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Monday, December 31, 2012

अलविदा 2012

 लोहरदगा,  31, दिसंबर, सन 2012   दिन : सोमवार     अभी सुबह के 08:15 बजे हैं       
(दैनिक हिन्दुस्तान में छपे पूर्व राज्यपाल श्री गोपाल कृष्ण गांधी के लेख से ...)
यह साल अब चंद घंटों का मेहमान है। यह हमारे आपके लिए कुछ बेहतर हो सकता था, लेकिन इसीतरह यह कहीं बदतर भी हो सकता था। हमें इस साल किसी जंग से दो चार नहीं होना पड़ा और न ही हमें भयानक सूखे या बाढ़ का शिकार बनना पड़ा, जो लाखों की तादाद में लोगों को उजाड़ देती है। इस वर्ष हमारा साबका सुनामी जैसी कुदरती आपदा से भी नहीं पड़ा, जो सैकड़ों जिंदगियां ख़त्म कर देती है और अनगिनत लोगों को उनकी जड़ों से उखाड़ फेंकती है। इस साल हम किसी महामारी की चपेट में आने से भी बचे रहे। हम 1966 की 'कंचनजंगा' विमान दुर्घटना जैसे हादसों का शिकार बनने से भी इस वर्ष दूर रहे। उस दुर्घटना में होमी जहाँगीर भाभा समेत सौ से अधिक लोग मारे गए थे। यह साल 1985 जैसा दुखद वर्ष बनने से भी बच गया, जब एयर इंडिया का विमान-182 'कनिष्क' उड़ान के दौरान हवा में ही विस्फोट का शिकार हो गया था और उसमे मशहूर केमिकल इंजिनियर वाई नयुदम्मा समेत 329 जिंदगियां हमेशा के लिए हमसे बिछड़ गईं थीं।

2012 इस लिहाज़ से भी खुशकिस्मत रहा कि इसे 1981 में बिहार में बागमती नदी पर हुई भीषण रेल दुर्घटना जैसी त्रासदी या फिर 1991 के गैसल व 1995 के फिरोजाबाद रेल हादसे जैसे हालात का सामना नहीं करना पड़ा। इन दुर्घटनाओं में सैकड़ों मुसाफिर काल के ग्रास बन गए थे। उनमे से न जाने कितने अपने काम जाने के लिए निकले होंगे, कितने काम की तलाश में जा रहे होंगे और कितने ही तीर्थयात्रा पर रहे होंगे। इस साल हमें 2004 के कुंबकोणम अग्निकांड सरीखे दर्दनाक हादसे हादसे की पीड़ा नहीं भोगनी पड़ी, जिसमे 91 स्कूली बच्चे जिंदा जल गए थे या फिर पिछले साल की कोलकाता के एम्री हॉस्पिटल जैसी दुर्घटना से भी हम सुरक्षित रहे, जिसमे 73 मरीज़ व उनकी देखभाल करने वाले लोग जलकर या धुएं की घुटन से मारे गए थे। इस साल ने हमें राजनीतिक हत्याओं से दूर रखा, 26/11 जैसी त्रासदियाँ नहीं हुईं। और खुदा का शुक्र है कि देश के विभिन्न इलाकों में तनावों के बावजूद 2002 जैसे दंगों से हमारा सामना नहीं हुआ।

हम इन सबके लिए इस साल का शुक्रिया अदा कर सकते हैं। नकारात्मक राहत भी कम सुकूनदेह बात नहीं है। लेकिन क्या दर्द का न होना ख़ुशी की आमद है? नहीं ! सियासत ने हमें इस साल कोई तसल्ली नहीं पहुंचाई। वैसे राजनीति कभी खुशियाँ बाँट सकती है? यह कुछ अविश्वसनीय-सा भले महसूस हो, मगर इस प्रश्न का जबाब है - हाँ, सियासत ऐसा कर सकती है।

यदि राजनीतिक पार्टियाँ लोकपाल बिल पर एकराय बना पातीं तो देश के लोगों को खुशियाँ मिलतीं। सगर सियासी जमातें यह कहतीं कि भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग हमारी पहली प्राथमिकता है और वे अपने-अपने संगठन के भीतर के भ्रष्ट लोगों के खिलाफ कोई पहल करती हुई दिखतीं, तो यकीनन देश को ख़ुशी होती। राजनीतिक दलों ने यदि यह भी बताया होता कि वे चुनाव खर्च के बारे में निर्वाचन आयोग के दिशा-निर्देशों का ईमानदारीपूर्वक, जिम्मेवारी व पारदर्शिता के साथ पालन करेंगे, तो उनका यह आचरण देश को प्रसन्न करता।

यदि हमारी संसद ने तीन तरह के अवैध गतिविधियों को रोकने के लिए कोई ठोस उपाय किया होता, यानी काल धन, अवैध खनन और गैरकानूनी हथियारों के खिलाफ वह कोई सार्थक कदम उठा पाती, तो देश को जरूर ख़ुशी मिलती। यदि हमारे सांसदों ने सदन की कार्यवाही को बाधित करने और उसका बहिष्कार करने की बजाय सत्ता पक्ष के आगे असुविधाजनक सवाल उछाले होते, तो देश को संतोष होता। लेकिन क्या हमारी संसद ने वैसा काम किया, जैसा उसे करना चाहिए था? यदि वह सचमुच नियमित बैठकें करतीं, मसलों पर गंभीर बहस करती, संजीदा क़ानून बनाती, तो देश जरूर खुश होता।

यदि नई पीढ़ी की राजनीति करने वाले युवा नेताओं ने चापलूसी की बजाय वफादारी के नए युग की शुरुआत की होती, घनिष्ठता की जगह बेबाकी व अवसरवादिता की बजाय सेवा की भावना दिखाई होती, तो देश को प्रसन्न होने का मौक़ा मिलता। राजनीति क्षेत्र ने ऐसा कुछ भी नहीं किया। लेकिन सच्चाई यह भी है कि जिस तरह हम सभी नागरिकों को एक खाँचे में नहीं रख सकते, वैसे ही सभी राजनेताओं को अक ही ब्रश से पेंट नहीं कर सकते। हम और राजनीतिक वर्ग, दोनों ही एक-दुसरे को नीचे ले जा रहे हैं।

जहां राजनीति ने 2012 में हमें निराश किया, वहीं प्रतिस्पर्धाओं से भरे एक अन्य क्षेत्र ने देश को जश्न मनाने के पल दिए और वह क्षेत्र है - खेल। विश्वनाथन आनंद ने जहां विश्व चैम्पियन का ताश अपने नाम बरकरार रखकर हमारे आहात मन के लिए मरहम जुटाया, तो वहीं इस साल के ओलंपिक में मैरीकोम ने बॉक्सिंग, साइना नेहवाल ने बैडमिन्टन में कांस्य पदक जीतकर हमारी ज़िन्दगी में चमक बिखेरी।

खेलों का हमारी ज़िन्दगी पर कितना असर है, इसे हम अक्सर कम करके आंकते हैं। इस महीने की शुरुआत में नीलगिरी की पहाड़ियों के बीच बने एक खूबसूरत स्कूल विद्या वनम में जाने के विषय में पूर्व गवर्नर साहब ने लिखा है कि वे वहाँ गए थे, जिसके बारे में इन्होने बताया है कि :इसमें पढने वाले साठ फ़ीसदी बच्चे ईरुला जनजाति के हैं। उन्हें तमिल और अंग्रेजी में पढ़ाया जाता है और वे हिंदी भी काफी कुछ समझते-जानते हैं। गवर्नर साहब ने उनसे एपीजे अब्दुल कलाम की तरह सवाल किया, 'आप क्या बनना चाहते हैं?' कई हाथ ऊपर उठ आए। उन्हें लगा कि जिस तरह कलाम साहब को जवाब सुनने को मिलते थे, वैसे ही उत्तर उन्हें भी सुनने को मिलेंगे - डॉक्टर, इंजिनियर, आईटी एक्सपर्ट, वैज्ञानिक, कभी-कभी राजनेता। लेकिन नहीं। बेहद सधी हुई अंग्रेजी में एक बच्चे ने कहा - सर, फुटबॉल प्लेयर बनना चाहता हूँ। गवर्नर साहब ने पूछा, 'आपका पसंदीदा फुटबॉलर कौन है?' उसने कहा - 'मैसी।' एक और बच्चा गवर्नर साहब के करीब आया। उसने कहा कि वह वौलिबौल खिलाड़ी बनना चाहता है। तीसरे का जवाब सुनकर गवर्नर साहब चौंक-से गये। 'सर, मैं पक्षी विज्ञानी बनना चाहता हूँ। मुझे सालीम अली जैसा बनना है।' गवर्नर साहब को अपने कानों पर यकीन नहीं हुआ - सालिम...? एक बच्ची ने कहा - मैं डांसर बनना चाहती हूँ। उस छोटी-सी लड़की के भीतर एक बालसरस्वती, एक रुकमिणी देवी थीं। शायद आगे चलकर उसके भीतर से कोई विश्वविख्यात संगीतकार निकले।

उस स्कूल में एक प्रदर्शनी लगी थी, उसमें हिंदी का भी एक स्टाल लगा था। एक हिंदी पोस्टर के पास खड़ी लड़की से गवर्नर साहब ने पूछा - 'व्हाट इज योर नेम?' उसने गवर्नर साहब की तरफ देखा और बगैर किसी हिचक के कहा - 'मेरा नाम दिव्या है।' एक तमिल लड़की के मुँह से खड़ी बोली हिंदी सुनकर गवर्नर साहब, बताते हैं की उन्हें लगा, - 'मुझे सामंजस्यवादी शक्ति का एहसास हुआ। लम्बे अंतराल के बाद उन्हें ऐसा अनुभव हुआ था। उन्होंने अपने-आप से कहा कि - ये बच्चे ही असली भारत हैं।'     - गोपालकृष्ण गांधी .


इस लेखमाला के लिए श्री गोपाल कृष्ण जी गांधी (पूर्व गवर्नर; पश्चिम बंगाल) एवं दैनिक हिन्दुस्तान का मैं ह्रदय से आभारी हूँ। इस लेखमाला से ही मुझे आज फिर से सीखने को मिला कि - "नकारात्मक राहत भी कम सुकूनदेह नहीं है। तथा "इस साल ने हमें कई खुशियाँ और नीराशायें दीं, लेकिन अगर आप इस देश के बच्चों से मिलें, तो आपको लगेगा कि उम्मीद पालने के लिए अभी बहुत कुछ है।

इस वर्ष हमने न जानें कितने ही रत्नों को हमेशा के लिए खो दिया, उनके प्रति अपनी हार्दिक संवेदना के प्रति यही कहना चाहूँगा कि हम इस देश और इसकी जनता के लिए किये गए उनके महान कर्मों एवं अभूतपूर्व अमर योगदान को और उनके द्वारा समर्पित असंख्य प्रसन्नता को सुखद यादगार बनाये रखें, जिससे हमारी हिम्मत, मेहनत, ताकत और एकता को बनाए रखने का बल मिलता रहे। यही उनके प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

सादर नमस्कार।
नव वर्ष 2013 की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ,
आपका अपना भाई,
श्रीकांत तिवारी .

श्री जगन्नाथ पुरी जी की यात्रा - पांचवां दिन

25-12-12  मंगलवार, जगन्नाथ पुरी 

पुरी से भुवनेश्वर : वापसी का दिन :

आज सुबह जब मेरी नींद खुली, मैंने देखा अधिकाँश (बच्चों को छोड़कर) जगे हुए हैं। हालांकि हमने अपनी सारी पैकिंग रात में ही कर ली थी, फिर भी सभी को चौकस करने में कुछ वक़्त लगा। तभी पुजारी मामा, मामी के साथ आ गए। दरअसल पुजारी मामा ने ही हमारे लिए होटल में कमरा और घूमने के लिए गाडी का इंतज़ाम पहले ही करवा दिया था। उनके सानिध्य से हमें बहुत ही प्रसन्नता और सुखद अनुभूति हुई। चाय-नाश्ते के बाद मामा-मामी अपने होटल चले गए।

फिर हम सी-बीच पर चले गए। जहां हमने जलनिधि, सागर महान को नमस्कार कर आशीर्वाद लिया और होटल आकर चेकआउट फाइनल कर के हम भुवनेश्वर के लिए रवाना हो गए। अत्यधिक लगेज के कारण कुछ दिक्कत तो हुई पर हमने मैनेज कर लिया। भुवनेश्वर जाते रास्ते में हम श्री साक्षी-गोपाल के मंदिर में दर्शन को गए जहाँ पण्डों ने हमें घेर लिया और बिना हमारे आग्रह और इजाज़त के हमें इधर-उधर ले जाने लगे। हमें शंका हो गई कि हम ठगों के बीच फंस गए हैं। हमारी शंका निर्मूल नहीं थी। एक पण्डा जी हमें दर्शन करने से पहले "रजिस्ट्रेशन ऑफिस" में ले आये और वहाँ मौजूद पण्डा जी (क्लर्क) ने तुरंत अपने डेस्क में से खाता-बही निकाल कर हमें 'दर्शन करने देने के' अपने "रेट" को बतलाने लगे। डेढ़ लाख! दो लाख। फिर हज़ार, फिर सौ ...!! मैं उठ कर पण्डों के विरोध के बावजूद, कमल और बाकी लोगों की तरफ संकेत कर स्वयं मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश कर गया। वहाँ पहले से मौजूद दर्शनार्थियों में जा मिला, जहाँ, वहाँ मौजूद पण्डों ने मुझे उपस्थित भक्तों के परिवार का सदस्य समझा, इस प्रकार मैंने भगवान् के दर्शन किये और अपनी बुद्धि के बराबर भगवान की स्तुति-प्रार्थना और निवेदन किया मंदिर की परिक्रमा की और बाहर निकल आया। बाहर जहां हमने अपने जूते-चप्पल उतार कर रखे थे वहां बैठी खाखी वर्दी-सी ड्रेस पहने एक महिला बैठी थी, वो मुझसे प्रति जूते के 10 रुपये मांगने लगी। मेरा जी उचाट हो गया और मन वितृष्णा से भर गया। अफ़सोस से सिर हिलाते मैंने उस महिला से कहा कि अभी सेठ जी आ रहे हैं, उनसे माँगना थोडा ज्यादा ही मिलेगा, ...और मैं वापस आकर गाड़ी में बैठ गया। जिम्मी से मैंने कह दिया कि सभी को कह दे कि मैं बाहर गाडी में बैठा हूँ, वे भी शीघ्र वापस आ जाएँ। लेकिन उन्हें आने में वक़्त लग गया, जिससे मुझे चिंता होने लगी।। उनके आने पर मैंने देर की वजह पूछी तो उनके बताये पता चला कि पण्डों ने सभी को घेर लिया था, जिनसे इनकी काफी बकझक हुई थी। पण्डे अपनी मनोवांछित रकम की मांग पर अड़ गए थे और उनका कहना था कि पैसे चुकाए बिना वे किसी को नहीं जाने देंगे !! इस बात पर कमल को काफी कष्ट हुआ और महिलायें भी काफी त्रस्त हो गयीं थीं। आखिरकार 365/ रुपये दे कर कमल ने जान छुड़ाई!! तब हमने फैसला कर लिया कि अब हम इस यात्रा में किसी मंदिर में नहीं जायेंगे।

भारी मन से हम भुवनेश्वर के लिए चले। रास्ते में हमने धौलागिरी देखा। फिर भुवनेश्वर पहुँच कर एक रेस्टुरेंट में हमने लंच किया। फिर खण्डगिरी देखा। इतने में काफी शाम हो गई थी जिसके वजह से  हम अपनी महिलाओं को अपने वादे के मुताबिक शौपिंग नहीं करा सके। गाडी का समय हो गया था। अत: हम भुवनेश्वर रेलवे स्टेशन पहुंचे। और प्लेटफोर्म पर एक खाली स्थान देख कर गाड़ी से सभी सामान उतारकर उस स्थान पर रखकर वहीँ बैठ गए और गाडी की प्रतीक्षा करते समय बिताने के लिए प्लेटफोर्म पर घूमने लगे। भुवनेश्वर का रेलवे प्लेटफोर्म काफी स्वच्छ और सुन्दर लगा। यहाँ हमने चारु ड्राईवर को उसके गाडी का किराया और कुछ बख्शीश दे, उसका शुक्रिया अदा कर विदा कर दिया।

ठीक शाम के 7 बजे हमारी गाड़ी "गरीबरथ" प्लेटफोर्म नंबर-1 पर आकर खड़ी हो गयी। G7-बोगी पर पहुँच कर हम गाड़ी पर सवार होकर अपने सामानों को व्यवस्थित करके बैठ गए। गाड़ी अपने नियत समय पर राँची के लिए खुल गई।

अभी रात के 10:15 बज रहे हैं। मैं उपरले बर्थ पर बैठा इन पंक्तियों को अपनी नोटबुक में कलम से लिख रहा हूँ। गाड़ी अपनी पूरी रफ़्तार से राँची की ऑर भागी जा रही है। .......................!

