकिन चाचा की आज्ञा हो गई! उन्होंनें मामा को पर्सनली हुक्म दिया कि आज यहीं रुको घुमो फिरो, सिनेमा देखो, फिर कल सुबह चले जाना! मामू को खुश होकर हँसते देख मैं समझ गया कि ये झूंठमूंठ का ड्रामा कर रहे थे, जिसे अब ये भी कुबुलते है! खून-पसीना देखने के लिए ये टिकट खिड़की पर लड़कर अपना खून-पसीना एक कर देने के पक्के ईरादे से आये थे, पर अपने पर कोई आक्षेप लेने से बचने के लिए खामख्वाह शहीदेआज़म सा 'बूथा' लटकाए हुए थे! मामू जान प्रसन्न हो गए! दोपहर से भूखे प्यासे हम फ़िल्मी बंदरों (साब जी, गलत टाइप हो गया है, -बंदो- की जगह बंदरों.....!" _"बै, जाण दै, पूँछ ता म्हारे पुरखे अपणी राजस्थाण को छोड़ आये हैं!") को चिंता दीदी ने खाना खिलाया! शाम हो गई! इस वक़्त हमें लौटती गाड़ी में होना चाहिये था! और हम धकधक-धकधक से मरे जा रहे थे कि बाबुजी का फिक्र से क्या हाल होता होगा!? विनोद के पिताजी ने "सुजाता सिनेमा" के मैनेजर को फोनकर के तीन सीट बालकोनी के बुक करवा दिए! और नौ से बारह के फ़िल्मी समय; प्रसिद्द नाईट-शो देखने हम सदर थाने की जीप पर एक पुलिस के जवान के साथ सुजाता सिनेमा पहुँचे! _याराँ! मैंने बड़े शान से अपने विजय को देखा जो विनोद खन्ना के साथ एक दुसरे को जूडो के स्टाइल में हमलावर सी भंगिमा बनाए घूर रहे थे! मेरी नस फड़कने लगी! इवनिंग शो की भीड़ निकलने लगी! कोलाहल और भीड़ में चतुर्दिक सिर ही सिर दिख रहे थे! और हम शांत से यूँ खड़े थे जैसे हमने -दुर्भिक्ष- पर फतह पा ली हो! फिर नाईट-शो की इंट्री शुरू हुई! थाने के स्टाफ ने हमें एक प्राईवेट दरवाजे से अन्दर दाखिल करवाया और खुद बालकोनी में ले जाकर हमारे (-मेरे-) मनपसंद सीट पर हमें बिठाया, और खुद चला गया, यह कह कर कि शो ख़त्म होने पर वह हमें नीचे मिलेगा! (मैं)हम सबकुछ भूलकर स्क्रीन को घूरने लगे कि :"तेरी ये मजाल!! हमें देखकर भी चालु नहीं हुआ!" हुआ जी, और मस्त शुरुआत हुई! फिर फिल्म में अमित जी की इंट्री उनके अपने ख़ास अंदाज़ में हुई! और मैं आज भी इसे याद कर बल्ले-बल्ले करता जब मन करता है, घर में ही देख लेता हूँ! इस फिल्म में मेरे विजय का नाम शिवा उर्फ़ टाईगर है, जिसे देखते सुनते ही अभी भी नस फड़कने लगती है! साब जी, फिल्म तो हमने देख ली! वापस विनोद के यहाँ आकर खा-पीकर सोये भी, पर नींद नहीं आई! फिल्म के सीन और अमित जी उर्फ़ मेरा विजय उर्फ़ शिवा उर्फ़ "टाईगर की दहाड़" रातभर खोंपड़ी में गूंजती रही! मुरारी मामा सुबह की पहली किरण पर ही उठकर झटपट तैयार होने लगे, कि :"जल्दी चल, ना त जीजा खूब डँटिहेँ!" डर तो मैं भी रहा था, सर जी! सुबह की चाय पीने में लोल भी झुलस गया! हम विदा होने के लिए थाने में विनोद के पिताजी के पास बैठे थे कि एक जानी-पहचानी काली टैक्सी को थाना कंपाउंड में दाखिल होते देख हमारा खून सूख गया! मुरारी मामा थर्रथर्र कांपते बोले :"सिरकांत, ए बप्पा, जीजा आ गईलन!" मन में मैंने कहा :"अबे, भाग!!" पर, भागे कहाँ? _यही पुलिस वापस पकड़ लाएगी! टैक्सी ठीक त्रिशूल के संजीव कुमार के रईसी अंदाज़ में एकदम हमारे सिर पर आ खड़ी हुई! और लाल रंग से गोरे-चिट्टे अशोक कुमार से भी ख़ूबसूरत, रामप्यारे तिवारी जी, झक्क सफ़ेद वस्त्रों में सजे धजे, टैक्सी से बाहर निकले! डर से हम मरने ही वाले थे कि विनोद के पिताजी ने बाबुजी का हाथ पकड़ लिया और बगलगीर होकर ठहाके लगाते मिले। बाबुजी को अपने क्वार्टर में खींच कर लिवा ले गये! पीछे-पीछे आतंकित-आशंकित हम भी घुसे, और चोरों की तरह अपराधी सा मुंह बनाये अपनी सजा के लिए इन्तजार में खड़े हो गए, कि हाज़त में बंद तो होना ही है, हुँवें "हाज़त" भी फिरना पड़ेगा, जो एक डाँट में अभी ही निकल जाती! हाज़त और हाजत में यही फर्क है! चिंता दीदी ने बाबुजी को नाश्ता, चाय पेश किया जिसे बाबूजी लाख मना करते रहे, पर दीदी ने उन्हें खिला-पिला कर ही माना! और फिर चिंता दीदी ने ही कहा कि :"चाचा, हमहीं मामा आउ बउवा के रोक लेले रहीं! बड़ी दिन बाद देख के, जाए देवे के मन ना भईल ह! रउओ आज रहीं ना! चाची के काहे ना लिया आईनी ह? लालगुना कहाँ बाड़ी?" …और विनोद के पिताजी से गप्पें करते बाबुजी का सारा गुस्सा और हमारा सारा खौफ ख़तम हो गया! हाज़त अपनी ख़ास हाज़त में वापस सुटुक गया! हमारे लौटते वक़्त चिंता दीदी रो पड़ीं! विनोद और मैं फिर मायूस हो गए! इसके बाद फिर न जाने वे अभी इस दुनिया के किस कोने में हैं, कैसे हैं पता नहीं! कैसे हमारी ज़िन्दगी भी किसी फिल्म से कम है, साब? फिर भी फिल्मों से तुम्हारी फटती है तो ये हमारी नहीं तुम्हारी प्रॉब्लम है, जिसकी हमें राई-रत्ती परवाह नहीं! ठीक उसी तरह जैसे -दुर्भिक्षों- ने नरभक्षियों की तरह हमें तुम्हारी रहनुमाई में नोंचा-खंसोटा और जिसकी तुम्हे कोई परवाह नहीं! और बाबुजी के लिए सोचने पर बार बार विवश हो जाता हूँ कि उन्हें मेरी कितनी चिंता थी, मुझसे उनका असीम प्यार, पिता-पुत्र का ऐसा प्रेम मैंने और किसी में, किसी के यहाँ नहीं देखा! लेकिन इसे विडम्बना ही कहेंगे कि, जहाँ यह परस्पर प्रेम बाबुजी जी ताक़त थी वहीं मेरी कमजोरी!