गुड-नाईट,
जय जगन्नाथ।
_श्रीकांत तिवारी .
***************************************

26-12-2012 बुधवार, हटिया स्टेशन (रांची) प्रातः 06:15

हम सकुशल वापस आ गए। यहाँ धीरू हमारी गाड़ी लेकर आया है। मुझे लड्डू को ठीक 9 बजे स्कूल पहुंचाना है। क्योंकि उसकी परीक्षा है। मैं, माँ, वीणा, लड्डू और धीरू ने लोहरदगा के लिए प्रस्थान किया । रास्ते में कमल का फोन आया मैं अपना बैकपैक (बैग) ट्रेन में ही भूल आया था ("...मेरी चौंथी धक्क!!) जिसे वो संभाल कर राँची ले जा रहा है। आखिर थोड़ी ही देर बाद मुझे डॉक्टर से आँख दिखा कर नया चश्मा लेना था, सो वापस रांची आना ही था। लड्डू को स्कूल पहुंचा कर हम घर आ गये।

01 बजे दोपहर को मैं धीरू के साथ फिर रांची चला गया।

.....................................इति.......................................

श्रीकांत .

Sunday, December 30, 2012

दोस्तों ! साथियों !! मेरे प्रिये भाइयों !!!

दोस्तों ! साथियों !! मेरे प्रिये भाइयों !!!

अभी दिवंगत दामिनी बहन, हमारे देश की बच्ची जिस ज़ुल्म की भेंट शहीद हो गई, ये वक़्त जश्न का नहीं युद्ध का है। गुराँ दे सींघों के जागने का है। उस बच्ची को न्याय दिलाने का है। इसके लिए हमें भी कुछ करना ही पड़ेगा। हम पाठक सर के बन्दे हैं। क्या हम यूँ ही शर्मिंदा होते रहें और आस लगाए रहें कि कहीं से कोई कपनिक पात्र आकर हमें कहेगा कि "ठण्ड रख, मैं हूँ ना।" और हमारी लड़ाई वो लडेगा, हम सिर्फ उसके कारनामे पढेंगे और खुश होकर निहाल हो जायेंगे। ना जी ना ! ऐसे भ्रम में मत पड़िए। खुद को गुराँ दा सिंह समझो, बनो और लड़ो। "विमल" तुम बनो, तुम बनो, वो भी बने, ये भी बने और मैं भी बनू ताकि पाठक सर की कल्पना शर्मिंदा न हो। _ विमल को शान्ति और चैन की तलाश है, पर प्रारब्ध वश वो विवश है, और लड़े ही जा रहा है, लड़े ही जा रहा है ....और यही इस पात्र की नीयति भी है। पर वास्तविकता में हमारी भी क्या यही नीयति है? कोई चिकित्सक है, कोई सिपाही है, कोई क्लर्क है, कोई एकाउंटेंन्ट है, कोई इंजिनियर है, कोई शायर है, कोई लेखक है, कोई सीधा-सदा गृहस्थ है। पर सबका वजूद तो है न। क्या जो दिल्ली में हैं उन्हीं का प्रदर्शन न्यूज़वर्दी है, बाकी के देशवासी क्या संज्ञाशून्य हो गए हैं। नहीं बंधुओं, ऐसी बात नहीं है। हम सुदूर प्रांत के वासी भी इस निर्दयिता से उतने ही आहात हैं जितने की राजधानीवासी।

...तो फिर हमें करना क्या चाहिए?

यहाँ हम अपने-अपने स्तर पर सुनील बन सकते हैं, रमाकांत बन सकते हैं, अर्जुन बन सकते हैं, जौहरी और उसके अन्य साथियों की तरह बन सकते हैं, और कुछ नहीं तो आदमी की औलाद एक सजग, जागरूक नागरिक भी बन सकते हैं या नहीं? अगर हाँ ! तो मिलाइये हाथ और अपने-अपने स्तर पर जिससे जो हो सके जो भी वो कर सके करे, न कर सके तो शर्म से डूब मरे।

"आज मैं श्रीकांत तिवारी इस मंच पर अपने स्वर्गीय पूज्यवर बाबूजी की कसम खाता हूँ कि अशलीलता को बढ़ावा देने वाली किसी भी वस्तुओं को हाथ नहीं लगाऊंगा। अपने आप को और अपनी अंतरात्मा को स्वक्ष रखूँगा। मेरे संकलनों में से, यदि कुछ अशलील होगा तो उसे जला कर ख़ाक कर दूंगा, उसका समूचा वजूद मिटा दूंगा। अभी इसी समय से मैं ऐसा कर दिखाने का संकल्प लेता हूँ। मैं कसम खाता हूँ कि अपनी बहन बेटियों की सदा रक्षा करूँगा, उनकी ही नहीं अगर मेरे आस-पास ऐसी घटना होती पाई गई तो इसका पुरजोर विरोध करते अपनी जान की परवाह किये बिना हुए उस ज़ालिम से भीड़ जाऊँगा जो ऐसा जघन्य कृत्य करता पाया जाएगा। आज के बाद मेरे घर से, मेरे संकलनों से कोई भी अशलील वस्तु यदि होगी तो उसका वजूद ख़त्म समझिये। मैं नहीं चाहता कि मेरी बेटी मेरे संग्रहित संकलनों को देखकर शर्मिंदा हो और फफक कर रोते हुए मुझे कोसे कि :"छिः!!बाबूजी के पास कैसी गन्दी-गन्दी चीजें हैं!" मैं जनेउधारि ब्राम्हण हूँ, मैं गंगा मईया की शपथ लेता हूँ कि मैं गऊ का माँस खाऊं जो इस प्रकार की अशलील वस्तुएं मेरे पास से पाए जाएँ!"

अगर आपको इस संवाद से "आपके इस SMP मंच का डिसिप्लिन" भंग होता फील हो अगर आपको लगे कि मैं इस मंच को एक "पर्सनल ब्लॉग" की तरह इस्तेमाल कर रहा हूँ तो, मुझे इस मंच पर एक क्षण के लिए भी नहीं रहना। बिना सूचित किये मेरा नाम इस मंच से काट दीजिये, मैं खुद ऐसे मंच पर नहीं रहना चाहता। ...पर ...यदि आपको यह सही लगता है तो इस संवाद को Like क्लिक करने से पहले, कुछ "कमेंट" करने से पहले ये बताने की कृपा अवश्य करें कि आपने 'दिवंगत दामिनी' के दुःख से संतप्त हो कर क्या संकल्प लिया है, और प्लीज़  ...प्लीज़ इसे मज़ाक समझ कर इस संवाद की खिल्ली उड़ने की ज़रुरत पड़े तो पहले मेरे नाम पर स्याही पोत दीजियेगा, (जो पहले से ही पुती हुई है)।

पाठक सर के उपन्यास सिर्फ मनोरंजन मात्र नहीं हैं जिसके 80/- रुपये मूल्य चूका कर हम उनपर कोई एहसान करते हों। उनके उपन्यास की शिक्षाप्रद संवादों को याद कीजिये फिर बतलाइये कि ये हमारे धर्मग्रंथों से कहाँ भिन्न है?  मैं फिर अपने शब्द दुहराता हूँ: : पाठक सर के उपन्यास मेरे लिए उपनिषद के सामान पूज्यनीय है और मैं उनका उपासक था , हूँ और जब तक जिंदा हूँ पाठक सर का उपासक बना रहूँगा।

एक और बात जिनके पास विमल पूरी-की-पूरी सिरीज़ हो फिर नबर वन से स्टार्ट करें और सदा नगारा कूच का तक पहुंचें, इस पढ़ाई के दरम्यान आप जिन अनुभूतियों को महसूस करें उसे, अगर तब तक मैं इस मंच पर मौजूद रहा तो मुझसे और समस्त SMP परिवार के साथ शेयर करें।

राजेश परासर भाई की ये बात मुझे पसंद आई, (भले ही ऐसा न हो) कि प्रदर्शन सड़कों पर क्यों उस जेल पर धावा ही क्यों नहीं जहां वो दरिन्दे कैद हैं! इसमें मैं अपने एक स्टाफ की बात बताना चाहता हूँ उसी के अंदाजेबयां में : " भईया, जानते है, उ सालन के तो अईसन काल कोठरी में बंद करे देवे के चाहीं जहां एक्को लाईट "भों ....वालन" के नई दिक्खे। खाली बाहरेहें से खाना-पानी भित्तरे फेंक देवे के चाहीं। सालन के उहे अंधार कोठरी में सब्भे करम करे पड़े। हुंवें हगें-मूते-सुते-खाएं, लेकिन जिंदा रक्खल जाय, मरे न देवे!"

_श्रीकांत .

अमिताभ बच्चन के नाम श्रीकांत तिवारी का खुला पत्र - एक गुहार ...

आदरणीय श्री अमिताभ भईया !

आपके विडियो पोस्ट में आज देश की बेटी, हमारी बहन "दामिनी"/"अमानत", जो अपने ही शहर में अपने ही भाइयों की दरिंदगी की शिकार बन गई, जिसके जीने के ज़ज्बे ने और अपराधियों को सजा दिलाने की हिम्मत ने पूरे देश को आक्रोश के एक सूत्र में पिरो दिया है। उसका यह ज़ज्बा निश्चय ही व्यर्थ न जाएगा।


मेरे माननीय भईया ! क्षमा याचना के साथ मैं पूछना चाहता हूँ की क्या हमारे हिंदी फिल्मोद्योग की कोई जिम्मेवारी नहीं बनती कि वो पोर्नस्टार्स, अशलील कलाकारों को उनकी फिल्मों को प्रतिबंधित करे? क्यों हमारे हिंदी फिल्म निर्माता खुला सेक्स, गन्दी वाहियात फ़िल्में सस्ते भाव में देश की मासूम और पहले से ही अधमरी जनता को, परोसे जा रहे हैं? क्या उन्हें कभी अक्ल नहीं आएगी? क्या यही उनकी नैतिकता है कि अशलील फिल्म बनाना और दरगाह में जाकर उस भद्दी फिल्म की सफलता की दुआ मांगना !!!??? क्या ऐसी फिल्मो का निर्माण और प्रदर्शन निंदनीय नहीं है? क्या ये शैतान की भयावह वहशियानापन में और उसकी भड़काई हुई आग में घी की आहूति दे कर उसको और ताकतवर और भयानक बनाने के लिए हवन करने जैसा दुष्कृत्य नहीं है? क्या ये आदमी के भीतर बैठे शैतान को उकसाने और ज़ुल्म ढाने के लिए प्रोत्साहित करना नहीं है? क्या चाहता है बॉलीवुड? _ कि उनके द्वारा निर्मित अशलील सेक्स-विषयक फिल्मों के  लज्जाजनक पोस्टरों से अटे पड़े शहर को अपनी महिलाओं के साथ निहारें और शर्म से मर जांये? हम अब बिकिनी में अपनी दीदियों, बहनों और माओं को देखें, और सेक्स की कल्पना को हकीक़त में आजमाने के लिए "दामिनी" जैसी बच्चियों पर टूट पड़ें? पोर्न अभिनेत्रियों को भारत की नागरिकता दे कर क्या सरकार ने समाज सुधार का काम किया है? क्या भारतीय नागरिकता पाकर ऐसी अशलील महिला अभिनेत्री के अभद्र कार्यकलाप बंद हो गए? क्या वह आदर्श भारतीय नारी का प्रतीक बन गई? क्या उसका भद्दा इस्तेमाल करना फिल्म निर्माताओं ने बंद कर दिया? नहीं। नहीं भईया नहीं।


कुछ उन्हें भी नसीहत देने की कृपा कीजिये। आदमी जब तक अपने खुद के भीतर बैठे वहशी शैतान को काबू नहीं करेगा ऐसी घिनौनी और देश को शर्मसार करने वाली घटनाओं को भगवान् भी नहीं रोक पायेगा। फिल्म निर्माताओं से मेरा हाथ जड़कर विनम्र निवेदन है कि विदेशों से आयातित अशलील महिलाओं का बहिष्कार कर उन्हें वापस उनके अपने पसंद के गंदे घरों को चले जाने को कहने की मामूली हिम्मत भी तो दिखाएँ। 

अपराधियों पर अंकुश लगाने के जितने क़ानून बनाए जाते हैं, अपराधी उससे आगे बढ़कर क़ानून का मज़ाक उड़ाने और बच निकलने के उतने ही तरीके ईजाद कर लेते हैं। क्या शराब पर प्रतिबन्ध लगाने से शराब का उत्पादन और उसका गलत उपभोग/उपयोग रूक गया? क्या पान-गुटखा-तम्बाकू पर प्रतिबन्ध लगाने से इनका उत्पादन और खुलेआम बिक्री और इस्तेमाल बंद हो गया? क्या उपदेश सुनकर गुंडे साधू बन रहे हैं? जी नहीं। ऐसा कुछ नहीं होगा। तब तक नहीं होगा जब तक इंसानी फितरत नहीं बदलेगी। दुनिया की कोई सरकार ऐसे घिनौने और दहला देने वाले और समूचे इंसानियत को शर्मसार करने वाली घटनाओं को नहीं रोक पाएगी। जब हम खुद नहीं सुधरेंगे तो दूसरों को सुधरने की क्या नसीहत दे पायेंगे!? हमें इन दुखद घटनाओं से बचने और इन्हें रोकने के लिए पहले तो खुद को सुधारना होगा, फिर जहां तक हमारी ताकत हमारा साथ दे हमें अपने आस-पास घटती ऐसी वारदातों को रोकने के लिए लड़ना ही पड़ेगा। कोई सरकार कोई क़ानून इसमें हमारी सहायता नहीं कर सकती। अब यह सबकुछ हम पर और हमारी मानसिकता पर निर्भर है। अत: आप पूछेंगे कि पोर्न स्टार को निकाल देने भर से क्या अशलीलता का घिनौना प्रदर्शन रूक जाएगा? भईया, मेरा जबाब है कि ये एक पहल तो होगी। एक मिसाल तो बनेगी। इसके कुछ सुखद परिणाम की आशाएं तो बनेंगी।


अमिताभ भईया ! आप हमारे अभिभावक हैं। आपके इस स्थिर-चित्र के साथ आपकी आवाज़ का विडियो पोस्ट देखकर हमें यही लगा कि आप दामिनी के साथ घटी दरिंदगी और उसके दुखद प्रताड़ना और मृत्यु से अत्यंत दुखी हैं। यह एक गम से भीगे एक अभिभावक का करुण रूदन था, आपही की तरह हम भी ग़मगीन हैं और मारे विवशता के खून के आँसू रो रहे हैं। पर आप न किसी विवशता में जकड़े हैं और न ही हमारी तरह मजबूर हैं। आपके शक्तिशाली शाख्शियत और व्यक्तित्व की ताकत को हम जानते हैं। आप एक हुंकार लगा देंगे तो समूचा देश आपके पीछे आपका अनुकरण करता चला आएगा। आप हिंदी फिल्मोद्योग के सबसे मज़बूत आधार-स्तम्भ हैं। क्या हमें ये विवेचना और विश्लेषण करने की ज़रुरत है कि अमिताभ बच्चन की ताकत क्या है? क्या आप हनुमान जी की तरह अपना बल भूल गये हैं जिन्हें उनका बल याद दिलाने के लिए किसी को जामवंतजी बनना पड़ेगा? आपके प्रभाव से हिंदी फिल्मोद्योग क्या अनजान है, इतना धृष्ट है कि आपकी बात न मानी जायेगी? सिर्फ सरकार ही सबकुछ नहीं कर सकेगी। हमें, आपको भी कुछ करना पड़ेगा। अत: आपसे मेरी प्रार्थना है कि आप अपने बॉलीवुड को भी सुधारने की पहल करने की कृपा करे।


खुद को पहले सुधारने की जो बात मैंने कही है वो सिर्फ कथन मात्र न समझे। मैं आज, अभी ये संकल्प लेता हूँ कि मेरे अपने घर में यदि कोई अशलीलता को बढाने, भड़काने वाली वस्तु का वजूद मिटा दूंगा, ताकि मेरी संतान, मेरी बेटी गुनगुन (शरिष्ठा / SHARISHTHA) भगवान् न करे, उन्हें देखकर ये कहें कि "...छिः ! बाबूजी ने कितनी गंदी चीजों का संकलन कर रखा है!!" मैं सबसे पहले स्वयं को संयमित कर घर की सफाई करूँगा और ऐसी घटिया-अशलील वस्तुओं का, यदि वो मेरे घर में हैं, तो उन्हें अभी तुरंत जलाकर ख़ाक कर दूंगा। मैं जनेउ धारी ब्राम्हण हूँ, मुझे कसम है मेरे स्वर्गीय बाबूजी की कि मैं गऊ का माँस खाऊं जो कभी ऐसी शर्मनाक वास्तु मेरे पास से निकले। कसम है बाबूजी की। ,वो वस्तु चाहे बेशकीमती हो या न हो, नष्ट कर दूंगा। हमेशा के लिए उनका वजूद मिटा दूंगा। पर अपनी बेटी को शर्मिंदा नहीं होने दूंगा। बल्कि वो हिम्मती और जुझारू बनेगी जो इन दरिंदों से अपनी खुद की और अपने जैसी देश की बहन बेटियों की रक्षा के प्रति सजग बनेगी।

"कुछ न कहने से भी छिन जाता है ऐजाज़े सुखन।
ज़ुल्म सहने से भी ज़ालिम की मदद होती है।।"
-----------------------------------(श्री सुरेन्द्र मोहन पाठक की पुस्तक से).

सादर प्रणाम।
आपके सहयोग की अपेक्षा में 
आपका छोटा भाई,
श्रीकांत तिवारी, 
थाना रोड, लोहरदगा (झारखण्ड) 835302 भारत .





 अभी-अभी आपके पोस्ट को पढ़ा जिसमे "डर्टी पिक्चर" और "सनी लिओने" का जिक्र किया गया है। पढ़कर दिल को बहुत सुकून मिला कि मेरी बात को आपके सम्मुख कुछ कद्र मिलेगी। कुछ ही दिन हुए हैं मैंने facebook पर लिखा हुआ है, जिसे यदि आप थोडा वक़्त दें सकें तो शायद मेरी आवाज़ आपकी आवाज़ में मिलकर कुछ बलवती हो सकेगी:


Saturday, December 29, 2012

श्री जगन्नाथ पुरी जी की यात्रा - चौथा दिन

24-12-2012  सोमवार,  जगन्नाथ पुरी 

आज का दिन कुछ विलम्ब से शुरू हुआ। हमारे सो कर उठने में देर की वजह से उदीयमान सूर्य का दर्शन हम सी-बीच पर नहीं कर सके। फिर भी सभी तैयार हो कर सी-बीच पर जा पहुंचे। वहां अभी और भीड़ बढ़ गई थी। छुटियाँ मनाने देश के अनेक हिस्से से ख़ास कर कोलकाता (पश्चिम बंगाल) से आये अधिकांश लोगों की भीड़ थी। हमने रोजाना की तरह बीच पर मछुवारों और मलाहों के कार्यकलापों और मेहनत और उससे प्राप्त जीव-जंतुओं और समुद्री, जलीय अनेक सामानों को देखा। माँ, वीणा और रूपा ने इनमे खूब दिलचस्पी ली और कुछ मोतियाँ खरीदीं। चिलिका में मोती खरीदने में उन्हें बढ़िया चूना लगा था, सो सी-बीच पर उन्हीं वस्तुओं को आधे से भी कम कीमत पर मिलता पा कर जहाँ वे खुश थीं वहीं उन्हें पिछले दिन के ठगी से गुस्सा और अफ़सोस हो रहा था।

काफी वक़्त सी-बीच पर गुजरने के बाद हम होटल वापस आये और समुद्र स्नान के लिए इस बार हम मॉडल-सी-बीच पर गए। वहां ज्यादा भीड़ नहीं थी। बने हुए शेड के नीचे चादर बिछा कर इस बार अपना बाकि बचा बाइफ़ोकल चश्मा मैंने रूपा को संभल कर रखने के लिए दे दिया। और दौड़कर पानी में बच्चों के साथ घुस गया। यहाँ लहरों के दूर में ही गिर कर टूट जाने के कारण उनका वेग किनारे पर आते-आते कमज़ोर पड़ जाता था। गहरे पानी में भी एक सामान्य तालाब जैसा फील हो रहा था। हमें यहाँ उतना मज़ा नहीं आया जितना पहले "गोल्डन बीच" (हमारे होटल के नजदीक वाला) पर आया था। लेकिन महिलाओं को यही पसंद आया जिसका उन्होंने खूब आनंद लिया। हम सभी माँ, वीणा, रूपा और सभी बच्चों ने तक़रीबन 2-घंटे तक समुद्र स्नान का मज़ा लिया। खूब खेले-कूदे। सी-बीच की रेत पर लेटकर स्निग्ध धुप का आनंद लेते समय जिम्मी और सन्नी और गुनगुन ने लड्डू को, कमल को और मुझे बालू से (सर्फ सर छोड़कर) पूरा ढक दिया। तभी वीणा ने मेरे मुँह में कुछ चने दाल दिए जिन्हें मैं चबाने लगा। ये देखकर माँ हंसने लगी। मेरे ऊपर इतना बालू पड़ा हुआ था कि जब उठाना चाहा तो विशेष शक्ति लगानी पड़ी। बालू से निकलकर मैं फिर पानी में कूद गया और खूब डुबकियाँ लगाईं। साफ़ नीले पानी में नहाने का मजा आ गया। तभी मुझे याद आया कि मेरे शॉर्ट्स की जेब में खर्च के रुपये थे ! हाय बाप !! तीसरा धक्क !!! मैंने चेक किया, पैसे सलामत थे क्योंकि जेब का बटन बंद था। फिर सभी मुझे कोसने लगे। मैं खेद से सिर हिलाते पानी से लिथड़े पैसे वीणा को दिए, जिन्हें वो खोल कर धुप में सुखाने लगी। लगता था जैसे वो पैसों की दूकान लगाए बैठी हो! मन में आया कि पूछूं :" बाई ! ये पाँच सौ वाले का कितना दाम है!?" पर वो और भड़क जाती इसलिए चुपचाप फिर समुद्र के कूद गया।

स्नान से लौटकर हम झटपट तैयार हुए और चेरू ड्राईवर के साथ गाड़ी में कोणार्क के लिए रवाना हो गये। कोणार्क में हमने एक गाइड (नाम : प्रताप) ठीक किया जिसके सहायता से हजारों लोगों की लम्बी लाइन के बावजूद हमें आसानी से प्रवेश टिकट मिल गया। गाइड की कमेंट्री के साथ हमने पूरे मोन्यूमेंट को अच्छी तरह से देखा। खूब तस्वीरें लीं गईं। हैण्डीकैम से विडियो शूट किया। वहां भी शंख हमें मुनासिब दाम पर नहीं मिला। तब कमल ने बताया कि पिछली शाम को सी-बीच पर वीणा ने एक शंख पसंद करके दाम पटा भी लिया था लेकिन वो और कम कीमत देना चाहती थी तो दूकानदार ने देने से इनकार कर दिया था। तब चेरू ने कहा कि पुरी में मंदिर के सामने के बाज़ार में हमें मुनासिब दाम पर इससे भी बढ़िया शंख मिल जायेगा।

हम पुरी वापस आ गए। और मंदिर के सामने खूब भटकने के बाद एक  जगह "सौदा" पट गया, और मुझे मेरा शंख मिल गया।

इसके बाद हम वापस अपने होटल के पास "गोल्डन सी-बीच" के मेले में चले गए जहाँ बच्चों के साथ मैं रोलर-कोस्टर, जिसे हम अपनी जुबान में "रमढुलुवा" कहते हैं, पर चढ़ा। ऊंचाई से सी-बीच का मनभावन नज़ारा देखकर दिल झूम गया। अफ़सोस कि मेरे हाथ में उस वक़्त कैमेरा नहीं था। झूले का मज़ा मुझे मेरे बचपन की याद करा गया।

वहीं बीच पर किनारे लगी कुर्सियों पर बैठकर कुछ खाते-पीते हम समुद्र को और उसकी गरजती लहरों को देखकर आनंदित होते रहे।

फिर होटल वापस।

गुड नाईट।
जय जगन्नाथ!
_श्रीकांत .
..........................................................................जारी

श्री जगन्नाथ पुरी जी की यात्रा -तीसरा दिन

23-12-2012 रविवार ; जगन्नाथ पुरी 

...आज की मेरी शुरुआत हुई बीच पर उदीयमान सूर्य के दर्शन और वाक से। मैं, कमल और लड्डू बीच पर गये, बाकी कोई उठाये न उठा।

बीच पर का भोर का नज़ारा और उसका अलौकिक वातावरण मेरे लिए अवर्णनीय है, मैं स्वयं को इसके काबिल नहीं पाता कि इसके सम्बन्ध में कुछ कसीदे पढूं या लिख सकूँ। बस यही कह सकता हूँ : अदभुत ! विहंगम ! भब्य ! विशाल ! आदि ! अगाध ! अबाध ! अनंत ! प्रलयंकारी ! जीवदायिनी ! शांत ! एक कविता ! एक गाथा ! एक पूरा महाकाव्य ! और सम्पूर्ण जीवन का सार ! समुद्र, महासमुद्र ...दुस्तर, दुर्गम, अपार ..........!!

हम बीच पर खूब दूर तक अपने हाथ में अपने जूते थामे नंगे पाँव सुबह की नर्म रेत पर घूमते-टहलते भोर की ताज़ी हवा में सांस लेते-छोड़ते काफी दूर तक चले गये। दूर समुद्र के गहरे पानी में तैरते मछुवारों और मलाहों के मेहनत-मशक्कत को निहारते हमें नई अनुभूति का आनंद मिल रहा था। अपने जाल, जिसे मछुवारों और मलाहों ने रात की मेहनत से डाला था अब उसे वो कई जने आपस में मिलकर उसे खींच रहे थे। यूँ समेटी गई जाल में कई तरह के समुद्री जलीय जीव-जंतु, मछलियाँ, केंकड़े, झींगे, सीप, शंख, मूंगे, मोती मिले जिसे हम देख कर हैरान भी हुए और हर्ष भी हुआ। मैंने एक गंभीर शब्द करने वाला कंटीला शंख खरीदा। फिर वहीँ बीच पर चाय का लुत्फ़ उठाया। लौटने पर मैंने डुग्गु के सामने बैठ कर जोर से शंख बजाया, मारे डर के डुग्गु रोने-चीखने लगा।

आज हमने चिलिका झील की सैर को निकल पड़े। हमारा ड्राईवर "चेरू" बड़ा ही दक्ष ड्राईवर था, और पुरी का चप्पा-चप्पा जानता था। उसने हमें रास्ते में पड़ने वाले कई और दर्शनीय स्थलों, मंदिरों को दिखाया। इस दरम्यान रास्ते  चेरू ड्राईवर हमें एक मंदिर में ले गया, जिसके दर्शन के बाद जब हम चिलिका जाने के लिए जैसे ही गाडी में बैठे वीणा की तबियत अचानक बिगड़ गई। आधे घंटे हम परेशान रहे। वीणा जब संभली तो उसे याद भी नहीं था कि उसके साथ क्या बीती थी ! यहाँ तक कि उसे सुबह मुझसे हुई अनेक और बातें भी याद नहीं थी!! ............!!!

हम चिलिका पहुंचे। खाने-पीने का सामन ख़रीदा। बोट की टिकट कटाई और एक बोट पर सवार होकर हमने पूरे 5-घंटे झील में बोटिंग करते गुजारा। एक जगह, काफी इंतज़ार के बाद हमें पानी में हलचल होती दिखी, डोल्फिने पानी के नीचे से ऊपर नहीं आ रहीं थी। आज उनका मिजाज़ बहार आने का नहीं था, फिर भी पानी के नीचे से डाइव मरते एक डोल्फिन की दुम दिखी और हम हर्ष से यूँ चिल्लाये जैसे वो हमारी गोद में आ बैठी हो। काफी देर हो चुकी थी, सबको भूख भी सता रही थी। आते वक़्त रास्ते में हमने चेरू के बतलाये एक रेस्टुरेंट में पहले ही खाने का आर्डर दिया हुआ था। खाना हमें तैयार मिला। भोजन के बाद हम वापस पुरी लौट आये और सी-बीच पर लगे मेले में घूमने लगे। मेरा एक बढ़िया वाला, खूब ज़ोरदार आवाज़ करने वाला, भारी, चिकना असली समुद्री शंख लेने का बहुत मन था, इसे सभी शुरू से जानते थे, सो सबने वहाँ लगे बाज़ार में शंख ढूंढना शुरू किया, जब कोई पसंद आता तो उसकी कीमत सुन कर मन उतर जाता था, क्योंकि मोल-मोलाई बाद भी जो रकम तय होती वो भी हमसे चुकाया न जा सकता था। यूँ ही बीच पर ही कुछ खाया। किसी का खाना खाने का मन नहीं था। अत: हम होटल वापस आ गए। और बिस्तर के हवाले हो गये।

गुड नाईट,
जय जगन्नाथ!
_श्रीकांत .
...................................................................................................जारी 

दिल्ली गैंग-रेप की शिकार बच्ची का सिंगापूर के हस्पताल में निधन

अभी-अभी (सुबह 10:33 बजे) ये दुखद समाचार मेरे मोबाइल पे मिला कि दिल्ली गैंग-रेप की शिकार बच्ची का सिंगापूर के हस्पताल में निधन हो गया !! ...........!! टीवी और इन्टरनेट पर यह दुखद समाचार प्रसारित हो रहीं है।
भ्रष्टाचार ! आतंक ! हत्या !! बालात्कार !!! से त्रस्त मैं तुम्हारी भारत माँ का ध्वज ! तुम्हारी आन-बान और शान सहित तुम्हारी वीरता का प्रतीक ! तुम्हारा तिरंगा ! शर्म और तुम्हारी निश्कर्मन्यता की कालिख से आज मैला हो चूका हूँ। मुझे मेरा हक और इन्साफ चाहिए! मुझे मेरा दामन साफ़ करके दो!

आज मुझे कोई ख़ुशी प्रसन्न नहीं कर पाएगी।
बहुत ही अफ़सोस, दुःख, निराशा-हताशा मिलकर क्रोध के रूप में मेरे प्राण क्षीण कर रहे हैं। इस विवशता और अपनी कमजोरी पर मुझे अत्यंत खेद है।

श्रीकांत  .


श्री जगन्नाथ पुरी जी की यात्रा - दूसरा दिन

22-12-12 शनिवार ; जगन्नाथ पुरी :

आज सुबह हम सकुशल 'पुरी' पहुँच गये। स्टेशन पर मोटर गाडी हमें हमारे होटल ले जाने के लिए उपलब्ध थी। हम जैसे ही चेक इन किये बच्चों, ख़ास कर जिम्मी, ने सबसे पहले सभी बात छोड़ कर सी-बीच जाने की जिद्द पकड़ ली। मैं भी उन्हीं के सुर-में-सुर मिलाकर बातें करने लगा। अन्ततः सी-बीच पर जाने का फैसला सर्वसम्मति से पास हुआ, सभी ने सी-बीच, समुद्र स्नान के मुनासिब कपडे पहने/बदले, मैंने डुग्गु को कंधे पर बिठाया और सी-बीच के लिए निकल पड़े। हम सभी पैदल ही सी-बीच पहुँच गये। वहाँ पहुँचते ही मैं नन्हा बच्चा बन गया।

सी-बीच पर मेला जैसा दृश्य था, अपार भीड़ थी, हर्षित-उल्लसित जन-समूह के अभूतपूर्व मनमोहक दृश्य से हमारी सारी थकान मिट गई। भीड़ और पानी में किलोल करते हज़ारों लोगों की मौजूदगी के बावजूद सी-बीच खाली-खाली लगता था।

मुझे नेत्र दोष है। नेत्र विकार मुझे बचपन से है जिसके कारण मैं हर वक़्त चश्मे का मोहताज़ हूँ। मुझे 2-प्रकार के चश्मे पहनने पड़ते है। एक फोटोक्रोमैटिक ड्राइविंग इत्यादि के लिए, दूसरा बाइफ़ोकल पढने-लिखने के लिए। बीच पर मैं फोटोक्रोमैटिक चश्मे को पहने गया, जिसे मैं हमेशा पहनता हूँ, जिसकी मुझे आदत पड़ गई है। महिलाओं ने रेत पर चादर बिछाई, एक रंगीन छतरी वाले से बड़ा छाता लेकर रेत में खड़ाकर उसकी छाँव में सभी अपने कपडे बदलने लगे। मैंने अपना T-शर्ट और जूते महिलाओं के पास रखा और जिम्मी, सन्नी, लड्डू और गुनगुन के पीछे किलकारियां मरता भागा। मैं उन्हें लगातार हिदायतें दे कर कंट्रोल में रह कर स्नान करने और खेलने-कूदने को कह रहा था। गुनगुन पानी में जाने से डर रही थी और गीले रेत पर कूद-फांद रही थी। तभी माँ आ गई और सभी बच्चों के सिर को निवछ-निवछ कर जय गंगा माइया कहकर समुद्र में सिक्के अर्पण करने लगी। मैं भी धार्मिक भाव से "जलनिधि" की स्तुति करने लगा, और मंत्रोच्चार कर नतमस्तक हो गया। तभी माँ ने मेरे सिर को निवछकर सिक्के समुद्र में उछालना चाहा, पर मैंने देखा कि वो सिक्कों को ज्यादा दूर नहीं फेंक पा रही थी सो, मैंने माँ के हाथ से सिक्के लेकर जयजयकार का उदघोष करते हुए जोर से सिक्कों को दूर तक समुद्र के अर्पण कर दिया। उसके बाद फिर मेरी उधम शुरू हो गई, बच्चों के साथ मैंने जमकर डुबकियाँ लगाईं। अचानक मुझे कुछ गडबडी का अहसास हुआ! मुझे हमारा शेड, माँ, वीणा, रूपा, डुग्गु नज़र नहीं आ रहे थे। मुझे सबकुछ धुंधला-धुंधला दिख रहा था!! ...हाय बाप ! ...मेरा चश्मा !! ...मेरा चश्मा !!! बड़ी-बड़ी लहरों से उलझते-उठते-गिरते-पटकाते मैं नीचे पानी  अपने दोनों हाथों की उँगलियों से रेत को बुरी तरह खंसोटने लगा, तब तक मेरी गुहार बच्चों ने भी सुन ली थी, वे भी मेरा चश्मा ढूँढने लगे, किनारे से माँ, वीणा भी आ गईं और मुझे डांटने लगीं। हमने खूब ढूंढा पर अफ़सोस मेरा चश्मा समुद्र के अर्पण हो चूका था। जलनिधि ने मुझसे मेरा चश्मा चीन लिया (पहनेंगे क्या?)_ ! ये थी हमारी पहली "धक्क"!! इसी बीच एक बड़ी लहर की मार लड्डू से झेला न गया और वो बुरी तरह त्योराकर गिरा और पानी में डूबने-उतराने लगा। हमने उसे संभाला। हमने उसका हाल पूछा तो पाया कि बच्चे के घुटने बुरी तरह ऐंठ गए थे और उसे गहरी पीड़ा हो रही थी, वो ठंढ और भय के कारण थरथर काँप रहा था। हम उसे किनारे अपने शेड के पास ले गए, कमल ने उसके घुटने की मालिश की, उसे पैर झटकने में दर्द हो रहा था और उससे चला नहीं जा रहा था। ये थी हमारी दूसरी "धक्क!!" हमने धुप में उसे बिठाया और उसके घुटने के मुआयने से जाना कि किसी किस्म का फ्रैक्चर नहीं था। नसों में खिंचाव आ गया था। धीरे-धीरे उसकी हालत सुधरने लगी। तभी गुनगुन की नज़र एक ऊँट पर पड़ी। सजा-धजा ऊँट गुनगुन को बहुत सुन्दर लगा, वो उसकी सवारी के लिए मचलने लगी। जिम्मी-सन्नी समुद्र में मगन थे इसलिए हमने लड्डू को गुनगुन के साथ ऊँट पर चढ़ाया। ऊँट वाले ने सीढ़ी लगाकर बच्चों को चढ़ने में मदद की। ये देख मुझे भी ताव आ गया और सीढ़ी की सहायता से ऊँट पर जा बैठा। मुझे चढ़ते देख वीणा ने कहा :" अरे, आप कहाँ चढ़ रहे हैं! ऊँटवा इतना भारी बोझा सहने सकेगा का !?" सभी हंसने लगे। ऊँट जैसी आगे चला उसकी डगमग से गुनगुन चिल्लाने लगी, फिर मेरे पुचकारने पर, लड्डू के कहने पर वो शांत हुई और ऊँट की सवारी का भरपूर आनंद लेने लगी। ऊँट की सवारी के बाद हम सभी और बारी-बारी सभी महिलाओं ने समुद्र स्नान का खूब आनंद उठाया।