*_ १७,दिसंबर,१९७९ को बाबुजी, अमर बाबु और (बड़े)शम्भू जीजाजी के सभी परिवार मिलकर एक मेटाडोर वैन में हम सभी जगन्नाथपूरीजी की यात्रा पर गए थे! बहुत ही रोमांचक, मनोरंजक और रोचक यात्रा थी वह, जिसकी तस्वीरें अब पीली पड़ने लगीं हैं लेकिन उसकी यादें अभी भी सजीव और ताज़ी हैं! यात्रा की रवानगी की हड़बड़ी में, भूलवश, बड़े (शम्भू) जीजाजी अपना अटैची घर
पर (लोहरदगा) ही छोड़ आये थे! जो जब पता चला तो, सभी को असमंजस हुई, बाबुजी
हमेशा की भांति फिर परेशान हुए! लेकिन अमर बाबु(चाचा) ने हँसते हुए कहा कि मेहमानजी (अमर बाबु, दामाद को मेहमान जी ही कहते हैं!) के लिए यहीं
नए कपड़े खरीद लेते है! जीजाजी के लिए संबलपुर कार्यालय में रुकने के बाद
खलीता पायजामा बनवाया गया! और इसी में ही जीजाजी की यात्रा पूर्ण हुई! इसी यात्रा में (लौटते वक़्त) हम सभी ने संबलपुर के एक सिनेमा में उसी वर्ष रिलीज़ हुई अमिताभ बच्चन की दो सुपरहिट फिल्मों मिस्टर नटवरलाल और काला पत्थर में से बड़ी मुश्किल से फैसला कर के हमने पहली दफा "काला पत्थर" देखि थी! सच है, फ़िल्में मेरी जान हैं! यार, मुझे फिर फिल्म देखने का मन कर रहा है! यह फिकरा ख़ास आपही के लिए है, साब जी! आपको चिढ़ाने खिजाने और गुस्साकर अपने बाल नोचने के लिए! एकाध बाल जो बचे तो मरना मत मुझसे कहना मैं अपने कुत्ते से कह कर नुंचवा दूंगा! जो बाकायदे आपको स्नान भी करा देगा और प्यास भी बुझा देगा! बैतरणी लांघ न सको तो SMS करना, हो??
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हरिद्वार २६,जून,२०१३ बुधवार सुबह (प्रातः) ०२: ३७
*_जागो,सेठ! आज घर लौटने का है!
_यार, मैं तो सोया ही नई! बिना सोये कैसे जागा जाता है? _मेरे *-जागा सर-* ने पढाया ही नहीं, तुम बता दो!
......हाँ भई, हो गई यात्रा पूरी। अब घर लौटना है, पर लगता है जैसे एक नया जीवन संघर्ष का सामना है; जिसे अंजाम तक पहुँचाये बिना यह यात्रा पूरी नहीं होगी!
_बाबुजी के लिए अब "राम" शब्द का उच्चारण करते और लिखने में झिझक हो रही है, लगता है हममे वह दम, वह कुवत, वह ताक़त, वह हिम्मत, वह हैसियत, वह योग्यता है ही नहीं जो उन्हें इस नाम से पुकारने की धृष्टता कर सकें! पर इनकी बोटियाँ नोचने वाले जानवर आज भी अपनी-अपनी मांद में जम्हाई ले लेकर खैनी मल-ठोक कर हा हा हा कर हमारी लगातार खिल्ली उड़ा रहे हैं! करने दो मनमानी, अब ऐसा क्या है जो चला जायेगा? बाबुजी इनसे खुद निबट लेंगे!
_बाबुजी के सलीना रूटीन में दो-बार छुट्टी लेकर यात्रा करना उनकी आदत और उनसे चिपके रहना मेरी लत्त बन चुकी थी! और ऐसी यात्रा मुनासिब और उचित भी था! स्टेशन वैगन से टैक्सी, फिर कार -अभी भी भाड़े की ही- सर, लेकर बाबुजी अपने एक सप्ताह की यात्रा पर निकलते तो जैसे इसी एक यात्रा में अपनी और हमारी सभी मुरादें पूरी कर देते! समूचे भोजपुर रोहतास में फैले अपने नाते रिश्तेदारों के द्वारे जा पहुँचते!......
......आज -इंडिया टुडे- (पत्रिका) का ताजा अंक देखने को मिला, सुशील ने लिया था शायद, जो मेरे पल्ले पड़ गया! यह अंक अभी मेरे पास नहीं है, लेकिन इसके फ्रंट कवर पर छपा था -"नितीश के डॉन!"- और डॉन`ज़ के फोटो भी छपे थे, अपने बिहार की कहानी थी, मन लगाने के लिए पढने लगा, जैसे जैसे पढता गया, मन में निराश हावी होती गई कि, अपना बिहार कभी नहीं सुधरेगा!