वीणा, सन्नी, लड्डू और गुनगुन का यह पहला अनुभाव था "समुद्र दर्शन, और स्नान का!" वीणा ने काफी डरते-डरते, कुछ समुद्र के विकराल स्वभाव को देखकर, कुछ अपने "4-चार ऑपरेशन; सर्ज़री" झेल चुके ज़ख़्मी बाएं हाथ की वजह से, इनके बावजूद उसकी प्रसन्नता से हम भी प्रसन्न थे, हमने खूब मस्ती की। गुनगुन रेत से पहाड़, इत्यादि बनाती और लहरें उन्हें तोड़कर अपने साथ बहा ले जातीं। अब लड्डू भी समुद्र स्नान को एन्जॉय करेने लगा। नए ख़रीदे डिजिटल कैमेरे से खूब तस्वीरें खींची गईं। कमल ने जिम्मी से अपना खुद का फोटो खीचने को कहा और 1979 की अपनी चिपरिचित मुद्रा में कमर पर हाथ रखकर सिर्फ चड्ढी में खड़ा हो गया। इस तस्वीर को जब हमने देखा तो खूब हँसे, 1979 का नन्हा "गबुदन", अभी एक दुधारू गाय की तरह दिख रहा था।

अब रूपा भी कमल के साथ पानी में आ गई। डुग्गु को वीणा ने संभाला। रूपा पहले डरते-डरते, फिर खुश हो कर समुद्र स्नान का आनंद लेने लाफि। फिर माँ भी आ गई, पर लहरों के थपेड़ों के आगे उसकी पेश नहीं चल रही थी और हमारे करीब नहीं आ पा रही थी। हमने माँ को संभाल कर अपने नहाने वाले सुरक्षित स्थान तक ले आये। उसे स्वतंत्र छोड़ कर हम खेलने लगे। तभी एक प्रोफेशनल फोटोग्राफर हमसे फोटो की रिक्वेस्ट करने लगा। तब हमने वीणा को भी फिर पानी में बुला लिया, लड्डू डुग्गु के साथ रहा। इस दरम्यान माँ कई बार गिरी-उठी, जैसे ही फोटोग्राफर ने रेडी बोलता, लहरों के जोरदार थपेड़े हमें बिखेर देते थे, एक बड़ी लहर के जोरदार धक्के से माया 30-फुट दूर किनारे तक बहती चली गई, माँ को यूँ बहते किनारे की ओर जाते देख सभी खूब हँसे, माँ भी हंसने लगी। हँसते हुए उठकर हम फिर जमा होते और फोटोग्राफर हमसे पोज़ बनाने को कहता। वीणा इससे थोड़ी अनसा गई। फिर भी कुछ तस्वीरें खिंच गईं। फिर माँ, वीणा और रूपा शेड में चली गईं।

खारे पानी से मुँह का स्वाद बिगड़ गया था, सो हमने सी-बीच पर बिकते खाद्य-पदार्थों में से कुछ नमकीन और कुछ रसगुल्ले और दूसरी मिठाइयाँ खाईं। फिर बदन सुखा कर रेत झाड़कर कपडे पहन कर हम होटल लौटे जहाँ मैंने गर्म पानी से फिर स्नान किया। खाना खाए। सभी इतने थक चुके थे कि बिस्तर में ही पनाह सूझी। सभी गहरी नींद में सो गए।

शाम में धुले हुए स्वच्छ वस्त्र पहन कर हम सभी श्रीजगन्नाथजी के मंदिर, पूजा और दर्शन के लिए गए। हमारे ड्राईवर ने एक पण्डे को बुलवाया और हमें उसके हवाले कर दिया। पण्डा श्री जगन्नाथ प्रतिहारी जी उर्फ़ हाड़ू पण्डा जी ने हमें सबकुछ समझाया कि कहाँ क्या करना है और कहाँ क्या नहीं करना है। पार्किंग एरिया से हम पैदल ही भगवान के दर्शनों को चल दिए। वहाँ सभी ने जूते-चाप्पल जमा कर टोकन लिया। एक नल के पास जाकर हाथ-पैर धोए, सर पर जल छिडका और हाड़ू पंडा जी के निर्देशानुसार उनके पीछे-पीछे चले। पण्डा जी ने हमसे चढ़ावे की बात की, दक्षिणा की रीत समझाई तो घर का कर्ता होने के कारण मुझे पण्डा जी रजिस्ट्रेशन ऑफिस में ले गए जहां 501/-रुपये से ले कार एक (मेरे लिए) अविश्वसनीय राशि के चढ़ावे और उसकी रीत समझाई। मैंने अपनी ताकत-हिम्मत और औकात के अनुसार एक राशि पर अपनी सहमती दी तो रजिस्ट्रेशन ऑफिस के कर्मचारी और श्री हाड़ू पण्डा जी ने मुझसे तर्क-कुतर्क, वाद-विवाद और समझौवल-मानौवल करने लगे। उनके आगे मेरी पेश न चल सकी, आखिरकार एक उन्हीं के निर्दिष्ट राशि पर कि इससे मुझे, मेरे समस्त परिवार को, मेरे पुरखों को क्या-क्या मिलेगा, मैंने अपनी हामी भरी। तब_! बकायदे मेरे पूरे परिवार के सदस्यों का स्वर्गीय पूज्यवर बाबूजी के नाम के साथ सभी का नाम रजिस्टर हुआ। और हमें दर्शन की परमिट मिल गई। मंदिर में जहां भगवान् स्वयं बहन सुभद्राजी और भईया बलभद्रजी के साथ विराजमान हैं, जब हम वहां पहुंचे तो पाया भगवान् और उनके भक्तों के बीच एक लम्बा फासला है और मुख्य द्वार पर बॉक्सर और बाउंसर जैसे मुस्टंडे पण्डों के वेष में तैनात हैं, कुछ उम्रदराज़ पण्डे द्वार पर फर्श पर ही पसरे हुए हैं, और भगवान इनके बंदी और कैदी बने हुए है। पंडों और दर्शनार्थियों में बकायदे झगडा-झन्झट हो रहा है, पण्डे बेरहमी से दर्शनार्थियों को धकिया रहे थे। हमने हाड़ू पन्दा जी के समझाए मुताबिक प्रवेश करना चाहा तो नीचे बैठे एक वृद्ध पण्डे ने बेरहमी से मुझे धकेल दिया। तभी हाड़ू पण्डा जी ने कुछ संकेत दिया, हमें कहा गया यहीं से दर्शन कर लो, सो बारी-बारी हमने की। फिर हम वहां से निकले तो मुझे मेरे भगवान् के मनोवांछित दर्शन संयोगवश बड़ी सुलभता से हो गई! वो थे वट-वृक्ष के पत्ते पर विराजमान श्रीकृष्ण !! मैंने आज्ञा लेकर भगवान् के चरण पकड़ लिए। मन भारी हो गया। फिर सभी से उनके दर्शन किये। फिर हमें माँ लक्ष्मी के मंदिर में ले गए, जहाँ का नज़ारा ऐसा था की "टिकट" देखकर प्रवेश की आज्ञा मिलती थी। द्वार को घेरे खड़े पण्डों ने एक बड़ा सा परात रखा था, जिसमे बिना "बड़े नोट" डाले बगैर प्रवेश वर्जित था, सभी निराश होकर वापस होने लगे तभी मैंने मन-ही-मन दृढ निश्चय लेकर परात में एक सौ रुपये का नोट डाला, तुरंत मुझे दाखिला मिल गया। मैं माँ लक्ष्मी के भब्य विग्रह के आगे भाव-विह्वल खड़ा होकर स्तुति करने लगा। वहां एक 22/24 वर्षीय युवक पण्डा बना बैठा था उसने बिना मेरे कहे, बिना मुझसे पूछे मेरे से कुछ कर्मकांड कराने लगा। फिर बारी आई मोल-भाव की! तुरंत हमारे हाड़ू पण्डा जी प्रकट हुए और युवक को संकेत किया। युवक एक ख़ास रकम का खूंटा गाड़ कर जिद्द करने लगा, मैंने उनकी बड़ी मिन्नतें की। कोई सुनवाई नहीं। आखिरकार मैंने जब अपनी जेब झाड दी तो मेरे पास सिर्फ एक 50/ रूपए का नोट भर बचा था!! वहां से निकला तो सभी मुझपर टूट पड़े, :"क्या ज़रुरत थी अन्दर जा कर पैसे चमकाने की!!??" मैं उन्हें कैसे समझाता की "माँ" अनमोल है। मैं संतुष्ट था। कोई शिकायत नहीं।

हाड़ू पण्डा जी ने हमारे चढ़ावे की, मेरे आग्रह पर, 2 पैकिंग बनवा लाये थे। और एक मिटटी की हांड़ी में "महाप्रसाद" लेते लाये थे जो शुद्ध घी में पकी खिचड़ी थी। हमने प्रसाद पाया। भगवान् को पुनः नमस्कार किया, हाड़ू पण्डा जी की "फीस", मेरे कहने पर, कमल ने चुकाई। फिर हम वापस लौट चले। मन बहलाने के लिए हम सी-बीच पर आ गए। वहां के मेले जैसे माहौल में हमारा दिल फिर प्रसन्न हो गया। घूम-फिरकर हम वापस होटल लौट आये। रात्रि भोजन (शाकाहारी) होटल में ही हुआ। यूँ हमारा आज का दिन बीता।

गुड-नाईट!
जय जगन्नाथ!  
_श्रीकांत .



श्री जगन्नाथ पुरी जी की यात्रा - पहला दिन

श्री जगन्नाथ पुरी जी की यात्रा 21,दिसंबर,2012 से ... 26,12,12 तक :-

21-12-2012 पहला दिन,  हटिया (राँची) स्टेशन  :
इस समय हमारी ट्रेन 'हटिया-पूरी, तपस्विनी एक्सप्रेस एक अनजान हाल्ट पर खड़ी है, समय सायं 08:44 ...

               यात्रा की तैयारी कल दिनभर और देर रात तक करने के बाद __ आज 21,12,12 को सुबह 5 बजे ही मैं जाग चूका था। माँ के तरफ से आती आहटों की आवाज़ से लग रहा था कि घर को झाड़ू से बुहारने लगी थी। हमारे कमरे में माँ ने प्रवेश किया :"...वीणा! जाअगा ! बिहान हो गइल।" वीणा :"हाँ माँ ! मैं नींद में होने का बहाना करते यूँ ही बडबडाया :"अर्रे ! क्या हुआ? अँधेरे में कहाँ जा रही हो, देखो ठीक से जाना, बत्ती जला दूं या साथ चलूँ, गिरना मत।" वीणा :"चुप रहिये, बकर-बकर मत करिए, अभी आप सुतले रहिये चुपचाप।" ...और फिर राँची प्रस्थान की तैयारी होने लगी। मैंने निश्चय किया था कि शिट-शेव-शावर राँची में ही करूँगा। सिर्फ ब्रश किया और कपडे पहन कर सभी सामानों को चौकस करने लगा कि सबकुछ सोचे-विचारे योजना और बच्चों के शौक और फरमाइशों के मुताबिक सबकुछ ठीक था या नहीं। फिर सभी तैयारी हो जाने के बाद माँ ने धीरू (मेरे मौसेरा भाई) को आवाज़ दी :"धीरू ........", धीरू :"हं हं, जागल बनी, एकदम रेडी।" चूंकि राँची में भी काम था अत: हमने ज्यादा देर नहीं की। धीरू के तैयार होकर गाड़ी द्वार पर लाने तक मैं स्व. पूज्यवर बाबूजी की मूर्ती के सामने बैठकर स्तुति-प्रार्थना करने लगा। तब तक सभी सामन गाड़ी में रखा जा चुका था। मैंने मलुवा और उसके बच्चों को दुलार किया, फिर हमने घर को चेक करके लॉक किया, धीरू ने ड्राइविंग संभाली, तभी मैं गद्दी चला गया, और मोहन चाचा से मिलकर शीघ्र लौटकर गाड़ी में बैठा और पेन-ड्राइव लेकर ऑडियो सिस्टम को अपने पसंदीदा ट्रैक पर सेट कर दिया। धीरू ने गाड़ी स्टार्ट की और श्री गौरी-गणेश-महेश की जय, भईया बलभद्र जी, बहिनी सुभद्रा जी, श्री-जगन्नाथ भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र जी की जय बोलकर हम निकल पड़े। गाडी में जो पहला गाना बजा वो मनोज कुमार के एल्बम से "_ मेरा रंग दे बसंती चोला" से शुरू हुआ। मधुर संगीत का आनंद लेते हम राँची फ्लैट पर पँहुच गये। वहाँ हमने अपनी तैयारी रिफ़्रेश की। मैंने शेव किया, शिट कहीं सटक गया था, फिर शावर की जगह लोटा-बाल्टी से ही हर-हर गंगे बोल कर स्नान किया। नाश्ते के बाद हम मार्किट निकलने ही वाले थे कि जिम्मी अपनी चप्पल को मरम्मत कराने मोची के पास चला गया। उसके जाते ही जब मैं जूता पहन रहा था कि पाया कि उसका सोल (हील के पास से), बुरी तरह उखड कर लटका हुआ था! "...हं ...हं ...हं, कल मलुवा को मारने के लिए दौडाए थे और मैं गिरते-गिरते बचा था, ज़रूर उसी वक़्त जूते का सोल उखड़ गया होगा। अब तो समस्या हो गई। जिम्मी जा चूका था, अचानक लौट आया। बोला मोची कहीं नहीं है, शायद आज आया ही नहीं। तब धीरू ने एक झोले में सभी टूटे जूते-चप्पलों को लेकर गया और आधे घंटे में मरम्मत करा कर वापस आ गया। फिर जिम्मी, धीरू और मैं शोपिंग के लिए बाज़ार चले गए।हमारे पास कोई ढंग का कैमेरा नहीं था, अत: रूपा की इच्छा थी कि एक अच्छी क्वालिटी का डिजिटल कैमेरा हमारे साथ होना चाहिए। जिम्मी ने अपने स्किल्स से एक बढ़िया कैमेरा खरीदवा दिया, जो सबको खूब पसंद आया। सिवाय वीणा के। उसकी नज़र में ये फिजूलखर्च था। जिम्मी ने अपने लिए और अपने छोटे भाइयों के लिए शोर्ट पैन्ट्स खरीद्वाये। तबतक घडी डेढ़ - पौने दो बजाने लगी थी और रह-रह कर मोबाईल बजने लगा, कभी वीणा, तो कभी कमल। हम शीघ्रता से घर पहुँचे। फिर सभी सामान गाडी में लाद गया, जिससे पूरी गाड़ी भर गई। जैसे-तैसे एडजस्ट होकर हम निकल पड़े। इस बार मैंने ड्राइव की। हम हटिया स्टेशन सवा तीन बजे पहुँच गए। 04:05 में गाड़ी खुलने वाली थी। गाड़ी प्लेटफोर्म नंबर-1 पे खड़ी थी। कमल ने और मैंने सबको निर्देश दिया और सभी ने मिल-बाँट कर सभी सामान उठाया प्लेटफोर्म की तरफ बढे। माँ ने गुनगुन को डांट-डपट कर कंट्रोल में रखा। मेरे आगे जिम्मी, सन्नी, लड्डू, रूपा जिसकी गोद में डुग्गु था, चले। मेरे पीछे माँ, वीणा, कमल और धीरू थे। कमल सबको बार-बार बोल रहा था कि हमारी बर्थ बोगी नंबर S-8 में है। S-8 तक सामान के साथ लंबा वाक करना पड़ा, जिसके कारण कभी कोई आगे हो जाता था तो कभी कोई पीछे रह जाता था, फिर भीड़ में गर्दन उचका कर उन्हें देखकर संतोष से S-8 की तरफ चले। पहुँचने पर सबसे पहले जिम्मी,सन्नी, लड्डू और गुनगुन S-8 में प्रवेश किये। उनके पीछे रूपा थी जिसे मैंने कहा :"रूपा ! यही S-8 है, चढ़ो-चढ़ो!" रूपा ने कहा कि वो बोगी के अगले दरवाजे से प्रवेश करेगी, क्योंकि उधर से हमारी बर्थ नजदीक थी, वो डुग्गु को गोद में लिए हुए बोगी में प्रवेश कर गई, तबतक वीणा ठीक मेरे पीछे थी। मैंने अपने हाथ के सभी सामान बोगी पर चढ़ाया फिर खुद चढ़ा, मुझे पूरा भान था कि वीणा ठीक मेरे पीछे है और मुझे फौलो कर रही है, वो मेरे पीछे आ जायेगी। फिर उसके पीछे कमल, माँ और धीरू तो थे ही। मैंने अपना सामान फिर उठाया और अपने नंबर वाली बर्थ के पास पहुंचकर देखने लगा कि सभी जन आ चुके हैं या नहीं। तभी माँ ने कहा :"अर्रे! बीना केने गईली, आह ददा छोड़ देला स का उनका !?" अचानक सभी हैरान-परेशान वीणा को ढूँढने लगे। वीणा बोगी में कहीं नहीं थी !! हम सभी मर्द बोगी से बाहर निकल कर प्लेटफोर्म पर पागलों की तरह वीणा को ढूँढने लगे। मैं और कमल आगे बढे, काफी दूर इंजन के पास से कमल ने हाथ हिलाकर मुझे इशारा किया कि वो वीणा के साथ आ रहा है। "हाय बाप ! वीणा इंजन के पास तक चली गई थी !"वो जब आ कर हमसे मिली तो हम आपस में शोर-शराबा करने लगे। वीणा का चेहरा फक्क पड़ा हुआ था। जब बोगी में उसे माँ और रूपा के पास लेकर पहुंचे तो वहां नया शोर-शराबा हुआ। ...फिर शांत। सबकुछ एडजस्ट और सभी कोई सैटलडाउन हो चुके थे। मैं और धीरू कुछ सॉफ्ट ड्रिंक्स लेने चले गए। तभी गाड़ी  के हूटर ने आवाज़ दी और हम सभी गाड़ी में अपनी सीट पर आ बैठे। धीरू ने भावभीने होकर सबको हैप्पी जर्नी कहा और बड़ों को प्रणाम कर बोगी से नीचे उतर कर खिड़की के पास आकर बच्चों और डुग्गु को दुलार किया, तभी गाडी सरकने लगी। धीरू ने हाथ हिलाते हमें विदा किया। गाडी खुल चुकी थी। मैंने मन-ही-मन इश्वर को याद किया और "रक्षा करो, करते रहना" की गुहार लगाईं। यात्रा शुरू हो शुकी थी। हम श्री जगन्नाथ पुरी जी की यात्रा पर रवाना हो चुके है। तभी एक नंबर सिक्स (हिजड़ा) आता दिखा। मैंने सबको सावधान किया। नंबर सिक्स (हिजड़ा) हमारे पास आया। उसने शेव की हुई थी और लिपस्टिक, काजल, बिंदी वगैरह धारण कर साड़ी पहने हुए था। उसके बांये हाथ की सभी उँगलियों में 20-10 के नोट लगे हुए थे जिन्हें अपनी अदाओं के साथ दिखलाकर हमसे पैसे मांगने लगा और दुआएं देने लगा। मैंने उसे एक 10 का नोट थमाया। उसने अपने तरीके से मुझे और मेरे आस-पास बैठे सभी जन को दुआएं दीं और ऊपर वाले बर्थ पर बैठे जिम्मी,सन्नी, लड्डू और गुनगुन से पैसे मांगने लगा तो वीणा ने उससे कहा की ये सभी हमारे ही बच्चे है, सो जो दिया वो सबकी तरफ से है। नंबर सिक्स (हिजड़ा) ने वीणा के मुंह के सामने अपनी बहुचर्चित ढंग से हाथ से ताल ठोक कर कहा :"आय हाय ! ये कहाँ से आई रे बाबा इ मीना कुमारी!" हमारी बेसाख्ता हंसी छूट पड़ी। फिर वो, नंबर सिक्स (हिजड़ा) लहराते बल खाते लचकते-मचकते आगे चला गया। पुरे रास्ते हम वीणा को मीना कुमारी बोलकर चिढाते रहे।