…….फ्रेश होकर ब्रश वगैरह करके मैं रेडी हूँ, वापस घर जाने के लिए! हरिद्वार से ४० किलोमीटर दूर "लक्सर" जंक्शन है, जहां से हमारी ट्रेन _"अमरनाथ एक्सप्रेस"_द्वारा हम मुज़फ्फरपुर जाने वाले हैं! हम एक ट्रेवेलर गाड़ी से लक्सर ट्रेन स्टेशन पहुँचे! हमारे बैगेज्स की संख्या और वजन खूब बढ़ गई है। हम सबने खुद ही मिलकर सभी सामान और महिलाओं और बच्चों को प्लेटफ़ॉर्म पर पहुँचाया! मैं भूखा था! प्यास भी खूब लगी थी! इसी की पूर्ती के लिए मैं फिर स्टेशन से बाहर एक चाय नाश्ते की दूकान पर पहुँचा, जिसके बगल में एक पान की दूकान में लगी टीवी पर समाचार आ रहा था, जिसे देखने के लिए लोगों का हुजूम लगा हुआ था! मैंने भी टीवी पर नज़रें डालीं! वही उत्तराखंड केदारनाथ की आपदा से सम्बंधित विजुवल्स और कमेन्ट्री!! लोगों की प्रतिक्रिया से बहुत ही क्षोभ हुआ, सभी उत्साहित हो होकर अपनी प्रतिक्रिया यूँ व्यक्त कर थे जैसे कोई एक्शनपैक्ड थ्रिलर मूवी के दृश्य देख रहे हों!! किसी में कोई संवेदना नहीं! ये ही हैं हम! आम जन! भारतीय जनता! हमलोग! मेरा जी फिर खराब हो गया! अभी भी लाशें बरामद हो रही हैं! अभी भी राहत कार्य जोरों से जारी है! घायलों और लापता लोगों की संख्या आश्चर्यजनक रूप से एकबारगी बहुत बढती ही जा रही है! और लोग चठ्कारे लेकर टीवी देख रहे हैं! मैं खिन्न मन से ब्रेड पकौड़ा और प्याजी खरीद कर वापस आया, तो याद पड़ा कि पानी लाना तो भूल ही गया! मैं वापस बाहर आने को चल पड़ा! बाहर निकलने के क्रम में जो शोर्टकट मैंने यूज़ किया उससे प्लेटफ़ॉर्म से नीचे कूदकर रेल की पटरियाँ लाँघ कर बाहर निकलना पड़ता है! मैं जिस स्थान से कूदने वाला था, देखा ८५-९० साल के एक कृषकाय वृद्ध अपनी लाठी के सहारे पटरियाँ लाँघते लड़खड़ाते हुए प्लेटफ़ॉर्म पर चढ़ना चाहते हैं लेकिन उनका शरीर उनका साथ नहीं दे रहा था, और वे इस ऊँचे प्लेटफ़ॉर्म पर खुद चढ़ पाने में बिलकुल असमर्थ थे! मैंने बिना उनकी किसी गुजारिश के उनके प्लेटफ़ॉर्म की ओर बढे हाथ को थामकर उन्हें प्लेटफ़ॉर्म पर खींच कर सुरक्षित खड़ा कर के उनकी गठरी और लाठी उन्हें थमाई और अपने राह को चल पड़ने को उद्धत हुआ, कि बुजुर्गवार मेरा हाथ पकड़ लिया, और मेरी पीठ सहलाई, और बोले :"भगवान् तुम्हारा भला करें, बेटा!" मेरी आँखें ख़ुशी और आत्मसंतुष्टि से छलक आईं! तीर्थ से अच्छी तो यह कमाई है।…….
…….हमारी यह ट्रेन भी २-घंटे विलंबित है!
आई!
हम चढ़े!
बड़ी ही हड़बड़ी में!
गाड़ी यहाँ ज्यादा देर नहीं रूकती!
हम सभी अपने सभी सामानों के साथ अपनी बोगी में चढ़े! अपनी रिज़र्व्ड स्लीपर्स के पास पहुंचे तो पाया कि हमारी सब के सब स्लीपर्स प्री-ओक्युपाईड हैं!! सुशील सौरभ और मैंने मिलकर अपने टिकट मुताबिक़ अपने स्लीपर्स पर पसरे पड़े महानुभाओं से आग्रह निवेदन करके खाली करवाया! थोड़ी पक-पक पकाक्क! और कुकड़ू कूँ हुई!! फिर कुछ देर बाद स्थिति सामान्य हो गई! मैंने देखा हमारी एक मिडल स्लीपर पर बाकायदे बिस्तर और तकिया लगाए एक मोटी, मोटि-ताजी बहनजी गहरी नींद में हैं! मैंने उनसे अपनी गुजारिश के चंद शब्द भी ठीक से नहीं बोले थे कि, गैलरी सईड की अपर स्लीपर पर लेटी एक बकरी जैसी शक्ल वाली दुबली-पतली, सुटुक-दम-बम्म सी बहनजी हाथ नचा-नचाकर मुझसे उलझ पड़ीं, कि उनको(the lady, sleeping on the middle birth को) डिस्टर्ब नहीं करूँ, वे "घायल" हैं, "बीमार" हैं, उन्हें उसी स्लीपर पर रहने दूँ , और कोई उनकी स्लीपर्स से अदला-बदली कर लूँ! घायल और बीमार शब्द सुनते ही मैं फट से समझ गया कि बेचारी उत्तराखंड आपदा की कोई विक्टिम है, इसे क्यों नहीं सहयोग दूँगा, भला!? मैंने बकरिया को आश्वासन दिया कि मैं हिंदी हिन्दू हिन्दुस्तान के बॉलीवुड के सभी हीरोज़ की खाँटी खिंचड़ी हूँ, सो तसल्ली रखिये, हमारी वजह से आपको और इन बहनजी को कोई तकलीफ नहीं होगी! और DAN BROWN के साथ मैंने अपनी मनपसंद जगह पर बैठकर, Robert Langdon के साथ वापसी हेतु रवानगी डाल दी! २-घंटे की खर्राटेदार नींद के बाद बहनजी जागीं और अपने स्लीपर से नीचे आना चाहा, लेकिन मैंने उनको असमर्थ देखा! और सहायता करके उन्हें नीचे आने में मदद की! कांखते कराहते लंगड़ाते वे टॉयलेट होकर आईं! और फरमाईश की कि उनकी स्लीपर को गिरा दिया जाय ताकि सभी "सिर ऊँचा कर के" बैठ सकें! निचली स्लीपर पर अमरनाथ भईया जो; मरा-मरा-मरा-मरा भजते, बैठे कम लेटे ज्यादा थे, ने स्लीपर को खोलकर नीचे झुला दिया और ठंडी साँसे लेते अपने ऐंठे हुए जिस्म की अकड़न और चेहरे की सिलवटें सीधी करने लगे, :"ओह! दुखा गेल सउँसे देह, घेंचा ना मुरकल ईहे भल कहअ!!" उर्मिला दीदी ने अब एकदम स्वस्थ तंदुरुस्त और चौकस हो चुकी इन "बीमार" बहन जी से बतियाना शुरू किया, कि केदारनाथ में जो तबाही हुई उसके बारे में कुछ बताओ, आप लोग कैसे सुरक्षित निकल आये? _वगैरह सवाल पूछने लगी! तब इन बहन जी ने खुलासा किया कि :
_"हमलोग केदारनाथ नहीं, वैष्णौदेवी दर्शन से लौट रहे हैं!"
_"तो, आपकी तबीयत इतनी क्यों और कैसे बिगड़ गई? मातारानी के दर्शन कर तो हम भी लौट रहे हैं, हमें तो कोई दिक्कत हुई नहीं, फिर आपकी ऐसी बीमार दुर्दशा कैसे हो गई?
_"अरे, अब क्या बतायें!!? मातारानी की पहाड़ी की चढ़ाई सबके बस-बूते की बात नहीं है। आधे रास्ते के बाद ही मेरी हालत बिगड़ गई!"
_"क्यों? कोई बिमारी-उमारी है?"