                    खाते-पीते, हँसते-गाते, मौज मानते,खेलते-खिलाते हमारा सफ़र शुरू हो चूका था। अभी हमारी गाडी राउरकेला से आगे झारसुगड़ा स्टेशन से खुली है। अभी जब मैं लिख रहा हूँ, समय है रात्रि 09:40PM.

शुभ रात्रि।
जय जगन्नाथ।
------------------------------------------------जारी ...

Friday, December 28, 2012

बादशा बेटे , पूरी में सचमुच मुझे बहुत गुस्सा आ गया था। वहीं साक्षी-गोपाल मंदिर में तो पण्डों ने मिलकर इस बुरी तरह हमें घेर था कि मुझे भागने में ही पनाह दिखाई दी। कमल फंस गया था, कुछ देर के लिए तो ऐसा लगा जैसे हमें बंधक बना लिया गया है जो अब उनके मुंहमांगे दाम चुकाए बगैर खैर नहीं, आखिकार उन्होंने काफी दुर्व्योहार किया और मजबूरन हमें पैसे चुका कर ही मुक्ति मिली। इसके बाद हम फिर किसी मंदिर में नहीं गए।

हाँ ! सी बीच पर घूमना-टहलना, समुद्र स्नान का हमने खूब आनंद उठाया। कमल की एक तस्वीर सिर्फ तुम्हारी दिलचस्पी के लिए पोस्ट कर रहा हूँ। 1979 के दिसंबर में इसी पोज़ में एक काला ब्लेज़र पहने इस लड़के की फोटो आज भी खूब पसंद है, पर 2012 दिसंबर में इस ''बच्चे'' को (after metamorphosis) देखकर बतलाओ कि ये आदमी है या दुधारू गाय !!?

__श्रीकांत मामा


Thursday, December 27, 2012

पुरी यात्रा से लौट आये

27,दिसंबर,2012  "अभिनन्दन", कोकर, राँची     07:20 प्रात: 
   
               हम कल 26`दिसंबर को पुरी यात्रा से लौट आये। कल लड्डू का यूनिट-टेस्ट था जिसके वजह से हम हटिया स्टेशन जहाँ धीरू गाडी लेकर आ गया था, से ही लड्डू को साथ लेकर लोहरदगा भागे-भागे पहुंचे।लड्डू को उसके क्लास-रूम में पहुँचाने गए तो प्रिंसिपल सर से सीधे टकराय, ठंढ से हाथ मलते, मुंह से भाप छोड़ते बोले : " कहिये तिवारी जी ! आज ठंढ की वजह से आपको खुद बच्चे को लेकर आना पड़ा! बहुत ठंढ है आज, इसीलिये मैंने 1 घंटे के लिए क्लास रुकवा दी है, कुछ धुप आ जाय तो फिर बाकि क्लास शुरू होंगे। (लड्डू से) तुम अपनी क्लास में जाओ, तुम्हारा टेस्ट शुरू हो गया होगा, तुम जाओ। ...हाँ! तिवारी जी! और सब कुछ ठीक है न!" मैंने उनका शुक्रिया अदा किया और वापस स्कूल से बहार आ गया। हम घर पहुंचे। घर खोलते ही मलुवा हम पर झपटी और सभी को सूंघने-चाटने की कोशिश करने लगी और लोटकर, कूदकर अपना अनुराग जताने लगी। गाड़ी से सामन उतारने से पहले हम मलुवा के बच्चों को ढूँढने लगे, उसी से पूछने लगे : "अरे, बचवन कहाँ गे? मलुवा ने अपनी भाव-भंगिमा से उत्तर दिया होगा पर हम कभी उसके पीछे तो वो कभी हमारे पीछे, ...फिर मलुवा को पिछुवाते हम ऊपर छत पर पहुंचे। जाड़े की स्निग्ध धुप में बिछे एक बोरे पर पांचो बच्चे एक-पर-एक चिपके हुए एक-दुसरे से सटे हुए अपनी महीन आवाज़ में चूँ-चूँ  कर रहे थे। मन हर्षित हो गया। उनके साथ थोडा खेलकर वक़्त बिताकर झट से नहाया और पूरी जी से प्राप्त प्रसाद को स्थापित कर मैंने "माँ" की पूजा की और उनके आगे सबकुछ अर्पण कर अपनी झोली फैलाकर नतमस्तक हो गया। पूजा के बाद नाश्ता फिर वापस राँची भागा। मेरा अपना 'रेगुलर' चश्मा पूरी समुद्र के अर्पण हो गया था जिसके कारण राँची में मैं नया चश्मा बनवाने अशोक ऑप्टिकल्स गया और अपने चश्मे के नंबर का प्रोग्रेसिव लेंस में फोटो-क्रोमेटिक चश्मे के बारे में दरियाफ्त की। अभी मैं 2-चश्मे यूज़ करता हूँ। एक लौंग-डिस्टेंस के लिए दूसरा लिखने-पढने के लिए। ये थोडा मुश्किल लगता है, क्योंकि इस अदला-बदली में 3 चश्में गिरकर टूट गए थे अत: मेरा विचार था कि एक ही लेंस, एक ही चश्मे से मेरी समस्या का निदान हो जाय, ...लेकिन जो कीमत (बिना फ्रेम के, सिर्फ ग्लास का) बताई गई, मेरे छक्के छूट गए!! मुँह बनाय घर पहुँचा। किसी तरह दिन बीते। शाम में हमने "दबंग 2"  देखि। घर आकर कंप्यूटर चालु किया तो लिंक फेल पाया। तब नए कैमरे से ली गई यात्रा की तस्वीरें कंप्यूटर में डाला और देखा। अभी इस नये कैमरे को समझने में मुझे समय लगेगा।

              श्री जगन्नाथ पुरी जी की यात्रा में पूजा-आराधना-प्रार्थना-निवेदन-दर्शन-स्तुति एवं प्रसाद प्राप्ति से मिलने वाली अलौकिक संतुष्टि के सन्दर्भ में मैं कुछ कहे बिना नहीं रह सकता। इसे अभिव्यक्त करने में मुझसे हो सकता है कहीं धृष्टता का आभास हो अत: मैं मनोज कुमार की फिल्म :यादगार" से महेन्द्र कपूर का गाया और मनोज कुमार पर फिल्माया गीत/गाने का सहारा लेता हूँ, जो कम-से-कम मेरी कुछ भड़ास को शांत करते हुए काफी आर्त-भाव से मेरी अभिव्यक्ति को सटीक शब्द देती है:

" आए जहां भगवान् से पहले किसी धनवान का नाम,
उस मन्दिर के द्वार खड़े सब रोवें कृष्ण और राम !
धनवान को पहले मिले भगवान् के दर्शन,
दर्शन को तरसता रहे जो भक्त हो निर्धन !
ये दक्षिणा की रीत, ये पण्डों के छलावे,
दुकान में बिकते हुए मन्दिर के चढ़ावे !
ऐसे ही अगर ............................................................,
ऐसे ही अगर धर्म का व्यापार चलेगा,
भगवान् का दुनिया में कोई नाम न लेगा !
ऐसे जगह पे जा के तू कुछ भी न पायेगा,
भगवान् ऐसा मन्दिर खुद छोड़ जाएगा !
.......................................छोड़ जाएगा !!
.......................................छोड़ जाएगा !!!"

धनवान पूछता है : " भगवान् .... मंदिर में नहीं तो और कहाँ मिलेगा?"

"वो खेत में मिलेगा, खलिहान में मिलेगा,
भगवान् तो ऐ बंदे ....., इंसान में मिलेगा !"
...

हो सकता है मेरी निष्ठा में ही कोई खोट हो,
अभी भोर भये कमल के कंप्यूटर पर यहाँ लिख रहा हूँ। लोहरदगा जाकर समूचा वृत्तांत लिखूंगा।

 सादर प्रणाम।
_श्रीकांत . 

Friday, December 21, 2012

"जादूगरनी"

सबको सादर प्रणाम।

अभी मैं पाठक सर की काफी पुरानी लेकिन बहुत ही फेमस नोवेल "जादूगरनी" के बारे में सोच रहा हूँ। जिस वक़्त ये उपन्यास मार्केट में आया था शायद, शायद  मैं -I.Sc`1st Yr. में था। वो वक़्त ही कुछ और था ...!! समय था सन 1980...
...हमारे शहर में शुरू से ही मात्र एक ही बुक स्टाल था जो उनके दो भाइयों में बंटवारे के बाद अब दो दुकाने हैं, पहले इस दूकान के बुजुर्ग मालिक जीवित थे तब इनकी दूकान हमारे क्वार्टर (स्व. बाबूजी के समय से अभी तक) के समीप हुआ करता था। अब नहीं है। बाबूजी के प्रेमी-प्रतापी प्रभाव के कारण दुकानदार हमें किताबें-कॉमिक्स (भाड़ा वो बाबूजी से चार्ज कर लेता था) पढने के लिए दे दिया करता था। उस समय अपनी उम्र के हिसाब से हम (सभी भाई-बहन) कॉमिक्स और किताबें छाँट कर उठा लाते थे। मैं शुरू में "लोटपोट", "पराग", "नंदन", "मधु-मुस्कान:, "इंद्रजाल कॉमिक्स", "अमर चित्र कथा" पढता था, ...फिर धीरे-धीरे मनोज बाल पॉकेट बुक्स ......, फिर  v p sharma की विजय-विकास सीरीज की किताबों में दिलचस्पी हो गई थी। जब थोड़े और बड़े हुए तो कभी-कभार अब नज़रें कुछ ज्यादा की तलाश में भटकने लगीं थीं ... हर बार मेरी नज़रों के सामने रहते हुए भी जिनकी तरफ कभी ध्यान नहीं दिया था,..कभी कर्नल रंजीत, कभी मेजर बलवंत,...अला-बला,..से होते सुरेन्द्र मोहन पाठक के तरफ मेरा ध्यान गया किताब पर छपे एक स्लोगन पर जिसे उस वक़्त मैंने पब्लिसिटी स्टंट समझा ..मैंने पढ़ा : "सोहल की सनसनीखेज़ दुनिया!", "विमल का विस्फोटक संसार!" वो किताब मैंने उठाई उसके पन्ने पलटे और किसी पृष्ठ की चंद लाइने पढ़ीं, पाया की भाषा उर्दूदां है, मैंने छोड़ा फिर पकड़ा फिर उठाया, पता चला ये उपन्यास अपनी कथा का दूसरा भाग है; तब किताब के आखिर में छपे सन्देश से उसके पहले भाग का नाम पढ़ा और उसे ढूँढने लगा, सैंकड़ों किताबों के अम्बार में वो मुझे न मिला तो दुसरे भाग को भी छोड़ दिया। लेकिन मेरा ध्यान इस लेखक की लेखन शैली की तरफ बार-बार जाता रहा। आखिरकार मैंने निश्चय ले कर सुरेन्द्र मोहन पाठक का एक भाग में सम्पूर्ण किताब में से एक चुना वो था "लेट न्यूज़", जिसे मैंने वक़्त गुजारी के ख्याल से पढना शुरू किया; वक़्त गुजरा और क्या खूब गुजरा! अगले दिन किताब वापस करने का दिन था वरना 20 पैसे एक्स्ट्रा लग जाते, मैंने रातों-रात वो किताब पढ़ डाली। और फिर सुनील से हुई मुलाक़ात ने मुझे सुरेन्द्र मोहन पाठक को और पढने की प्रेरणा दी। अगले दिन किताब लौटने जब गया तब किताबों की भीड़ में वो किताब दिखी जो ढूंढें नहीं मिल रही थी। वो था "चेहरे पर चेहरा", किताब के कवर पर एक खूबसूरत लड़की का चेहरा यूँ छापा गया था कि वो छिले हुए सेब के छिलके से स्पाइरल बने सेबनुमा लड़की का चेहरा बन गया था, जिसके बगल में एक गन रखी हुई थी। सबसे बड़ी चीज थी उस पर छपा लेखक के नाम के फॉन्ट की थ्री-डाईमेनशनल आकृति! मुझे रोमांच हो आया। मैंने दोनों भाग उठा लिए रजिस्टर करवा कर घर पर रख कर कॉलेज चला गया। दिन भर मेरे जेहन में किताब का कवर घूमता रहा। आखिरकार वह समय आया जब मैंने इसे पढना शुरू किया। ...सब समझ में आ रहा था ! ...पर कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। कई स्थान पर ऐसा लगा जैसे ...ये पहला भाग नहीं है!...ज़रूर इसके पहले भी कोई कहानी है ...जिसका इशारा न समझ में आने वाली पूर्व-घटित घटनाओं, और कई पूर्व पात्रों के नाम जो इस उपन्यास में हाज़िर नहीं थे पर उनके जिक्र का ज़ोरदार दखल था जो और भी कहानी पीछे है जिन्हें पढना पड़ेगा - की ओर साफ़ संकेत करतीं थीं। मुझसे आगे पढने में वो मज़ा नहीं आ रहा था। पर किसी तरह पढ़ा। और बौरा गया। मुझे एक जिद्द ने अपने वश में कर लिया की विमल की कहानी मैं शुरू से पढूंगा। इस जिद्द को पूरा करने में मुझे 13 साल लग गए। इस बीच सुनील से और रमाकांत से मेरी घनिष्ठ मित्रता हो गई थी। फिर हाथ में आई वो किताब जिसने उपन्यास पढने के मेरे सारे कांसेप्ट को झिंझोड़ कर, बदल कर रख दिया। वो किताब बल्कि आज की तारीख में मैं उसे इंडियन क्राइम फिक्शन की दुनिया का माइलस्टोन मानता हूँ , जो थी : "मीना मर्डर केस!", साहबान वो दिन है और आज का दिन, पाठक साहब के अलावे "हिंदी क्राइम फिक्शन " के किसी दुसरे लेखक को मैंने छुआ भी नहीं है।

फिर मुझे पढने को मिला "जादूगरनी"! आज इस उपन्यास की बहुत याद आ रही है, क्योंकि ''सदा नगारा कूच'' का में भी कुछ ऐसी ही मिलती-जुलती घटना दर्शाई गई है। पर ये उपन्यास आज ओपन मार्केट में कहीं भी उपलब्ध नहीं है। .....हमारे शहर का हमारा वो बचपन का बुक स्टाल उजड़ चूका है, इस शहर में अब जहां तक मेरा सर्वे कहता है, किसी भी भाषा का कोई उपन्यास, कोई भी नहीं पढता। बुक स्टाल दो भाइयों में बांटकर अब अखबार एजेंसी की दुकान बन कर रह गई है जहां न अब कोई उपन्यास है, न कॉमिक्स न कोई चंदामामा, नंदन, पराग, चम्पक, लोटपोट, मधु-मुस्कान, इंद्रजाल कॉमिक्स, अमर चित्र कथा, ..... सभी पतली हवा में विलीन हो चुकीं हैं। इस शहर में मैं अकेला शख्श हूँ जिसके पास ये शौक नहीं नशा नहीं बल्कि नशे से गुस्से से फ्रश्टेशन से डिप्रेशन से लड़ने की दवा है, मेरे पास सुरेन्द्र मोहन पाठक के उपन्यासों की अच्छी-खासी हेल्दी लाइब्रेरी है। इस दवा का ही असर है कि इस पृष्ठ पर सु.मो.पा. परिवार का एक अदना सदस्य हूँ, और सुरेन्द्र मोहन पाठक अब एक नाम नहीं एक लेखक मात्र नहीं बल्कि मेरे पूज्यनीय अभिभावक समान आदरनीय आराध्य उपनिषद हैं जिनका मैं उपासक हूँ, जिनकी किताबों को मैंने सालों-साल की मेहनत और लगन से इक्कट्ठा किया है। विमल के सभी उपन्यास बकायदे नंबर लिख कर अलग से रखा गया है। भाड़े पर किताब पढना मैंने तब छोड़ा जब मुझे उनकी कहानी दिमाग में घुमड़-घुमड़ कर बारम्बार याद आती और मुझे सताती। तब मैंने फैसला किया कि सुरेन्द्र मोहन पाठक का उपन्यास जो मुझे पसंद है वो अब हमेशा मेरे अंग-संग रह्रेगा। इस तरह मैंने उन्हें खरीदना शुरू कर दिया। पैसे की तंगी हुई तो उधार पर ले लिया कई-कई महीनों तक उधार खाता चलता रहा, लेकिन तारीफ़ है दुकानदार की कि उसने तकादा कर के कभी मुझे शर्मिंदा नहीं किया। घर में बहना बना कर पैसे जमा कर दिया पर सुरेन्द्र मोहन पाठक की किसी भी उपन्यास को कभी मैंने लौटाया नहीं। इसके बावजूद "_विमल (सिरीज़) को छोड़कर_" बहुत सारी किताबे अब भी जेहन में दस्तक दे रही हैं जो मेरे पास नहीं है, जैसे की मैंने शुरुआत में ही कहा है 1. जादूगरनी, 2.अँधेरी रात, 3.खाली मकान, 4.स्टार नाईट क्लब, 5. विश्वास की हत्या, 6.डायल-100 इसके बारे में सुना था कि इस पे फिल्म बनेगी, 7. धोखाधड़ी ...इत्यादि। शायद SMP लाइब्रेरी से मिलेगी जिसका सुजाव आपने मुझे दिया है। कोशिश ज़रूर करूँगा।

आज पाठक सर की किताबें हासिल करने के लिए, प्रकाशन की जानकारी मिलने पर कि बुक मार्केट में आ गई है, मुझे बाकायदे ऑफिस से छुट्टी ले कर (मेरी जॉब/नौकरी 365 दिन 24 घंटे हमेशा अलर्ट वाली है;) रांची जाना पड़ता है। बदकिस्मती देखिये की राजधानी रांची में बुक स्टालस सिर्फ 2 जगह पर है और कुल मिलकर दुकाने मात्र 3"तीन" ही है। एक रेलवे स्टेशन पर का व्हीलर, बाकी के 2 शहर के दुसरे छोर पर 7 कि.मी. दूर !! मेरे रांची स्थित फ्लैट के दो बिलकुल विपरीत दिशाओं में !! अक्सर मैं स्टेशन के व्हीलर से ही किताबें खरीदता हूँ। कई बार तो ऐसा हुआ है कि एक ही महीने में जब भी किसी अन्य काम से रांची गया व्हीलर वाले भैया/काका से आदतन पूछ बैठता हूँ :" जी भइया, सुरेन्द्र मोहन पाठक की नई नोवेल ...." उत्तर :"अभी परसुवें न डब्बल गेम लेगे हैं, एतना जल्दी कहियो नया आया है कि आ जावेगा? ..!!"

23, दिसंबर 2012, रविवार को जो सुरेन्द्र मोहन पाठक परिवार मिलन समारोह होने जा रहा है। इसकी सूचना मुझे ग्रुप ज्वाइन करने के बाद मिली। और परसों ही तो मैंने ग्रुप ज्वाइन किया है। इसके पहले ही कई तरह के और कार्यक्रमों का निर्धारण हो चूका था ऑफिस से मुझे ऑर्डर्स मिल चुके थे। इसी दरम्यान मेरे बच्चों की छुट्टियों की घोषणा तय थी, मेरे अनुज और समूचे परिवार ने मिल कर जगन्नाथ पुरी जी की यात्रा का प्रोग्राम बना कर टिकट्स भी ले चुके थे। जैसे ही मैंने SMP fb फॅमिली - ग्रुप ज्वाइन किया तो मुख पृष्ठ पर ही इस आयोजन की घोषणा का संवाद देखा। अब आप स्वयं सोचें इतने शार्ट नोटिस पर मेरे जैसा अदना आदमी जिसकी आमदनी गृहस्थी और बच्चों की शिक्षा में खर्च हो जाती है वो हजारों मील दूर से भीड़ भरी दुनिया में तुरंत टिकट भी कहाँ से पावे, आना बड़ी बात है।

लेकिन यदि आप सभी कृपा करें तो शायद मेरी हाजिरी भी पाठक सर की सेवा में लगा देने की कृपा करें। इसे मेरा नेवेदन समझें और कृपया पाठक सर को याद कर के मेरी क्षमा याचना के साथ उनको मेरा चरण स्पर्श कह देने की महत्ती कृपा करेंगे।

चूँकि यात्रा की तैयारी और पूरी पैकिंग करने हैं, सुबह ही निकलना है; अभी पाठक सर के कम-से-कम 3 उपन्यास ज़रूर साथ होंगे। अब 7/8 दिनों तक मैं आपसबों को "तंग" नहीं करूँगा। एक बात मैं बड़े हिचक के साथ कहना चाहता हूँ कि पता नहीं क्यों मुझे लगता है कि मैं आप लोगों को बहुत ही मिस करूंगा। अब विदा लेना चाहूँगा। सपरिवार सुबह 8 (आठ) बजे खुद 75 कि मी ड्राइव कर के जाना है। रांची वाले फ्लैट पे रुकना है जहां मेरे कॉलेज की छट्टियों से लौटे 2 बेटे मेरे छोटे भाई और बहु हैं। गाड़ी शाम में 4 बजे की है।

सप्रेम सादर नमस्कार के साथ दोनों हाथ जोड़ कर ह्रदय से लगा कर सबका अभिनन्दन करता हूँ।  23,दिसंबर के मिलन समारोह के लिए मेरी हार्दिक शुभकामनाएं ! सादर प्रणाम।

बोले भईया बलभद्र जी की जय ! बोले बहिनी सुभद्रा जी की जय !! बोलो भगवन श्रीकृष्णचन्द्र जी की जय !!!

श्री सुरेन्द्र मोहन पाठक जी का अनन्य भक्त
-अकिंचन_
श्रीकांत .
लोहरदगा दिनांक :21, माह : दिसंबर (12), वर्ष : सन 2012   समय रात्रि : 00.27(AM)
              


अब मैं एसएमपी ग्रुप का मेंबर नहीं हूँ। मैंने स्वेच्छा से ये ग्रुप छोड़ दिया है।

Thursday, December 20, 2012

जाड़े की स्निग्द्ध धुप हो, एक कुर्सी पर बैठ मुंडेर पर पैर लम्बी किये रखे हों, कुछ खाने-चुभलाने का इंतज़ाम हो, एक हाथ में जाम हो और दुसरे में श्री पाठक सर जी का "इन्तकाम" हो तो कौन इसकी ठंढी शीतल छाँव से वंचित होना चाहेगा!
...पर यह सारा मज़ा तुरंत काफूर हो जाता है, आँखें भीग आती हैं, हाथों में तनाव और जबड़े भींचने लगते हैं, दांत किटकिटाने लगते है; फिर बेबसी के मारे आँसू ढलक आते हैं जब कल ही हुई दिल्ली गैंग रेप की घटना याद आती है !!

Wednesday, December 19, 2012

प्रिय विशी भाई!
सादर सप्रेम नमस्ते,

आज मेरे सुबह के पोस्ट की वजह से SMP fb फॅमिली ग्रुप में आप सहित सबका आक्रोश बल्कि क्रोध में हुए अंधे आक्रोश से मेरा सामना हुआ। किसी आदमी के एक वाक्य से उसके समूचे वजूद और उसकी दिमागी सोच-समझ और क्षमता का अंदाज़ा लग जाता है, फिर SMP fb फॅमिली ग्रुप में तो मैं कल भारती हुआ और मुझे आज ही 'निकल जाओ वर्ना निकाल दिए जाओगे' का नोटिस भी मिल गया, क्योंकि मैंने सिर्फ एक लाइन ही नहीं पूरी व्याख्या ही छाप दी! ये मेरी अस्पृश्यता, अछूत-पन का इससे बड़ा और क्या परिणाम हो सकता है जिसे पूरी-की-पूरी इंस्टीच्युशन के एक-एक सदस्यों द्वारा अस्वीकृत कर दिया गया। ये मेरे अपने कुकर्मों का फल है। जो जैसा बोवेगा वो वैसा ही तो कटेगा। सो फल मुझे मिला। सो फल मैंने काटा और बाकायदा उसका बढ़िया मज़ा चखा। पर लगता है अभी सबकी भड़ास पूरी नहीं निकली है।

मुझे क्षमा याचना का सुजाव, आपके माननीय साथी और सदस्य "KBC जी"  ने दिए, मैंने उनकी बात का अनुसरण करते हुए कि "मुझसे नहीं पूरे ग्रुप और विशेष कर श्री सुरेन्द्र मोहन पाठक जी से माफ़ी मांगिये", मैंने समस्त "SMP fb फॅमिली ग्रुप" और स्वयं मेरे पूज्यनीय श्री सुरेन्द्र मोहन पाठक जी से उसी पृष्ठ पर क्षमा मांगी है।
पर माफ़ी देने का सबका अंदाज़ देखिये ! कैसे मुझे ह्युमिलियेट किया गया है! उनका भी जिन्होंने मुझे ये आइडिया दिया था; कुल भूषण चौहान! कहते हैं :"job accomplished." जिनकी चिंता है कि वो मुझे झाड़ियों के पीछे ले जा कर अपनी मनमानी न कर सके!! साइबर क़ानून के आप विद्वान् है, इस विषय के पंडित है, आप ही फैसला कीजिये कि इसी मंच पर "वायोलेशन" किसने कितना किया है, ज़रा और आगे पढ़िए:

आज मैं जो - जब, पाठक साहब का उपन्यास पढ़ रहा होता है तो सहज ही अपने-आप को कथानक के नायक के रूप में खुद का तस्सवुर कर लेने की, अब तो यही कहूँगा कि, हिमाकत कर बैठता है !! सो !!! आज पता चला कि कितनी बड़ी ये मानसिक बिमारी है। मुझे रिहैबिलिटेशन सेंटर के लायक केस माना गया। पवन शर्मा ने पोस्ट में मुझे बदतमीज़ कहा, ये जानते हुए कि किसी को बदतमीज़ कहना सबसे बड़ी बदतमीजी होती है। बाकियों ने मेरे पोस्ट को अपने पर फोकस बनाने का घटिया प्रयास कहा गया, अलिखित-अघोषित भद्दी-भद्दी गालियाँ दीं गईं। पर शायद वो सब SMP fb फॅमिली ग्रुप के नियमों का उल्लंघन नहीं करतीं! हमारे धर्मग्रंथों में कहा गया है कि यदि अपने आराध्य देव का अपमान होता देखो तो अपमान करने वाले की जीभ काट लो या फिर वह स्थान त्याग दो। आज उस धर्म का पालन पूरे जोशो-खरोश से किया जाता दिखा। बधाई !

किसी ने मुझे ही दिल्ली गैंग रेप काण्ड का बालात्कारी कह दिया। पवन शर्मा ने मुझे ग्रुप से निकाल देने के लिए "मेरा ज़नाज़ा धूम से निकलने" की घोषणा की है। पवन शर्मा का वह पोस्ट अभी ज्यों-का-त्यों स्टैंड है। मैंने उन्हें मोस्ट वेल्कम बोला है। कोई एक्सपर्ट साहब मेरे लिए अपने इलाके की गन्दी-भद्दी गालियों से न नवाज़ पाने के लिए दुखी है। कोई मुझे पीटना चाहता है। इतने सम्मानित और सुरक्षित हैं सुरेन्द्र मोहन पाठक साहब इस मंच के सदस्यों द्वारा, आज खुलासा हुआ !!!

मेरी समझ में आया कि मेरी जैसी मानसिकता वाले दरअसल बड़े कायर होते हैं। अन्यथा मैं डटा रहता और देखता कि कोई मेरा क्या उखाड़ लेने की कूवत रखता है, क्योंकि क्या जानते हैं ये "भाई लोग" मेरे बारे में जो अपनी मांद में से मुझ पर गुर्र्रा रहे है!? इनसे और उलझकर ऐसा कर के मैं क्या पा लेता? बल्कि ये कहिये कि सबकुछ खो देता। कहते हैं किसी को बेईज्ज़त करना उसको मृत्यु दण्ड देने के सामान है। पौराणिक ज़माने में ऐसा होता था कि अपराधी को बीच चौराहे पर खूंटे से बाँध दिया जाता था और सारी जनता उस पर थूकती थी, फिर उसे बहिष्कृत कर दिया जाता था।


मेरी पत्नी, माँ और मेरे बेटे सुबह से मुझे बेईज्ज़त और जलील होता देख रहे हैं, ज़िल्लत क्या होती है इन्हें पहली बार असलियत में देखने को मिल रही है इसलिए हक्के-बक्के हैं। इन्होने अभी तक मेरे कमरे में पाठक साहब के मंदिर के आगे नतमस्तक उपासक के रूप में ही देखा है इसलिए इन्हें कतई अंदाजा नहीं था कि मेरी अपनी जल्दीबाजी में हो चुकी भयानक भूल का अपराधी बन बैठा हूँ जिसकी सजा भुगत रहा हूँ। अब उनकी जिद्द है की मैं ये ग्रुप छोड़ दूँ पर उनके लाख कहने पर भी मैं ये ग्रुप नहीं छोड़ना चाहता। सभी कल से पूछ रहे हैं कि आखिर मैं क्या कर रहा हूँ। ...यही कि देखूं क्या-क्या और होता है।

आपकी पहली प्रतिक्रिया मैंने पढ़ी थी, वो शायद हट गया है, उसे पढ़ते वक़्त मैं रो पड़ा। आपकी संयमित और आश्वस्त करने वाली ही जुबान/जुबां की ही मैं प्रतीक्षा कर रहा था। आपसे जब से, चंद शब्द ही सही, बातें हुई हैं उससे आपके प्रति स्वाभाविक स्नेह और अनुराग पैदा हो गया है। जबकि पवन शर्मा की बातों का अंदाज़ यूँ है जैसे वे इस ग्रुप के दंडाधिकारी हैं, अत: उनकी धौंस भरी संवाद अदायगी ध्वनित नहीं होती!? इस व्यक्ति ने अपने दुसरे कमेन्ट से ही जैसे मुझ पर चाबुक तान लिया हुआ है, और अपनी मोनिटरी के नीचे रखना चाहता है।