_"अरे, नहीं दीदी जी! वो थक गई न इसलिये! फिर नहीं चल सकी! सो घोड़ा किया और उसी से गई आई!"
_"फिर इतना तकलीफ आपको कैसे हो गया जो आप घायल और बीमार हैं?"
_"नहीं, अब तो ठीक है, वो जो थक गई थी न………!"
मेरा मन किया कि एक किलो वजनी किताब इसके सिर पे पटक दूँ! मैंने खड़े होकर बकरिया को देखा और बोला :"घास खाओगी? बुद्धिवर्धक, सुगंधित, मधु और खस की खुशबु वाली, जो बाराबंकी के डंकी को ही अबतक नसीब हुआ है!!? -में- -में- भी ठीक से बोलना नहीं आता? कैसी बकरी है!?" "धत्त तेरे की, ई तो निन्दाईल हई, -"में में"- तो एकर नाक से निकलईत हई!"
*_पूरे दिन ट्रेन जैसे एक सीधी सरल रेखा में सफ़र करती महसूस हुई! Robert Langdon के साथ मैं जिस खिड़की वाली मनपसंद सीट पर बैठा था उस तरफ से आती तेज धुप में पहलु बदल-बदल कर सिंक-सिंक कर मैं कचालू बन गया! बीच-बीच में ब्रेक दे देकर मैं बड़े(शम्भू) जीजाजी के द्वारा वर्णित इतिहास और महापुरुषों और भारत के
दुर्भिक्षावस्था की कथा का श्रवण करता रहा! ट्रेन की गति के साथ-साथ मेरी कलम भी दौड़ती भागती चल रही है! ट्रेन
बरेली जंक्शन पर पहुँची तो दो नाम मेरे जेहन में कौंधे पहला हमारी
प्रियंका चोपड़ा और दूसरा मेरे
facebook मित्र ज़नाब
हसन ज़हीर का, जो रोजी रोजगार या नौकरी के लिए ओडीशा (उड़ीसा) में हैं, जो मूलतः बरेली वासी हैं! फिर एक स्टेशन आया
काकोरी! काकोरी नाम से मेरे जेहन में कोई घंटी सी घनघनाई!
काकोरी काण्ड!!
काकोरी में अंग्रेजों के सरकारी खजाने की लूट!!!!
राम प्रसाद विस्मिल!!
अशफाकउलाह खान!!!
चंद्रशेखर आज़ाद!!!
हे, भगवान्! हे, भगवान्!! क्या यह वही ऐतिहासिक ट्रेन स्टेशन है? क्या यह वही गौरान्वित भूमि है?
हाँ!
जी हाँ!!
यह वही काकोरी है!!!
The looting of a train near to Kakori in August 1925 became known as the
Kakori conspiracy. The looters comprised several people involved in the
Indian independence movement. A memorial to the conspirators exists in the town.
The robbery was conceived by
Ram Prasad Bismil and
Ashfaqullah Khan
who belonged to the Hindustan Republican Association (HRA), which
became later the Hindustan Socialist Republican Association. This
organisation was established to carry out revolutionary activities
against the
British Empire in India
with the object of achieving independence. Since the organization
needed money for purchase of weaponry, and rich people of society were
not helping them due to fear of the government, Bismil and his party
decided to plunder a train on one of the Northern Railway lines. The robbery plan was executed by Ram Prasad Bismil, Ashfaqulla Khan,
Rajendra Lahiri,
Chandrashekhar Azad,
Sachindra Bakshi,
Keshab Chakravarthy,
Manmathnath Gupta,
Murari Sharma (fake name of Murari Lal Gupta), Mukundi Lal (Mukundi Lal Gupta) and
Banwari Lal. One passenger was killed by an accidental shot.
……मैंने श्रद्धा से हाथ जोड़कर इस प्रेरणास्पद धरती, भारत माता के इस पावन भूखण्ड को प्रणाम किया! गाड़ी आगे भागी, इसी रफ़्तार से मेरी कलम भी भागी! फिर थोडा विश्राम करके मैंने सुशील वाली इंडिया-टुडे उठा ली! मन बहलाना चाहता था पर उलटे नफरत से गुस्से का जो उबाल खौला, वह असक्षमता के कारण बेबसी में बदल गया! निःसंदेह -दुर्भिक्ष- हमारी अपनी ही परछाईं हैं, और बेबसी से मेरे आंसू निकल पड़े!{जंगल में मोर नाचा; किसने देखा?} !!?? _मैंने देखा!