विशी भाई! मैं और कटुता बढ़ाना नहीं चाहता। जिसका प्रमाण मेरी क्षमा प्रार्थना है, लेकिन उसके बदले में जिस दुर्व्योहार का घटिया प्रदर्शन सामने आया है कि कोई भी यहाँ, आपके सामान, साफ़ मन का नहीं है। ठीक है। सही है। ये मंच प्यार बांटने का मंच है, मेरे दिल में भी बहुत प्यार है। मैं बाटूंगा। मिलने आऊंगा। और सबके साथ पटियाला पैग शेयर करूँगा, पर जब तक कुछ समय साथ नहीं बिताया जाए घनिष्ठता कैसे होगी। मैंने एक भूल-वश भयंकर गलती की, मुझे दोषी पाया गया, सजा सुनाई गई। फिर माफ़ी की दरख्वास्त दाखिल्दाफ्तर करने का सुझाव दिया गया। मैंने सबका फैसला सिर-माथे लिया। माफ़ी मांग ली। पर अभी उनसे माफ़ी मिलना बाकी है वास्तव में जिनके सम्मान में इस मंच का निर्माण किया गया है। उससे पहले ही सबने मेरी खिल्ली उडानी शुरू की और मेरी पोस्ट की गई तताकथित विवादित पोस्ट को साबित कर दिखाया, कि जिस ग़लतफ़हमी में मैंने भूल की वो दरअसल भूल नहीं बूल्ज़ आई लाइक शॉट थी। ये मेरी जीत है।

मैं आपके तरफ अपना हाथ बढ़ा रहा हूँ। इस बढे हुए हाथ को निश्छल मन से बिलकुल निश्चिन्त हो कर थाम लीजिये। ऐसा कर के आप मेरे मित्र तो बनेंगे ही मैं भी आप जैसा बेमिसाल दोस्त पा कर सुखी हो जाऊँगा। मेरी दोस्ती का हाथ थाम कर आप एक तरह से मुझपर एहसान करेंगे जिसे मैं ताजिंदगी नहीं भूलूंगा। आप कहते हैं आप मुझसे उम्र में छोटे हैं लेकिन व्योहारिकता के मामले में मैं आपके आगे कुछ भी नहीं। यही सोच कर दोस्त बन जाओ दोस्त कि ये पाठक जी के अलफ़ाज़ हैं : कि आज के बेमुरव्वत ज़माने में दोस्ती जैसी बेमिसाल चीज़ बड़ी मुश्किल से मिलती है, मैं तो आपके खजाने में इजाफा ही करने की गुजारिश कर रहा हूँ। पर इसका फैसला तो आप ही को लेना है। आपकी दोस्ती से मैं अच्छा सदस्य बने रह कर ग्रुप के लिए अपना मुझसे जो भी हो सकेगा, योगदान दूंगा। यही प्रार्थना हर तरह की क्षमा याचना के साथ राजेश पराशर जी से भी है जिन्हें इसलिए शर्मिन्दा होना पड़ा है कि इस ग्रुप में उन्होंने मुझे ADD किया, जो उनकी जुबान में फटा हुआ 'पंखा' है, जिसकी मजम्मत की जानी चाहिए। हसन ज़हीर साहब भी जो जिस पर अपने हाथ न आजमा सके, बहती गंगा में हाथ न धो सके।

अगर विशी भाई, मेरी ये दोस्ती प्रार्थना आपने क़ुबूल कर ली तो मैं सारी शिकायतें भूल कर निर्मल मन से कल के उदीयमान सूर्य भगवान् को प्रणाम करूँगा।  पहले आप से रिश्ता पूरी पक्के तौर पे तो जुड़ जाय। ये मेरा इम्तिहान का वक़्त है। समय ...समय ....

सबके सुख और निर्मल मन की कामना के साथ_ फिर से सभी से क्षमा याचना के साथ_

आज का सजायाफ्ता गुनाहगार,
आपका सबका अपराधी_ 19/12/2012 सायं 08:42
श्रीकांत .
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विशी सिन्हा का पत्रोत्तर :
Shrikant Tiwari जी...
Vishi Sinha 1:52am Dec 20
Shrikant Tiwari जी

सादर नमस्कार,

पहले मैं एक बात मैं साफ़ कर देना चाहता हूँ कि मैं और ये ग्रुप जिसे हम 'पाठक-प्रशंसक-परिवार' कहते हैं, एक दूसरे से अलग नहीं किये जा सकते. We are inseparable. अगर मेरा परिवार आपकी नज़रों में गलत है तो मैं भी गलत हूँ. अगर आपको मुझमें कोई भी अच्छाई नज़र आती है, तो यकीन जानिये, ये मेरा परिवार मुझसे भी कहीं ज्यादा ज़हीन और संजीदा सदस्यों की जमात है.

अगर मुझे मेरे परिवार के साथ सम्पूर्णता में अपनाने के लिए आपका दोस्ती का हाथ अभी भी बढ़ा हुआ है, तो मुझे ख़ुशी से आपकी दोस्ती कुबूल है.
मुझे उम्मीद है, सुबह के सूर्य के साथ आप सारी शिकायतें भूलकर निर्मल मन से एक नयी शुरुआत करेंगे.

और जैसा ऊपर डॉक्टर राजेश पराशर जी ने कहा, और मुझे भी यकीन है, इस प्रकरण और इससे जुड़ी कड़वी यादें मिटा दी जायेंगी, भुला दी जायेंगी और हमारे दिलों में सिर्फ और सिर्फ अच्छी यादें रह जायेंगी.

एक नए सूर्योदय की प्रतीक्षा में,

- विशी
 
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प्रभात 06:21     20,दिसंबर,2012  गुरुवार 
"गुरु गोविन्द दोनों खड़े काके लागुन पाएँ।
बलिहारी गुरु आपनो, गोविन्द दियो बताए।।"
-ॐ गूँ गूरूवे नमः।
ओए  विशी भाई तुसी तो छा गए मालको!!
 उत्तर के लिए धन्यवाद।
हाँ ! मेरा हाथ अभी भी पूरे निर्मल मन से आपको पूरे'पाठक-प्रशंसक-परिवार' के समस्त सदस्यों के  साथ सम्पूर्णता में अपनाने के लिए मेरा दोस्ती का हाथ अभी भी बढ़ा हुआ है!
 नया सूर्य उदित हो चूका है ! उसके आगे मैं नतमस्तक हूँ।
"ज्योतिर्गानान्पतेये दिनाधिपतए नमः।।"
और जैसा ऊपर डॉक्टर राजेश पराशर जी ने कहा, और मुझे भी यकीन है, इस प्रकरण और इससे जुड़ी कड़वी यादें मिटा दी जायेंगी, भुला दी जायेंगी और हमारे दिलों में सिर्फ और सिर्फ अच्छी यादें रह जायेंगी।
आमीन।
शुभाकंछी 
- श्रीकांत .

दिल्ली में घटी गैंग रेप की ताज़ा पाशविक घटना

दिल्ली में घटी गैंग रेप की ताज़ा घटना का समाचार जैसे ही मुझ तक पंहुचा मुझे "जहाज का पंछी + खबरदार शहरी + मौत का रास्ता = विमल !!" }-श्री सुरेन्द्र मोहन पाठक जी का ही स्मरण हुआ। सबकुछ लगता है वैसे ही हुआ है जैसा की इन उपन्यासों में लिखा गया है। फर्क (सिर्फ) ये है कि यहाँ "ओवरकोट-धारी खबरदार शहरी" कोई नहीं है। कल्पना और यथार्थ का ये फर्क पौराणिक सत्य है। जिसके वजह से रावण को हर साल मारते ही वो फिर जीवित हो उठता है।

मेरा भी खून खौला जैसे कि श्री Rajesh Parasharजी का खौला है। जबसे यह भयानक और अत्यंत दुखदाई और इंसानियत को शर्मसार करने वाली दुर्घटना सार्वजानिक हुई है समूचे देश में आक्रोश की जो ज्वाला धधकी है उसमे आहुति दिए बगैर इस युद्ध को नहीं जीता जा सकता। सवाल हो सकता है कि इस युद्ध को जीतने के लिए कौन, कब, कैसे, किसकी आहुति देगा।

जब कोई हादसा हो जाता है तभी सुरक्षा का विषय बहस का मुद्दा बन जाता है। ऐसा जघन्य अपराध करने वाले कोई भी हो सकते हैं। पहचानना मुश्किल है। किस-किस से सावधान रहें हम !? रेप के लिए फांसी की सजा तय करने के लिए बात ने फिर तूल पकड़ लिया है। न्यूज़ चैनल्स पर आज दिन भर से इसी केस के समाचार और बातें हो रही हैं।

पाठक सर के उपरोक्त उपन्यास प्रमाण हैं कि ऐसी पाशविक घटना कोई नई बात नहीं है। 

यह समस्या बड़ी भयानक है। लेकिन कड़े फैसले लेने से ही इस समस्या का समाधान नहीं हो जायेगा। आदम जात को अपने भीटर के राक्षस से जीतना होगा।

 "_पर उपदेश कुशल बहुतेरे, जे आचरहीं ते नर न घनेरे_", खुद आगे आये बगैर कारवाँ बनने की सोचना भूल होगी। जो जैसा जिस ताक़त और हैसियत का है उसे इस युद्ध में मन, वचन और कर्म से इसमें अपना योगदान देना होगा। हमारी लड़ाई हमें खुद लड़नी होगी, हमारे लिए कोई दूसरा नहीं लड़ने वाला। अपने सुरक्षा के इंतज़ाम हमें खुद करने होंगे। 

इन्सान अपने कर्तव्य : 'अपने पर आश्रित अपने परवार की जिम्मेवारी' की बोझ से ऐसा दबा हुआ है कि विवश होकर सिर्फ दाँत किटकिटा कर भर रह जाता है। ये दबाव हमारी सबसे बड़ी कमजोरी है। इससे उबार पाना बहुत-बहुत कठिन है। और इसी का फायदा शोहदों को मिलता है। जिससे मिली ताक़त का वो बेधड़क प्रयोग कर कहर ढाने में कामयाब हो जाते हैं। 

सरदार सुरेन्द्र सिंह सोहल जैसे हालत वाले दिलेर, व्यक्ति या व्यक्तियों का निश्चय ही कहीं-न-कहीं वजूद ज़रूर है। या ऐसी मासिकता के साथ निर्भीक हो कर आगे आने वाले मर्द असंख्य भी हो सकते है, पर कुछ बंदिशों का अंकुश उन्हें फंक्शन करने से रोके हुए होगा, _हो सकता है। 

क्या ये कहना अच्छा लगता है कि जिसके पास खोने के लिए कुछ नहीं होता ये सिर्फ उसके भर के लिए ठीक है?

बहुत ही दुःख हुआ है।














Sunday, December 16, 2012

"जिंदा"-मुर्दा!

  "जिंदा"-मुर्दा!

(हमारे यहाँ घटी एक सच्ची घटना पर आधारित {रिम्पी की फरमाइश पर कि "मामा आप बुक लिखिए ! ! !"} ... एक लघुत्तम कथा  जो कपोल कल्पना कतई नहीं है।) :

एक बार की बात है, रांची में मालिकन के निवास पर हमारे कुछ स्टाफ, नौकर-चाकरों और कुछ ड्राईवर साथियों ने ऐसी हरकत की थी कि आज भी याद आने पर हंसी छूटती है। आज भी जब उस हरकत का "शिकार" हुए स्टाफ को देखता हूँ तो बरबस हंसी छूट पड़ती है।

वो कहानी यूँ घटी थी :

उस दिन घर पर कोई मालिकन नहीं थे, केवल साधू राम (ड्राईवर) के मालिक थे जो शाम से पहले निकलने वाले नहीं थे। लम्बी ड्राइव से आने के बाद साधू ड्राईवर को थकान की वजह से ऊंघ आ रही थी, ऊपर से वो, छिपाकर, एक-गिलास दारु पी गया था जिसकी वज़ह से वह रह-रह कर झूपने लगता था।

एक स्टाफ ने उससे कहा :"अरे, जा के रूम में सुत जा ना।"
साधू ने मना करते हुए कहा कि :"नई इयार, कभियो बाबु बोला सका हउ।"

पर बैठे-बैठे उसे आखिरकार वहीँ नींद आ ही गई। वो वहीँ बरामदे में ही फर्श पर लेट गया, उसे घनघोर नींद आ गई थी। वहाँ मौजूद सभी स्टाफ ने उसकी उस अवस्था को देखा। पहले तो वो उसकी इस पुरानी, कहीं भी कभी भी सो जाने की आदत से चिढ़ गए, फिर उन्हें शरारत सूझी। एक ड्राईवर साथी, अख्तर ने अपनी एक योजना सभी को बताई, जिससे सभी ने सहमती जताई। सभी साधू की इस तरह से सो जाने की आदत से अनसाय हुए थे, सो सब ने हामी भर दी : "ठीक हउ, चल आज मामू के मजा चखावल जाय।"

एक साथी-स्टाफ क्वार्टर से दौड़कर एक उजला चादर ले आया। दो जनों ने मिलकर सोए हुए साधू राम पर सफ़ेद चादर को सिर से पाँव तक ओढ़ा दिया। एक साथी दौड़कर अगरबत्ती और स्टैंड ले आया। अगरबत्तीयों को सुलगा कर साधू के सिरहाने रख दिया गया। फिर सभी उसके इर्द-गिर्द ग़मगीन मुँह बना कर बैठ गए। एक बाकायदे सुबकने भी लगा।

मालिकान के घर पर बाहरी लोगों का तांता लगा ही रहता है। ज्यादा इंतज़ार नहीं करना पड़ा। एक सज्जन पधारे। गेट के अन्दर आते ही उन्हें वो अजीब मंज़र दिखाई दिया।

वे बुरी तरह चौंके! : "अरे! तेर्रे की!! का होलई जी? कोई मर गेलई का?"
एक स्टाफ रुंघे स्वर में बोला : "हाँ!"
आगंतुक : "च-च-च, के रे भाई?"
स्टाफ : "साधुवा !"
आगंतुक : "साधुवा ! ड्राईवर ! मर गेलई !? धेत्त !!! अभी थोडेहें देर पाहिले तो बाबु के ले के ओकरा आवत देखले हलियई !"
 एक स्टाफ ने चादर को थोड़ा सा उठा कर सोय हुए साधू राम का चेहरा उसे दिखाया। आगंतुक ने अविश्वासपूर्ण भाव से उसे देखा। मायूस मुंह बना कर अपना अफ़सोस जताया, फिर उसने सुबकते हुए आदमी को देखकर पूछा :" ई के हई?"
स्टाफ : "साधुवा के भाई। बेचारा लोहरदगा से एकर से कुछ पइसा मांगे आइले हलई, लेकिन,..ओफ़्फ़! ...अब का कहियऊ!"
आगंतुक : "म..चह:! बेचारा ! आगंतुक अपना दुःख प्रकट करते हुए बोला : "कोई मालिक लोग नई हथुन का? अब कैसे का करे ला हई?"
स्टाफ :"मालिक लोग तो कोई नई हथिन। जे बाबु के ले के तूं एकरा आवत देखलिन ओहो अभी दुसरा डरेवर ले के क्लब निकल गेलई। तब्भे अचानक हमिन के नज़र पडलई तो ...ख़तम!! डाक्टरो डिक्लियर करदेलई। एकर भाई "बॉडी" लोहरदगा लेगे खोजत हई,  लेकिन हिंयाँ हमिन केकरो पास काम लायेक रुपिया-पैसा नई हई, एहे ला हमिन हिंयाँ चन्दा वास्ते बैठल 'तोर जइसन' "बड़ा" आदमी के इंतज़ार करा थियऊ, कि कोई गाडी-वाड़ी ठीक कर के "बॉडी" भेजवावल जाय। देखिन, अगर ...जे हो सका हउ तो कुछ मदद कर देहिन बेचारा के।"

उस 'बड़े' आदमी ने सहानिभूति और संवेदना प्रकट करते हुए 20/रू . दिए।

ऐसे ही लोग आते गए जिनके सामने वो ख़ास ड्रामा पूरे थियेट्रीकल्स के साथ पेश किया जाता रहा। अपने काम से आये व्यक्ति मालिकन के न रहने पर उस "दारुण दुःख" पर द्रवित हो कर अपना आर्थिक योगदान और "मृतक" और उसके परिवार के प्रति अपनी संवेदना और श्रद्धांजलि प्रकट कर जाने लगे। कुछ लोग, जो मालिकान से "मांगने" आये थे, किसी मालिकान के नहीं रहने के कारण, और कहीं उल्टा कुछ देना न पड़ जाय, केवल अपना अफ़सोस जता कर तुरंत फूट लिए। यूँ ही करीब 20-25 मिनट ये ड्रामा चला और ...तक़रीबन 250/-रू. जमा हो गए।

इस 'तमाशे' के चलते तबतक अन्दर कंपाउंड में छोटी-सी भीड़ इक्कट्ठी हो गई थी। भीड़ में से एक 'सयाने' ने कहा :"आईं, इयार तोहिन मुर्दवा उल्टा काहे सुताइले ह ?" मुर्दा के मूंडी उत्तर दिसा में न रक्खल जा हई! तोहीन तो पुरबे-पच्छिम धर देले हं! चला मिलके उत्तर दिसा देने मूंड़ी करा। गंगाजल-तुलसी तो अब लोहरदगे में न करबथिन, से कम-से-कम हीयाँ तो कदर करांह।" और वो आगे बढ़ा और बाकियों पर झल्लाया : "चल्हन भाई! कोई अउर आदमी दूसर देने पकड़ा, सबके एक दिना अइसने जाय ला हवा।"

उसके कहने पर कुछ लोग "मुर्दे" की तरफ बढ़े। ऐसा देख अख्तर और बाकी स्टाफ भीड़ के पीछे खिसक गए। लोग मिलकर "मुर्दे" को जैसे ही उठाने लगे साधू राम कुनमुनाया। "मुर्दे" को कुनमुनाते देख उसे उठाये हुए लोगों की हालत पतली हो गई, "मुर्दा" उनके हाथ से छूट गया और वो धबाक से नीचे पक्के फर्श पर गिरा। गिरते ही साधुवा जोर से चिल्लाया :"अगे मांय गे! ...ऊह!! ...अरे ब..आप!!"