*_न बिहार कभी सुधरेगा, न बिहारी मुस्टंडे इसे कभी सुधरने देंगे! धौंस - दादागिरी - कमीशनखोरी - दलाली - नशा - लम्पटई - गाली-गलौज की मातृभाषा - और पुलिस प्रशासन की वर्दिगिरी यह ज़ुल्मात कभी बंद नहीं होने वाले! और यह इस प्रदेश को कभी भी सुधरने नहीं देंगे! जितने माननीयों की किताबें, सदुपदेश के स्लोगन्स और नीतिशास्त्र की पुस्तकें मैंने खरीदीं हैं, वह इन बिहारी लाल गमछा - खैनी - पान गुटखा - की बॉस मारती खौफनाक हंसी में गौण हैं, बेकार की फ़ालतू वस्तु हैं, जिनके हितोपदेश की यहाँ कोई गुंजाईश नहीं। बिहार में राजनीति से बड़ा दूसरा कोई बिजनेस नहीं। रंडी के चकले से भी गया बीता धंधा बिहार की राजनीति है! _ये मेरे शब्द नहीं एक माननीय के शब्द हैं, जो निःसंदेह सत्य है! मैं राजनीति नहीं जानता, नहीं समझता, ना ही इस पचड़े में पड़ना चाहता हूँ, लेकिन जब इसके दुष्प्रभाव से पीड़ित हों तब तो बोलना ही पड़ेगा! लालू प्रसाद के कुशासन के बाद नितीश कुमार के सुशासन के पिछले रिकार्ड से कुछ आस बंधी थी। ….खेद है, वह इन्हीं मान्यवर के घमंड के कारण स्वतः अपनी आकस्मिक मौत मर गई! इनके मंत्रालय में ऐसे ऐसे दिग्गज डॉन`ज़ का 'राज' है, जिनकी शक्ल देखकर, इनके फोटो और अपीयरेंस और पॉज़ देखकर, यदि आप सीधे-सादे सुविचारक और स्वाभिमानी भारतीय हैं तो आपको सिर्फ खेद और दुःख ही नहीं क्रोध होगा! और आपके सुन्दर मुख से असुंदर वाणी मुखरित हो पड़ेगी। पप्पू! मुन्ना! बच्चा! ललन! अमरेंदर! अनंत! लाली! लवली! _जैसे फ़िल्मी नामधारी खलनायकों से भी गंदे भद्दे गए-गुजरे कुत्ती नीयत और हरकत और वारदातों के मुजरिम और साक्षात् शैतान समान ये -"नेता"- -दुर्भिक्ष- के ओरिजिनल बाप और धरती के पाप हैं! साक्षात् मूर्तिमान राक्षस जो रोजीना इंसानियत का लहू पी रहे हैं, और भलमानसहत को जिंदा निगले जा रहे हैं! फिल्म "दबंग-2" के खलनायक का नाम "बच्चा भईया" बिहारी राजनीति की ही देन है!! नितीश कुमार के घमंड और बेकार के निर्णयों और विकास के असंभव सपनों के झूंठे दावों और घोषणाओं से राज्य का स्वतः स्फूर्त विकास तो बाधित हुआ ही है, आगामी भविष्यत् संभावनाएं भी संदिग्ध होकर खतरनाक अनहोनियों की धमकी दे रहीं हैं! ऐसे में प्रकृति भी अपना रौद्र-रूप गलत निशाने पर दिखलाती है! सबकुछ तो बेकाबू है, नितीश जी समझायेंगे कि क्या काबू में है? ऐसे खतरनाक हालातों में हंसी-ख़ुशी-पर्व-त्यौहार-उत्सव के क्या मायने रह जायेंगे? जो प्रलय केदारनाथ में आई वह बिजली इन राक्षसों पर क्यों नहीं गिरी? क्या इसलिए कि ये दुष्ट, मातारानी वैष्णौ देवी का कंठा, कड़ा, लौकेट और सूत्र पहने रहते हैं? क्या इसलिए कि कुपात्र होते