...लोग भागे।

सबने देखा "मुर्दा" उठ खडा हुआ था! सब हक्के-बक्के थे।

साधू ने पूछा :"काहे भाई! काहे पटकला बे हमरा, सालन सुत्तल आदमी के आइसे जागवल जा हई?" ...फिर उसकी नज़र अपने जिस्म से उलझी सफ़ेद चादर पर और अगरबत्तियों पर पड़ी। वो गरजा :"केकर बदमासी हई?"

अख्तर ने आगे आकर उसे हँसते हुए समझाया : "कोई बदमासी नई करले हउ। तोरा सुतल देख के कि कहीं ठंढा नई लगे चद्दर ओढ़ा देले हलियाऊ लेकिन पब्लिक तोरा लावारिस मुर्दा समझ के तोर किरिया-करम वास्ते तोर उपरे पइसा फेंके लग्लथुन तो एकर में केकरो का दोस हई? सांत हो जा रे मामू ढेरे चंदा मिलले हउ। अइसने रोज-रोज मरबे न तो जे गाड़िया चलावाहीन ना वइसन के मालिक बने में देरी नई लगतऊ।"

साधू राम से रहा न गया उसने एक ढेला उठाया और गाली बकते हुए अख्तर को मारने दौड़ा। : "स्स्साला !!! बदमासी नई हई !! तो अगरबत्तिया का तोर बाप गाडले हलऊ!!??" भोंस...वाला! ...फिर साधू राम ने सनातन धर्म के संस्कारों की तरह प्राप्त विरासत में मिले अभाद्रान्कालिक शब्दावलियों से कुसंस्कृत-कुसज्जित गालियों के साथ ईंट-पत्थर और ढेला चलाते अख्तर को सबक सिखाने उसके पीछे दौड़ा। आगे-आगे अख्तर, पीछे-पीछे हाथ में ढेला लिए गाली बकते साधू राम को देख उपस्थित लोग पेट पकड़कर जोर-जोर से हंसने लगे। अख्तर को साधू नहीं पकड़ सका। थक कर वापस आकर बाकी स्टाफ साथियों से उलझ गया :" सालन! तोहीन के हंसी छुटत हउ, मामू के ..अना सब! आवे दे बाबु के हम सब बतईबई।" साधू का गुस्सा,बकते-झकते, गालियों और कोसनो से सब पर अपनी भड़ास निकलते, धीरे-धीरे शांत होने लगा।

उस दिन शाम को - शांत होने पर साधू ने पूछा :आइं रे, पइसवा के का होलई? जबाब मिला सभी स्टाफ आपस में बाँट लिए। साधू उदास हो गया, और मन-ही-मन सबको फिर गरियाने लगा। तभी अख्तर और बाकी स्टाफ आते दिखे। उन्हें देखते ही साधू राम क्रोध से कांपने लगा। उसके मुंह से गालियों का लावा फूटने ही वाला था कि अख्तर ने उसके सामने एक थैला रखा और बोला :" ले साधू भाई, खा-पी और आशीर्वाद दे।" आशंकित साधू ने थैले में से निकाल-निकाल कर सभी सामान सामने रखे, देखा - भुनी हुई मछरी, चना-मसाला और दारु के 5-7 पाउच थे। साधू हिचकिचाया। अख्तर ने हँसते हुए कहा :"अभियो गोसाइले हे का? अरे खा न! और हमिनो के कुछ दे। और वादा कर कि अब से मरल जइसन नई सुतबे। नई तो अबकी सीधे ....हूवें पंहुचावे ला सब कोई तइयार हथुन।"

धीरे-धीरे साधू शांत होने लगा, उसने खूब मनुहार के बाद मछरी के एक टुकड़े को उठाया और चबाने लगा, उसने कुछ चने भी लिए और बोला :"सब हम अकेले थोड़े खइबई, तोहिनो लेवां। तभी दिन का वो आगंतुक अचानक आ टपका। साधू को जीता-जागता सही-सलामत देखकर पहले तो वो बुरी तरह चौंका, लेकिन साधू सहित अन्य लोगों के चेहरों पर जब उसने गौर किया तो सारा माजरा उसकी समझ में आ गया।

वो बोला : "का रे साधुवा तूं तो मर गेले हले ना रे मामू! स्स्स्साल्ला दारू-मछरी सूंघते जिंदा हो गेल्ले बेट्टा !"

साधू मुस्कुराया। सभी मुस्कुराए, और पार्टी जम गई। दिन की उस हरकत की बात निकली, सभी उस बात को अब एक मज़ाक समझ कर बतियाने लगे और खिलखिला-खिलखिलाकर हंसने लगे।

हंसने वालों में साधू राम भी था, जो अब खींस निपोर कर हंस रहे था।

मुर्दा सचमुच जी उठा था।

[साधू राम ड्राईवर अब पेंशन पर रिटायर हो चुके हैं, रोज मिलते हैं, हंसी ठट्टा होते ही रहता है।]

- श्रीकांत तिवारी.

Saturday, December 15, 2012

"गूगल ब्लागस्पाट" कमाल का !

गूगल ब्लागस्पाट पर बड़े ही कमाल का सोफ्टवेयर है! इससे इंग्लिश की-बोर्ड पर इंग्लिश फोनेटिक्स से हिंदी के शब्द टाइप करते ही आपका मनोवांछित हिंदी शब्द देवनागरी में प्रकट हो जाता है। है न मजेदार !?

पर ये डाउनलोड कर इन्स्टाल नहीं किया जा सकता। इसके लिए इस साईट पर आपका अपना ब्लॉग होना चाहिए। ढेर सारे ओप्शन्स हैं, कतई परेशानी नहीं होती।

गूगल बाबा का धन्यवाद!

श्रीकांत तिवारी 

Friday, December 14, 2012

आलतू-फ़ालतू

 आलतू-फ़ालतू

पेट्स, (मलुवा के बच्चों को) आगे हम जिन्हें पालेंगे उनमे एक फीमेल और एक मेल है। सभी जर्मन शेपर्ड हैं, जबकि मलुवा देहाती सड़कछाप है!! बाकीयों को दुसरे दोस्त ले जायेंगे, और मलुवा शायद 'वनवास' को चली जाएगी। न जाय ऐसा मेरा प्रयास रहेगा। ज्यादा ज़ज्बाती होने की ज़रुरत नहीं है, क्योंकि सबका अपना-अपना प्रारब्ध होता है। खैर,

फीमेल पिल्ले का नाम मैंने रखा है:"आलतू"; यूँ पुकारूँगा :"अरे अल्तुवा ....!" मेल पिल्ले का नाम मैंने रखा है:"फ़ालतू"; यूँ पुकारूँगा :"अरे फल्तुवा ...!" कुकुर के आउर का नाम होखे ला !? दून्नो चाऊं-चाऊं करते आवेगा। गोदी में ले के इनको खेलावेंगे और खेलेंगे। पर इनकी तो अभी आँखें भी नहीं खुली है।

फ़िल्मी एक्सप्रेशन वाले नाम भी मेरे जेहन में हैं, लेकिन वो आगे इन पिल्लों के व्योहार और पर्फ़ोर्मेन्स पर निर्भर है।

Thursday, December 13, 2012

अदभुद अनुभव !

एक फिलोसोफिकल बात; (काल्पनिक नहीं, हकीक़त !) :
सुरेन्द्र मोहन पाठक शाम के ऑफिस आवर में ही अपने एक घनिष्ठ मित्र के दफ्तर पहुँच कर बोले :"चलो कहीं सेलेब्रेशन हो जाय!"
मित्र हकबकाय :"अभी?"
पाठक जी :"हाँ ! उठो जल्दी।"
मित्र :"पर किस बात का सेलेब्रेशन है? कुछ तो पता चले!"
पाठक जी :"तुम चलो तो, वो भी पता चल जाएगा।"
मंत्रमुग्ध मित्र उठे और पाठक जी के साथ हो लिए। दोनों मित्र एक बार में पहुंचे और ड्रिंक्स का आर्डर दिया। मित्र से रहा न गया, उन्होंने फिर पूछा :"यार ! कुछ तो हिंट दो आखिर किस बात का सेलेब्रेशन है?"
पाठक जी :"ड्रिंक्स आने तक सब्र करो।"
आखिर ड्रिंक्स सर्व हुई। दोनों ने चियर्ज़ बोला। मित्र ने फिर आग्रह किया :"अब तो बताओ!"
पाठक जी ने बड़े इत्मीनान से उत्तर दिया:"आज मेरी बची हुई ज़िन्दगी का पहला दिन है।"

..........ये मेरे लिए एक नया अनुभव था !!


जबतक जिओ हर दिन को एक नई उर्जा और उमंग के साथ जिओ।
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अदभुद अनुभव !
बात 05,दिसंबर,2012 की है:
 
वीणा का जिस नर्सिंग होम में ईलाज हुआ उसके बाहर एक फ्रूट जूस कोर्नर है। नर्सिंग होम से निकल कर हमलोग वहाँ गए और अपनी-अपनी पसंद के जूस का आर्डर दिया। मैं थोडा थका सा था और मुझे गर्मी भी लग रही थी इसलिए मैं जूस वाले की दुकान के अन्दर जाकर ठंडी छाँव में एक छोटे से बेंच के सीमित स्थान पर बैठ गया। जूस वाला पहले से खड़े ग्राहकों को निपटा रहा था। वीणा, माँ और धीरू को मैंने अन्दर आने का ईशारा किया, पर उन्होंने मना कर दिया। मैं अभी ठीक से रिलैक्स हो भी न पाया था कि देखा एक 65-70 वर्षीय कृषकाय बुजुर्ग थोडा लड़खड़ाते छड़ी टेकते हुए अन्दर आने की कोशिश कर रहे थे। मैंने उनके बैठने के जगह के वास्ते अगल-बगल देखा। एक और नवजवान बेंच पर बैठा था। मैंने बुजुर्गवार के बैठने के लिए अपनी जगह छोड़ दी और उठ खड़ा हुआ। बैठा हुआ नवजवान खाली हुई जगह पर और पसर गया। तब बुजुर्गवार थोड़े गडबडाए कि कहाँ बैठें। ये देखकर मैंने नवजवान की पीठ पर हाथ रखा और उसकी बांह पकड़ कर बुजुर्गवार की ओर इशारा कर उससे निवेदन किया कि :"प्लीज इनको बैठने दीजिये। नवजवान तुरंत उठ गया। बुजुर्गवार खाली हुई बेंच पर बैठ गए, उन्होंने काफी सुकून पाया। मैं जूस कोर्नर से बाहर निकल कर माँ और वीणा के पास धूप में खड़ा हो गया। हमारी जूस आई और हम जूस का आनंद लेने लगे। तभी जूस वाले ने मुझे पुकारा :"भईया ! आपको ई बुला रहे हैं।" मैंने पूछा कौन, तो उसने बुजुर्गवार की तरफ इशारा किया और अपने काम में मशगूल हो गया। मैं बैठे हुए वृद्ध सज्जन के पास पहुंचा तो उन्होंने हाथ के ईशारे से मुझे अपनी ओर झुकने के संकेत दिया। में झुका :"जी!?"

वृद्ध बोले :"हम आपको कुछ नुस्खा बता रहे हैं कर के देखिएगा बहुत फायदा होगा।" और उन्होंने मुझे स्वास्थ्य सम्बब्धी कुछ नुस्खे बताय, बोले :"आजमा के देखिएगा।" और अंत में अपने दोनों हाथों से उन्होंने मेरी पीठ थपथपाई, मेरे सिर को सहलाया और बोले :"जाइए मेरा आशीर्वाद है।"


......अभिभूत, ......मंत्रमुग्ध !!!.......... मैं अभी भी रोमांचित हूँ। 

झुलसे हुए कान

एक आदमी अपने दोनों झुलसे हुए कानों के साथ कराहता हुआ डॉक्टर के पास पहुंचा। डॉक्टर उसकी उस दशा पर बहुत हैरान हुआ। उसने बड़ी सहनुभूति से उसे पास बिठाया और पूछा : " ये कैसे हुआ!?"
मरीज़ ने दयनीय स्वर में अपना दुखड़ा सुनाया : " सर, शाम को जब मैं ऑफिस से लौटा तो देखा मेरी बीबी बच्चों के कपड़े प्रेस कर रही थी। मैंने उससे चाय बना कर लाने को कहा और वहीं पास में रखे टेलीफोन के बगल की कुर्सी पर बैठ गया। देर होते देख मैंने बीबी से फिर कहा :"अरे, जल्दी चाय कहे नहीं देती है?"  बीबी झुंझलाती हुई गर्म आइरन को टेलीफोन के बगल में रखकर किचन में चली गई। थोड़ी देर में ही टेलीफोन की घंटी बजी और बेध्यानी में गलती से गर्म आइरन के हैंडल को टेलीफोन का रिसीवर समझ कर मैंने उठाया और दाहिने कान से सटा लिया, जिसके कारन मेरा दाहिना कान झुलस गया! मेरी चीख सुनकर बीबी भागती हुई किचन से आई और मेरी हालत देखकर उल्टा मुझी को फटकारने लगी कि मुझे बिकुल अकल नहीं है। उसने टेलीफोन को आयरन के दुसरे बगल में रख दिया फिर मेरे कान पर बरनौल लगाया और मेरी कुर्सी को घुमाकर मुझे बिठाया और वापस किचन में चली गई।"

डॉक्टर :"च! च!! च!!! लेकिन दूसरा कान कैसे जला??"
मरीज़ :"उसी कमीने ने दुबारा फोन कर दिया !!!"

 लेखक : श्री सुरेन्द्रमोहन पाठक.

Wednesday, December 12, 2012

12वाँ वर्ष! 12वाँ महीना! 12वाँ दिन! 12वाँ घण्टा! 12वाँ मिनट! 12वाँ सेकेण्ड! सबको मुबारक!
 -श्रीकांत तिवारी 

Tuesday, December 11, 2012

"मोबईलेरिया!"

एक व्यक्ति पेट की अलामत की शिकायत के साथ डॉक्टर के पास पहुंचा। डॉक्टर ने मुस्कुरा कर उसका स्वागत किया अपनी बगल की टूल पर उसको बैठने को कहा। कुछ पूछने से पहले डॉक्टर असमंजस में पड़ा, उसने जोर-जोर से सांस खींच कर अपने चैम्बर की हवा को सूंघा। एक न पहचान में आने वाली अजीब सी गंध से चैम्बर भरा पड़ा था। तभी मरीज़ की कराह से उसका ध्यान नार्मल ट्रैक पर आया। उसने सहानुभूति से पूछा : "हाँ जी बोलिए क्या तकलीफ है, क्या हुआ है आपको?"
मरीज़ : "मोबईलेरिया!"
डा. अचकचाया : "जी! क्या ! क्या फरमाया?"
मरीज़ : "मोबईलेरिया, सर!"
डा. : "ये कैसी बिमारी का नाम ले रहे हैं आप!! क्या होता है इस बिमारी में?"
मरीज़ : "एक तरह का गैस्ट्रिक है, सर!"
डा. : "अच्छा!! क्या होता है इनमे?"
मरीज़ : "बहुत अजीब-अजीब सा हो रहा है सर!"\
डा. : "जैसे क्या? खुल कर पूरी बात अच्छी तरह बतलाइये।"
मरीज़  : "सर, पेट का सेटिंग सिस्टम बिगड़ गया है। हम बार-बार रिसेट करते हैं लेकिन फिर बिगड़ जाता है। साइलेंट मोड में रखते हैं, लेकिन फिर अपने-आप वापस जेनरल मोड में आ जाता है। भोल्युम अपने-आप घटते-बढ़ते रहता है। भाइब्रेशन अचानक बढ़ जाता है, कभी-कभी खतरनाक ढंग से भाईब्रेट करता है। रिंगटोन पर से कंट्रोल एकदम्मे ख़तम हो गया है। पता नहीं कइसा-कइसा नया-नया रिंगटोन अपने-आप बजने लगता है।  फूस-फूस मोड से अपने-आप भड़-भड़ भाईब्रेट मोड में आ जाता है, और नया-नया ट्यून बजने लगता है। बहुत तकलीफ में हैं सर कुछ इलाज कीजिये। इसका सौफ्टवेयर बेकाबू हो गया है, कभियो कुच्छ हो सकता है।"
डा.  : "...अच्छा-अच्छा ! ...एक बात बताइये, जबसे आप चैम्बर में घुसे हैं एक अजीब सी गंध इसमें भर गई है, वो क्यूँ, घाव-वुव हुआ है क्या?"
मरीज़ : "नई,...उ ...उ सर, एम्बी-प्योर लगाय हुए हैं !!" .........परर्रर्रर्रर्र  ....पुईं ...ठस्स ...ठुस्स ...धडाम।

और डॉक्टर चारों खाने चित्त।
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