हुए भी ये बन्दूक का डर दिखलाकर माँ की लाज लूटने वाले ये दैत्य 'अमरनाथ' से अभयदान पा चुके हैं? या ब्रम्हाजी फिर होशोहवास गँवाए हुए हैं, जो रोज इन रावणों को मनोवांछित वरदान दिए ही चले जा रहे हैं? क्या इनके विनाश के लिए पब्लिक विष्णु भगवन की प्रतीक्षा में हैं? साले, तुम वोट देते ही क्यूँ हो इन नामुरादों को? साब जी, आंसर तो ईजी है, जी! कोई आप्शन है ही नहीं पब्लिक के पास! खुद तो चुनाव लड़ने से रहे! सुबह की चाय के साथ अखबार पढ़कर बस असहाय भाव से गर्दन हिलाना भर जानते हैं! जैसे इनके हित अहित की चिंता सिर्फ नेताओं की है, आपकी, इनकी, उनकी और हमारी तो कतई नहीं! आईये थोड़ा पान खा आयें!......
_"जुलुम भेल बा!" बड़े (शम्भू) जीजाजी कहा!
_"आंएँ!??" मैं चौंका
_"मारे गर्मी के लुत्ती बिगई बा!"
_"ओह! हा हा हा!!! _हमरा बुझाईल कि बिहार के ले के चिंतित बाड़अ!!"
_"चिंता के बात त भईले बा! कवनों समाधान ई समस्या के नखवअ! आउ ई खाली बिहारे के ही ना, समुच्चे देस में हईसने पोजीसन हवअ!!"
बात तो खरी कही जीजाश्री ने! इन नेता वेषधारी गुंडों की दिलेरी, अपने देश में अपनी ही माँ की छाती पर इतने ज़ुल्म कर रही है कि इनकी तुलना में ओसामा बिन लादेन और दाउद इब्राहिम भी शर्मिंदा हो जाएँ!! माँ भारति की छाती की नासूर के ये कीड़े साक्षात स्वयं -दुर्भिक्ष- के बाप, पालनहार और पोषक हैं! इनका समूल विनाश एक फ़िल्मी कल्पना मात्र है, साब जी! इसीलिए पब्लिक फिल्मों के मार्फ़त अपनी भड़ास को शांत होती देख तालियाँ पीटते हैं, और फिर उसी हीरो को राजनेता बनकर इसी गंदगी और मैले का हिस्सा बनते देखकर निराश हो जाते हैं!……
……बाबुजी की एक और विशेषता यह थी कि वे हरेक सफ़र में लोहरदगा से ही किसी साथी को या घर आये हुए किसी मेहमान को अपना हमसफ़र साथी बनाकर जरूर ले जाते रहे, जो आपस में राय-मशवरा करते, हंसी-मज़ाक करते बाबुजी, मित्रों के मित्र प्रसिद्द थे! जिनमे कभी अमर बाबु, कभी पहलवान नरसिंह गिरी, तो कभी रामध्यान सिंह, या मनन लाल इत्यादि प्रमुख रहे! चमेली की शादी थी (शायद); बाबूजी को एक गुमनाम चिट्ठी मिली कि :
"हम आपके बैल खोल ले गए है, और आपकी बेटी की शादी में हम आपके गाँव, आपके घर सशस्त्र डाका डालने आ रहे हैं! पुलिस को सुचना देना "माल" के साथ "जान" जोखिम और खून-खराबे की वजह होगी!
सावधान!
ख़बरदार!!
ख़बरदार!!!"
इस मौके पर दिनेश जीजाजी के छोटे भाई, उमेश जी, लोहरदगा मेहमानी आये थे!
मंत्रणा होने लगी!
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to be continued in दुर्भिक्ष (भाग-१९)
समस्या तो है! Internet की Link Fail है, फिर भी, शीघ्र ही
आता हूँ.
_श्री .